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बिना संगठन और सख्ती के राहुल की सारी मेहनत बेकार

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असली सवाल कांग्रेस अध्यक्ष खरगे ने पिछले महीने 29 नवंबर की दिल्ली में हुई सीडब्ल्यूसी की बैठक में उठा दिए। इसमें एक तो स्पष्ट है संगठन का। लेकिन दूसरा यह कि कि कांग्रेस नेतृत्व सख्ती क्यों नहीं करता है? आपके पास संगठन भी नहीं और हाईकमान मजबूत भी नहीं तो फिर कैसे चलेगा? वैसे ही चलेगा जैसे चल रहा है। कांग्रेस हमेशा से मजबूत निर्णय लेने वाले हाईकमान से चली है। लेकिन अब क्षत्रपों को हाईकमान का डर नहीं रहा। संगठन भी नहीं हाईकमान भी सख्त नहीं फिर पार्टी कैसे चलेगी?

प्रेरणा कहीं से भी मिल सकती है। लेकिन अगर कांग्रेस कर्नाटक के उत्तर पश्चिम में बसे ऐतिहासिक बेलगाम या बेलगाव जाकर लेना चाहे तो उसमें भी कोई बुराई नहीं है। सौ साल पहले यहां कांग्रेस अधिवेशन हुआ था। महात्मा गांधी को उस समय तक महात्मा कहा जाने लगा था। रवीन्द्र नाथ टेगौर ने 1915 में उन्हें सम्मान और श्रद्धा से यह नाम दिया था। और जब 1924 में कांग्रेस का 39 वां अधिवेशन वहां हुआ तो महात्मा गांधी को कांग्रेस अध्यक्ष चुना गया था।

वह ऐतिहासिक अधिवेशन था। वह मोतीलाल नेहरू, लाला लाजपत राय, सरोजनी नायडू, जवाहर लाल नेहरू और सरदार पटेल जैसे बड़े नेता इसमें शामिल हुए थे। तो सौ साल बाद वहां जाकर पार्टी की सर्वोच्च इकाई कांग्रेस वर्किंग कमेटी ( सीडब्ल्यूसी) की मीटिंग करना कांग्रेस के लिए प्रेरणादायी हो सकती है।  26 दिसबंर गुरुवार को वहां सीडब्ल्यूसी की मीटिंग है। बहुत सारे मुद्दों पर चर्चा होगी। लेकिन सबका केन्द्र होगा पार्टी को कैसे मजबूत किया जाए। जीत के रास्ते पर ले जाया जाए। संगठन का सवाल जिसके बारे में खुद कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे ने पिछले महीने हुई दिल्ली में सीडब्ल्यूसी की मीटिंग में कहा था कि कहीं है ही नहीं उसकी बात होगी।

पार्टी के अनुशासन की जिसके बारे में उन्होंने ही कहा था कांग्रेस के नेता ही एक दूसरे को हराने में लगे रहते हैं, बीजेपी से कैसे निपटेंगे हम! चेतावनी भी दी थी कि कार्रवाई करेंगे हम। हरियाणा की अविश्वसनीय हार के बारे में ही कहा था। कांग्रेस का हौसला तोड़ने वाली हार। उसकी फैक्ट फाइंडिंग टीम की रिपोर्ट भी आ गई है। देखते हैं कांग्रेस बेलगाव में इस पर क्या फैसला लेती है।

हरियाणा की हार के बाद महाराष्ट्र की हार और अब दिल्ली में वह 47 प्रत्याशी उतार चुकी है। 23 और बचे हैं। मगर जिस तरह बड़े नाम चुनाव लड़ने से बच रहे हैं उसे देखते हुए दिल्ली में भी पार्टी के लिए कोई अच्छी संभावना नजर नहीं आ रही है। दिल्ली में संगठन भी नहीं है और बड़े नेताओं का अपना कोई व्यक्तिगत प्रभाव भी नहीं। केवल राहुल और प्रियंका के नाम से कांग्रेस कितना समर्थन पा पाएगी।

सवाल और भी बहुत सारे हैं। पार्टी को अपने अंदर झांकने पर मजबूर करने वाले। आत्मनिरीक्षण वाले। मगर अभी पिछले कुछ सालों का इतिहास यह रहा है कि पार्टी इससे बचती है। कमियां ढुंढने का सवाल नहीं है, वह जानती है। और अभी एक महीने पहले ही दिल्ली में हुई सीडब्ल्यूसी की बैठक में कांग्रेस अध्यक्ष खरगे पार्टी की गुटबाजी से लेकर संगठन न होने, अनुशासनहीनता, एक दूसरे के खिलाफ बयानबाजी सब पर खुलकर बोले। तो पता सबको है। लेकिन उन्हें दूर कौन करे यह कांग्रेस की पिछले दो दशकों से ज्यादा की बड़ी समस्या है।

2004 में पार्टी जीत गई थी। केन्द्र में सरकार बन गई। कुछ अच्छी योजनाओं के दम पर चलती रही। लेकिन संगठन का काम नहीं हुआ। इसलिए जब एक नकली हवा भी चली अन्ना हजारे की आड़ में तो पूरी पार्टी भरभरा कर गिर पड़ी। अगर संगठन होता, नेतृत्व मजबूत होता तो अन्ना आंदोलन जो सारा नान-इश्यू पर था, कहानियां ( नरेटिव) बना कर गढ़ा गया था फेल हो जाता। लोकपाल जैसा अर्थहीन शब्द छा गया। आज किसी को मालूम है कौन लोकपाल, कैसा लोकपाल, क्या होता है। कहीं नाम भी आता है? मगर वह लोकपाल बच्चे बच्चे की जबान पर चढ़ा दिया गया। खा गया लोकपाल कांग्रेस को। और खुद भी गायब हो गया।

कांग्रेस को वहां से अपना आत्मनिरीक्षण करना चाहिए। और हरियाणा महाराष्ट्र की हार तक आना चाहिए। यह बेलगाव में होगा उम्मीद नहीं है।

अमित शाह का मुद्दा बहुत बड़ा है। इसमें संदेह नहीं। मगर वह साफ्ट टारगेट है। उस पर पूरी ताकत लगाना आसान है। बेलगाव में वह मुद्दा छाया रहेगा। कांग्रेस को सूट करता है। डॉ. आंबेडकर का अपमान है भी बड़ा मुद्दा। बीजेपी इसे जिस तरह नहीं मान रही उससे और भी बड़ा सवाल बन गया है। मायावती से लेकर नीतीश कुमार, चन्द्र बाबू नायडु भाजपा के सभी समर्थक द्विधा में पड़ गए हैं। दलित, आदिवासी, ओबीसी में गुस्सा भी है। खुद भजापा के अंदर इन समुदायों के नेताओं में बैचेनी है। कांग्रेस को इसे उठाना चाहिए। वह इसे आगे लेकर जाएगी। इसमें खुद से सवाल करने की जरूरत नहीं है।

ऐसे ही ईवीएम पर भी वह लड़ाई लड़ती रहेगी। हरियाणा और महाराष्ट्र में उसने हार का प्रमुख कारण इसे माना है। यह भी उसी नेचर का इशु है कि बात सही है। मगर आसान है। खुद से सवाल नहीं करना पड़ रहे हैं। आसान निशाने का मतलब यही होता है कि शिकार सामने खड़ा है। आपको पोजिशन लेने की भी जरूरत नहीं। मगर साफ्ट टारगेट ही क्या असली लक्ष्य होता है?  विजय दिलाने वाला। या साफ्ट टारगेट मन को बहलाने वाला होता है। समर्थकों को भरमाने वाला! मुश्किल सवाल है। कांग्रेस को उत्तर खोजना होगा। बेलगाव में देखते हैं क्या क्या सवाल आते हैं?

असली सवाल कांग्रेस अध्यक्ष खरगे ने पिछले महीने 29 नवंबर की दिल्ली में हुई सीडब्ल्यूसी की बैठक में उठा दिए। इसमें एक तो स्पष्ट है संगठन का। लेकिन दूसरा अन्तरनिहित है। छुपा हुआ कि कांग्रेस नेतृत्व सख्ती क्यों नहीं करता है? आपके पास संगठन भी नहीं और हाईकमान मजबूत भी नहीं तो फिर कैसे चलेगा? वैसे ही चलेगा जैसे चल रहा है। कांग्रेस हमेशा से मजबूत निर्णय लेने वाले हाईकमान से चली है। लेकिन अब क्षत्रपों को हाईकमान का डर नहीं रहा। संगठन भी नहीं हाईकमान भी सख्त नहीं फिर पार्टी कैसे चलेगी?

बाकि यह जो सारे मुद्दा हैं जिन पर पार्टी केन्द्रीत कर रही है वे सब साइडलाइन के मुद्दे  हैं। आंबेडकर का अपमान, ईवीएम की गड़बड़ी, अडानी का मुद्दा, नोटबंदी, किसान आंदोलन, चीन की घुसपैठ तक भाजपा इसलिए झेल जाती है कि उसके पास एक मजबूत नेतृत्व है। संगठन तो हमेशा से भाजपा के पास रहा ही है। मगर ढीले ढाले संगठन के बावजूद कांग्रेस इसलिए मजबूत होती थी कि उसका केन्द्रीय नेतृत्व बहुत मजबूत होता था। इन्दिरा गांधी जैसा। वह नए नए नेता गढ़ता रहता था।

अब खरगे दो साल से कांग्रेस अध्यक्ष हैं। और पार्टी में गुटबाजी, संगठन न होने की शिकायत कर रहे हैं। किससे?  राहुल प्रियंका, सोनिया पार्टी के दूसरे नेताओं से बात करें और संगठन बनाएं। महासचिव और डिपार्टमेंटों के चैयरमेन जो संगठन के मुख्य स्तंभ होते हैं कई सालों से यथावत हैं। ऐसे ही प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष। सिर्फ नए सैकेट्री और ज्वाइंट सैकेट्री खरगे जी ने बनाए हैं। जिनका बिना नए महासचिवों, डिपार्टमेंटों के चैयरमेनों के कोई उपयोग नहीं हो पा रहा है।

यह दो काम बहुत जरूरी है। सबसे जरूरी हाईकमान का मजबूती। और वह कहां है यह दृष्टव्य भी होना चाहिए। राहुल में है या राहुल प्रियंका खरगे जी के सामूहिक नेतृत्व में। दिखना चाहिए। पार्टी में सबको मालूम होना चाहिए। आज तो बहुत भ्रम है। बड़े बड़े नेता कहते हैं किससे मिलें? कौन करेगा? यह तत्काल दूर होना चाहिए। और जब यह हो जाएगा तो संगठन के नाम अपने आप क्लियर होना शुरू हो जाएंगे।

बड़ी जिम्मेदारी राहुल की है। उन्हें पार्टी के मामलों में ज्यादा स्पष्टता और तेजी से काम करना होगा। बाकी अपने लोगों से मिलने जुलने के सब काम रखें। मगर संगठन, अनुशासन मुख्य धूरी हैं। इनके बिना राहुल की यात्रा अलग अलग समूहों से मिलना जनता के बीच जाने के पूरे राजनीतिक फायदे नहीं मिल पाएंगे।

By शकील अख़्तर

स्वतंत्र पत्रकार। नया इंडिया में नियमित कन्ट्रिब्यटर। नवभारत टाइम्स के पूर्व राजनीतिक संपादक और ब्यूरो चीफ। कोई 45 वर्षों का पत्रकारिता अनुभव। सन् 1990 से 2000 के कश्मीर के मुश्किल भरे दस वर्षों में कश्मीर के रहते हुए घाटी को कवर किया।

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