राज्य-शहर ई पेपर व्यूज़- विचार

सामाजिक समरसता के प्रतिबिंब है श्रीराम

संघ-भाजपाई

भारतीय वांग्मयों की मार्क्स-मैकॉले मानसपुत्रों (द्रविड़ आंदोलनकारियों सहित) ने अपने कुटिल एजेंडे के अनुरूप विवेचना की है। उनका उद्देश्य सामाजिक कुरीतियों को मिटाना नहीं, अपितु उनका उपयोग करके ‘असंतोष’ का निर्माण करना है। ऐसे ही कई मिथकों से वर्ग-संघर्ष अर्थात् हिंसा को जन्म दिया गया है। रामायण, महाभारत इत्यादि के साथ भी इस कुनबे ने यही किया है। श्रीराम का जन्म किसी दलित की हत्या करने हेतु नहीं हुआ। उनका अवतरण रावण के रूप अन्याय, अनाचार और अहंकार को समाप्त करने हेतु था।

सुधी पाठकों को दीपावली की बधाई। प्राचीनकाल से इस पर्व का संबंध मां लक्ष्मी पूजन के साथ श्रीराम द्वारा वनवास पूरा करने के बाद पुन: अयोध्या लौटने से रहा है। पिछले कॉलम ‘रामराज्य से प्रेरित, देश के आर्थिक विकास का प्रयास’ में जहां लक्ष्मी अर्थात् भारतीय आर्थिकी पर चर्चा हुई थी, तो इस बार के कॉलम में मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम की जीवनयात्रा और वर्तमान जीवन में उसकी प्रासंगिकता पर विवेचनात्मक अध्ययन करना स्वाभाविक हो जाता है। श्रीराम सनातन संस्कृति की आत्मा है और उनका जीवन न केवल इस भूखंड में बसे लोगों के लिए, अपितु समस्त विश्व के लिए आदर्श हैं।

एक मनुष्य को प्रत्येक स्थिति में कैसा आचरण करना चाहिए, उसके लिए श्रीराम आदर्श हैं। पिनाक (शिवधनुष) का टूटना, श्रीराम के जीवन की एक अद्वितीय घटना है। उनके लिए यह उत्सव और सफलता का क्षण है। लक्ष्मण के व्यंगों से महान शिवभक्त परशुरामजी क्रोधित हो उठे। इससे दोनों ओर उत्तेजना चरम पर पहुंच गई। तब श्रीराम सफलता के उत्कृष्ट छन में अपने विन्रम व्यवहार और मधुर-वाणी से स्थिति को संभालते है। श्रीराम कहते हैं, “…रिस अति बड़ि लघु चूक हमारी, छुअतहिं टूट पिनाक पुराना, मैं केहि हेतु करौं अभिमाना” अर्थात्— ‘हे मुनि! आपका क्रोध बहुत बड़ा और मेरी भूल बहुत छोटी है। पुराना धनुष था, छूते ही टूट गया। मैं किस कारण अभिमान करूँ?’ सफलता के शिखर पर पहुंचकर भी एक व्यक्ति को कैसा व्यवहार करना चाहिए, उस संदर्भ में श्रीराम अनुकरणीय हैं। श्रीराम सदैव मर्यादा की परिधि में रहे, इसलिए मर्यादापुरुषोत्तम कहलाए। जब वे अयोध्या नरेश बने, तब उनके लिए प्रजा सर्वोपरि और शेष निज-संबंध गौण हो गए।

श्रीराम सामाजिक समरसता के प्रतिबिंब है। जीवन के सबसे कष्टमयी कालखंड में श्रीराम ने अपने सहयोगी और सलाहकार वनवासियों को ही बनाया, जिसमें केवट निषाद, कोल, भील, किरात और भालू सम्मलित रहे। यदि श्रीराम चाहते तो, अयोध्या या जनकपुर से सहायता ले सकते थे। परंतु उनके साथी वे जन बने, जिन्हें आज आदिवासी, दलित, पिछड़ा या अति-पिछड़ा कहा जाता है। इन सभी को श्रीराम ने 48 बार ‘सखा’ कहकर संबोधित किया, तो वनवासी श्रीहनुमान को लक्ष्मण से अधिक प्रिय बताया है। “सुनु कपि जिय मानसि जनि ऊना। तैं मम प्रिय लछिमन ते दूना॥” जैसे ही भरत को पता चलता है कि निषादराज श्रीराम के सखा है, तो यह जानकर भरत रथ से उतर जाते है और निषादराज को गले लगा लेते है। “राम सखा सुनि संदनु त्यागा। चले उचरि उमगत अनुरागा॥” अर्थात्— ‘यह श्रीराम के मित्र है, इतना सुनते ही भरत ने रथ त्याग दिया और प्रेम में उमंगते हुए चल पड़े।‘

भील समुदाय की शबरी माता का पिछड़ापन दोहरा है, क्योंकि वे गैर-अभिजात वर्ग की स्त्री है। श्रीराम शबरी के झूठे बेर सप्रेम ग्रहण करते है। अपने आराध्य श्रीराम के समक्ष माता शबरी संकुचित हो जाती हैं। इसपर रघुनाथजी कहते हैं— “…मानाउँ एक भागति कर नाता, जाति पाँति कुल धर्म बड़ाई, धनबल परिजन गुन चतुराई, भगति हीन नर सोइह कैसा, बिनु जल बारिद देखिअ जैसा” अर्थात्— ‘मैं तो केवल भक्ति का संबंध मानता हूं। जाति, पांति, कुल, धर्म, बड़ाई, धन, बल, कुटुम्ब, गुण और चतुरता— इन सबके होने पर भी भक्ति से रहित मनुष्य कैसा लगता है, जैसे जलहीन बादल।‘ मां सीता की रक्षा में अपने प्राणों की आहुति देने वाले मांसाहारी गिद्धराज जटायु, जोकि वर्तमान में एक निकृष्ट पक्षी है— उन्हें श्रीराम कर्मों से देखते हैं और एक पितातुल्य बोध के साथ उसका अंतिम-संस्कार करते है। यह सूचक है कि श्रीराम के लिए केवल कर्म ही महत्व रखता है, शेष कुछ भी नहीं।

रावण कौन था? वह पुलस्त्य कुल में जन्मा ब्राह्मण, प्रकांड पंडित, महान शिवभक्त, कुलीन, ज्ञानी और स्वर्ण लंका का स्वामी था। परंतु वह आचरण से अहंकारी, दुराचारी, कामुक और भ्रष्ट था। इसलिए हनुमानजी ने अधर्म के प्रतीक लंका का दहन, तो श्रीराम ने रावण का वध किया। यह बताता है कि आध्यात्मिक मूल्यों और सामाजिक व्यवस्था की रक्षा हेतु सभ्य समाज को पद-कद-समूह की चिंता किए बिना इन जीवनमूल्यों के शत्रुओं को दंडित करना चाहिए। यदि वर्तमान परिप्रेक्ष्य में इन मूल्यों को पुनर्स्थापित किया जाए, तो हम स्वस्थ समाज की रचना कर सकते है।

बालि संहार के पश्चात श्रीराम, सुग्रीव को किष्किन्धा का राजपाट सौंपते है, तो बालिपुत्र अंगद को इसका उत्तराधिकारी घोषित करते है। जब लंका में श्रीराम विजयी होते है, तब वे न केवल लक्ष्मण से कहकर विभिषण का राजतिलक करवाते है, अपितु विभिषण से घर की सभी महिलाओं को सांत्वना देने का अनुरोध भी करते है। राम शक्तिशाली और धर्मानुरागी होने के कारण समाज के अपराधी को तो दंडित करते है, किंतु पराजितों के धन-संपदा राज्य आदि से मोह नहीं रखते। यदि युद्धभूमि में इन मूल्यों का पालन किया जाता, तो विश्व का भूगोल-इतिहास कुछ और होता।

एक शत्रु के प्रति हमारा रवैया कैसा होना चाहिए? जब विभिषण अपने भाई रावण के किए पर लज्जित होकर उसके शव का अंतिम संस्कार करने में झिझकते है, तब श्रीराम कहते हैं, “मरणान्तानि वैराणि निर्वृत्तं न: प्रयोजनम्। क्रियतामस्य संस्कारो ममाप्येष यथा तव।।” अर्थात्— ‘बैर जीवन कालतक ही रहता है। मरने के बाद उस बैर का अंत हो जाता है।‘ सोचिए, शेष विश्व ने युद्ध में मानवता और मर्यादा की रक्षा ‘हेग कन्वेंशन’ (1899-1907) के रूप में की थी, जिसकी अवहेलना आज भी होती रहती है। इजराइल-हमास और रूस-यूक्रेन युद्ध इसके उदाहरण है। किंतु सनातन भारत में यह मानवीय मूल्य हजारों वर्षों से विद्यमान है।

भारतीय वांग्मयों की मार्क्स-मैकॉले मानसपुत्रों (द्रविड़ आंदोलनकारियों सहित) ने अपने कुटिल एजेंडे के अनुरूप विवेचना की है। उनका उद्देश्य सामाजिक कुरीतियों को मिटाना नहीं, अपितु उनका उपयोग करके ‘असंतोष’ का निर्माण करना है। ऐसे ही कई मिथकों से वर्ग-संघर्ष अर्थात् हिंसा को जन्म दिया गया है। रामायण, महाभारत इत्यादि के साथ भी इस कुनबे ने यही किया है। श्रीराम का जन्म किसी दलित की हत्या करने हेतु नहीं हुआ। उनका अवतरण रावण के रूप अन्याय, अनाचार और अहंकार को समाप्त करने हेतु था। श्रीराम ने अपने जीवनकाल में जो मूल्य अपनाए, वह आज भी प्रासंगिक है।

Tags :
Published
Categorized as Columnist

By बलबीर पुंज

वऱिष्ठ पत्रकार और भाजपा के पूर्व राज्यसभा सांसद। नया इंडिया के नियमित लेखक।

Leave a comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *