राजनीति और युद्ध के रणनीतिकार यह मानते हैं कि बड़ी लड़ाई जीतने के लिए कई बार छोटे छोटे मुकाबले हारने होते हैं। लेकिन कांग्रेस पार्टी ने जम्मू कश्मीर में जो राजनीति की है उससे ऐसा लग रहा है कि उसने छोटा मुकाबला जीतने के लिए बड़ी लड़ाई गंवा दी है। उसने जम्मू कश्मीर विधानसभा चुनाव के लिए फारूक और उमर अब्दुल्ला की पार्टी नेशनल कॉन्फ्रेंस से तालमेल कर लिया है। ऐसा नहीं है कि यह तालमेल पार्टी के प्रभारी महासचिव या किसी और नेता ने की है। कांग्रेस के सर्वोच्च नेता और लोकसभा में नेता विपक्ष राहुल गांधी खुद इसके लिए श्रीनगर गए थे। वे अपने साथ पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे को भी लेकर गए थे। खड़गे और राहुल ने स्वंय फारूक और उमर अब्दुल्ला से मुलाकात की और तालमेल को अंतिम रूप दिया। तभी इसके आगे अब जो भी घटनाक्रम होगा उसकी जिम्मेदारी पार्टी के साथ साथ राहुल गांधी की भी होगी।
-एस. सुनील
सबसे आश्चर्य में डालने वाली बात यह है कि राहुल गांधी ने जम्मू कश्मीर में नेशनल कॉन्फ्रेंस के साथ जब तालमेल किया उससे दो दिन पहले ही उस पार्टी ने अपना चुनाव घोषणापत्र जारी किया था। नेशनल कॉन्फ्रेंस ने विधानसभा चुनाव के लिए जारी घोषणापत्र में कहा है कि वह जम्मू कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा देने वाले संविधान के अनुच्छेद 370 को फिर बहाल करेगी। उसने यह भी कहा कि वह अनुच्छेद 35ए को भी फिर से बहाल करेगी और विधानसभा में एससी व एसटी के लिए आरक्षण देने के प्रावधान को भी बदलेगी। नेशनल कॉन्फ्रेंस का यह घोषणापत्र आने के बाद राहुल गांधी ने उसके साथ तालमेल किया है। यह नहीं माना जा सकता है कि राहुल गांधी ने नेशनल कॉन्फ्रेंस का चुनावी घोषणापत्र नहीं देखा होगा। उन्होंने घोषणापत्र देखने के बाद पूरी जिम्मेदारी के साथ तालमेल किया है।
इसलिए राहुल गांधी को निश्चित रूप से अनुच्छेद 370 पर अपनी और पार्टी की स्थिति स्पष्ट करनी होगी। उन्हें बताना होगा कि वे इसके बारे में क्या सोचते हैं और वे नेशनल कॉन्फ्रेंस द्वारा इसे फिर से बहाल करने के वादे का समर्थन करते हैं या नहीं? ध्यान रहे अगस्त 2019 में जब संसद में प्रस्ताव पेश करके इस अनुच्छेद को समाप्त किया गया तो पूरे देश ने इसका स्वागत किया था। कांग्रेस के भी कई नेताओं ने व्यक्तिगत रूप से इसका समर्थन किया। जहां तक कांग्रेस पार्टी का सवाल है तो उसने भी आधिकारिक रूप से इसका विरोध नहीं किया। उसके बाद से कांग्रेस हमेशा कहती रही है कि वह जम्मू कश्मीर का राज्य का दर्जा बहाल कराएगी। उसने कभी नहीं कहा कि वह विशेष राज्य का दर्जा बहाल कराएगी। इस तरह कह सकते हैं कि कांग्रेस ने अनुच्छेद 370 और अनुच्छेद 35ए पर रणनीतिक रूप से समान दूरी का रवैया अपनाया हुआ है। वह इन दोनों अनुच्छेद को हटाने का न तो खुल कर समर्थन करती है और न खुल कर विरोध करती है।
परंतु अब कांग्रेस को अपना रुख स्पष्ट करना होगा। क्योंकि जम्मू कश्मीर में चुनाव हैं और उसने नेशनल कॉन्फ्रेंस के साथ तालमेल किया है, जिसने अनुच्छेद 370 और 35ए की वापसी का वादा किया है। अब कांग्रेस को जवाब देना होगा कि वह जम्मू कश्मीर को फिर से विशेष राज्य का दर्जा देने के बारे में क्या सोचती है? वह जम्मू कश्मीर से लद्दाख को अलग किए जाने के बारे में क्या सोच रखती है? राज्य की अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों और महिलाओं के साथ घनघोर भेदभाव करने वाले अनुच्छेद 35ए के बारे में क्या सोचती है? जम्मू कश्मीर के अलग संविधान और अलग झंडे के बारे में क्या सोचती है? जम्मू कश्मीर विधानसभा चुनाव के दौरान तो कांग्रेस से इन सवालों के जवाब मांगे ही जाएंगे उसके बाद पूरे देश में इस पर चर्चा होगी। कांग्रेस को देश की जनता को इसका जवाब देना होगा, जिसने अनुच्छेद 370 हटाए जाने का खुले दिल से स्वागत किया था। कांग्रेस इन सवालों से पल्ला नहीं झाड़ सकती है। अगर वह जवाब नहीं भी देती है तब भी देश की एकता और अखंडता से जुड़े इस मसले पर उसकी सचाई जनता के सामने आ चुकी है।
हो सकता है कि नेशनल कॉन्फ्रेंस के साथ तालमेल और इन गंभीर मुद्दों पर चुप्पी कांग्रेस को जम्मू कश्मीर विधानसभा चुनाव में कुछ सफलता दिला दे लेकिन इन्हीं कारणों से कांग्रेस देश की लड़ाई गंवा देगी। कांग्रेस के प्रति देश भर में फिर से अविश्वास पैदा होगा। उसके विभाजनकारी एजेंडे पर नए सिरे से चर्चा होगी। यह आरोप प्रमाणित होगा कि वह जम्मू कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग बनने के पक्ष में नहीं है। अगर नए सिरे से अनुच्छेद 370 और 35ए की बहस छिड़ती है तो संविधान में इन्हें शामिल कराने के जवाहरलाल नेहरू के फैसले की भी समीक्षा होगी। संविधान सभा की बहसों में बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर ने जम्मू कश्मीर में विशेष राज्य के प्रावधान का विरोध किया था। नागरिकों से भेदभाव करने वाले इन विशेष प्रावधानों को लागू करने के पक्ष में वे नहीं थे। लेकिन जवाहरलाल नेहरू की जिद के चलते इन्हें लागू किया गया। अगर भानुमति का पिटारा खुलता है तो नेहरू के समय इन विभाजनकारी संवैधानिक प्रावधानों को लागू करने से लेकर प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी के कार्यकाल में उनको हटाए जाने तक की समीक्षा होगी। इसमें कांग्रेस को कई ज्वलंत सवालों के जवाब देने होंगे।
यह ध्यान रखने की जरुरत है कि जम्मू कश्मीर में बड़ी मुश्किल से शांति स्थापित हुई है तीन दशक तक अशांत रहा यह प्रदेश देश की मुख्यधारा से जुड़ा है। इससे सीमा पार भी बेचैनी है और देश के अंदर भी अलगाववादी ताकतें इससे परेशान हैं। जम्मू कश्मीर में पिछले करीब छह साल के राष्ट्रपति शासन के दौरान विकास और सुरक्षा बढ़ाने वाले काम हुए हैं, जिससे नागरिकों में भरोसा बना है और वे लोकसभा चुनाव में खुल कर मतदान के लिए बाहर निकले। जम्मू कश्मीर के इतिहास में संभवतः पहली बार ऐसा हुआ कि सभी पांच लोकसभा सीटों पर औसतन 50 फीसदी से ज्यादा मतदान हुआ। इसी वजह से चुनाव आयोग ने जल्दी से जल्दी विधानसभा चुनाव कराने का ऐलान किया। लोकसभा चुनाव में मतदान के आंकड़े सामने आने और चुनाव आयोग की तैयारियों को देखते हुए दूसरी ओर अलगाववादी और भारत विरोधी ताकतों की बेचैनी इतनी बढ़ी कि उन्होंने ताबड़तोड़ हमले शुरू कर दिए। सिर्फ जुलाई के महीने में जम्मू कश्मीर में सुरक्षा बलों पर 10 बड़े हमले हुए, जिसमें सैन्य अधिकारियों सहित 15 जवान शहीद हुए।
यह इस बात का संकेत है कि जम्मू कश्मीर को देश की मुख्यधारा में लाने, विकास की गति बढ़ाने और लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गई सरकार बनवाने की प्रक्रिया भारत विरोधी ताकतों को अच्छी नहीं लग रही है। वे चुनाव प्रक्रिया को प्रभावित करने में लगे हैं। ऊपर से घाटी में उग्र अलगाववादी विचारों वाली एक नई जमात तैयार हो रही है, जिसने लोकसभा चुनाव में जेल में बंद शेख अब्दुल राशिद उर्फ इंजीनियर राशिद को वोट देकर चुनाव जिताया। बारामूला सीट पर निर्दलीय उम्मीदवार इंजीनियर राशिद ने नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता और पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला को हरा दिया। संभवतः इस हार की वजह से ही अब्दुल्ला परिवार और उनकी पार्टी नेशनल कॉन्फ्रेंस ने अनुच्छेद 370 और 35ए की बहाली का वादा करना शुरू किया है। उसे चिंता सता रही है कि अगर विधानसभा चुनाव में इंजीनियर राशिद की आवामी इत्तेहाद पार्टी की अलगाववादी नीतियों को समर्थन मिला और लोग उसकी ओर गए तो नेशनल कॉन्फ्रेंस के अस्तित्व के लिए संकट खड़ा हो जाएगा। इसलिए उसने भी कट्टरपंथी लाइन पकड़ी है।
इंजीनियर राशिद की पार्टी के जवाब में नेशनल कॉन्फ्रेंस या पीडीपी का कट्टरपंथी लाइन पकड़ना समझ में आता है लेकिन कांग्रेस और राहुल गांधी की क्या मजबूरी है, जो उन्होंने भी वही रास्ता पकड़ लिया? उन्होंने क्यों कट्टरपंथी और अलगाववादी एजेंडे को समर्थन देने का फैसला किया? इसका जवाब राहुल गांधी को जम्मू कश्मीर की जनता को नहीं, बल्कि देश की जनता को देना होगा। कश्मीर की जनता को तो राहुल ने अपनी यात्रा के दौरान बता दिया कि कश्मीरियत उनके खून में है। यह सही है कि उनके पूर्वज कश्मीरी थी लेकिन यह तो दो पीढ़ी पहले की बात है। उनमें खुद में तो कश्मीरियत 25 फीसदी ही है और 50 फीसदी इटली है। क्या यह भी वे देश की जनता को बताएंगे? बहरहाल, वे अखंड और संप्रभु भारत का विरोध करने वाले रवैए और राजनीति का समर्थन कर रहे हैं। इसे वे कैसे न्यायसंगत ठहरा पाएंगे?
(लेखक सिक्किम के मुख्यमंत्री प्रेम सिंह तमांग (गोले) के प्रतिनिधि हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)