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गुलाम नबी, कमलनाथ जैसों का क्या ईमान-धर्म?

अहसानफरामोश तो अहसानफरामोश ही होता है। जिस कांग्रेस ने सब कुछ दिया, या इसको जम्मू कश्मीर के कांग्रेसी ऐसे भी कहते हैं कि क्या नहीं दिया तो जबउन्होंने कांग्रेस को नहीं बख्शा तो फारुख अब्दुल्ला को स्पेयर करने कासवाल ही नहीं!…कमलनाथ अकेले नहीं हैं। वे अब जाएं या भाजपा द्वारा न लिएजाएं उससे कोई फर्क नहीं पड़ता है। उन्होंने अपना अवसरवादी चेहरा दिखादिया।

इतना तो 2019 में राहुल गांधी को नहीं मनाया गया था जितना कमलनाथ को कांग्रेस नेता ने अभी मना रहे हैं।कांग्रेसियों ने सारे दावे कर दिए है कि वे नहीं जा रहे। मगर उनके श्रीमुख से अभी तक जब हम यह लिख रहे हैं एक शब्द भी नहीं निकला है। लगता हैउन्हें भावी प्रधानमंत्री का आफर और देना पड़ेगा तब शायद वे उसे स्वीकारें और वापस कांग्रेस में पधारने की कृपा करें!

या यह अगर थोड़ाटेक्निकल मामला लग रहा हो कि इंडिया गठबंधन के दूसरे नेताओं से भी पूछनापड़ेगा और अखिलेश आदि शायद अडंगा डाल दें अन्यथा फिलहाल कांग्रेस अध्यक्ष बनाया जा सकता है। यह तो पार्टी का ही पद है। और महाजन येन गत: स पन्था:के तर्ज पर विश्व की सबसे बड़ी पार्टी बीजेपी का अनुसरण किया जा सकता हैकि पार्टी अध्यक्ष पद के लिए चुनाव नहीं होता है बल्कि मनोनयन काफी है। अभी नड्डाका कार्यकाल फिर ऐसे ही बढ़ाया गया।

तो ये दोनों आफर कांग्रेस को तत्काल कमलनाथ को कर देने चाहिए। इससे कमलनाथ का भला हो जाएगा। कांग्रेस से इतने बड़े आफर मिलने के बाद हो सकता है भाजपा कामन पसीज जाए और उसे लगे कि कमलनाथ का चाहे कोई उपयोग हो या न हो इन आफरोंका है। हेडलाइन मैनेजमेंट सही हो जाएगा कि मोदी के नेतृत्व में काम करनाइतना गौरवशाली है कि कमलनाथ ने कांग्रेस अध्यक्ष पद और प्रधानमंत्री पदकी उम्मीदवारी भी ठुकराई!

2019 में राहुल गांधी ने कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा दिया था। मगरजैसे आज कांग्रेसी कमलनाथ को मनाने में जी जान लगाए हुए हैं वैसे उस समयराहुल को मनाना तो दूर कांग्रेस के सारे बड़े नेता इसे अपने लिए छींकाटूटा जैसे भाव से उल्लासित होकर अध्यक्ष बनने की जुगाड़ में लग गए थे।मीटिंग हुई पर्चियों पर नाम लिखकर वोटिंग हुई। सारे षडयंत्र खेल तमाशे किए मगर कैसे कोई कांग्रेसी दूसरे को अपने से उपर के दर्जे पर बिठा सकताथा! नतीजा सब फिर मिलकर सोनिया गांधी के पास गए और उन्हें दोबारा उसकुर्सी पर बैठने को मजबूर किया जिसे वे 2017 में छोड़ चुकी थीं।

मगर कांग्रेसी कभी इतिहास से सबक लेते नहीं हैं। राहुल वरिष्ठ नेताओं सेअपनी नाराजगी के बावजूद फिर सक्रिय हुए। हालांकि कांग्रेसियों ने शल्य (कर्ण का सारथी जो युद्ध में लगातार उन्हें हतोत्साहित करता रहा था) बननेमें कोई कसर नहीं छोड़ी। 23 लोगों ने गिरोह बनाकर उनके खिलाफ सोनिया कोएक चिट्ठी लिखी। और 23 के तो उस पर हस्ताक्षर थे। लिखवाने वाले मास्टरमाइंड इससे अलग थे। लेकिन उस समय राहुल डट गए।

अगर उन कांग्रेसियों कीमर्जी के मुताबिक राहलु यदि राजनीति छोड़ कर चले जाते तो आज जैसे शिवसेना, एनसीपीउनके बनाने वालों की न होकर विश्वासघातियों की पार्टी हो गई हैवैसा होता। चुनाव आयोग और सुप्रीम कोर्ट ने कानूनीतौर पर ओरिजनल लोगों से कह ही दिया है कि अपना नाम बदल लो, ऐसे ही कांग्रेस हो चुकी होती। जयचंदों, विभिषणों के टुकड़े को असली कांग्रेस का तमगा मिल चुका होता औरगांधी-नेहरू परिवार से कहा जाता कि कांग्रेस तुम्हारी नहीं! अपना नाम बदललो!

ऐसे मौकों पर हमें कांग्रेसियों के हमेशा फोन आते हैं कि आप कमलनाथ केपक्ष में क्यों नहीं लिख रहे हैं? हम पूछते हैं पक्ष में लिखने का एककारण बताइए तो चुप हो जाते हैं। ऐसे ही गुलाम नबी आजाद ने जब रोना धोनाशुरू किया था तब कांग्रेसी कहते थे यह सच्चे आंसू हैं। कांग्रेस के हितमें बह रहे हैं। आप नहीं समझ रहे। हम नहीं समझे और लिखते, बोलते रहे कि यहआंसू मोदी जी से अभय दान पाने के लिए हैं। और जो ज्ञानी हमें अज्ञानी बतारहे थे वे जीत गए यह कहकर कि देखिए भाजपा में तो नहीं गए। अपनी अलगपार्टी बनाकर सोनिया राहुल और पूरे परिवार को गालियां दे रहे हैं। अपनेमंच से। भाजपा में नहीं गए। गुड़ खाया तो क्या गुलगुले तो नहीं खाए!

कांग्रेसी तो कभी बता नहीं पाए। उमर अब्दुल्ला ने आजाद को टेग करकेउन्हें उनका काला चिट्ठा थमा दिया। दरअसल जम्मू कश्मीर में कोई नेताउनके पास बचा नहीं है। जनाधार तो कभी था ही नहीं। काम ही नहीं किया तोकभी होगा कैसे? पहले इन्दिरा गांधी महाराष्ट्र से लोकसभा जितवा देतीथीं। फिर नरसिंहाराव के टाइम में जब समस्या आई तो फारूख अब्दुल्ला नेउन्हें पहली बार जम्मू कश्मीर से संसद पहुंचाया था। उससे पहले कभी वेजम्मू कश्मीर से संसद नहीं गए थे। ऐसे ही 1996 में फारुख ने उन्हें एक राज्यसभासीट दी थी।

तो कृतघ्न तो कृतघ्न ही होता है। कांग्रेस जिसने सब कुछ दिया। या इसकोजम्मू कश्मीर के कांग्रेसी ऐसे भी कहते हैं कि क्या नहीं दिया तो जबउन्होंने कांग्रेस को नहीं बख्शा तो फारुख अब्दुल्ला को स्पेयर करने कासवाल ही नहीं! तो एक टीवी इंटरव्यू में आजाद ने बड़ा सनसनी जैसा मामलाबनाते हुए कहा कि फारुख रात को 11 और 12 बजे प्रधानमंत्री और गृहमंत्रीसे मिले। और जाहिर है कि टीवी ने इसे बड़ी ब्रेकिंग खबर की तरह पेश किया।

चलिए टीवी को छोड़िए। यह भी छोड़िए कि फारूख के क्या अहसान हैं आजाद पर। मगर जो आदमी केन्द्र में बरसों मंत्री रहा हो, जम्मू कश्मीर कामुख्यमंत्री रहा हो, कांग्रेस का कई संवेदनशील राज्यों का प्रभारी रहा होवह रात में मिलने को रहस्यमय अंदाज में पेश कर रहा हो तो क्या कहेंगे?

सामान्यत : तो यह राजनीतिक अक्ल का दिवाला निकल जाने की बात है। आप आजादके गिरते स्तर पर बस तरस ही खा सकते हैं कि टीवी चैनल को खुश करने के लिएवे क्या क्या नए शोशे छोड़ते हैं। मगर बेटे को गुस्सा आना स्वाभाविक है।राजनीति में दिन और रात की मुलाकात में कोई फर्क होता है? औरप्रधानमंत्री गृहमंत्री से आजाद खुद जाने कितने बार मिले हैं। और दूसरेनेताओं को मिलवाया है।

2002 में जिन मुफ्ती मोहम्मद सईद के साथ जीतने की वजह से उन्हें समझौतेके तहत 2005 में मुख्यमंत्री पद मिल गया था। उस समझौते के लिए कांग्रेसके साथ कई दिनों तक आधी आधी रात तक बैठकें चली थीं। आधी रात, मिड नाइट तोजाने कितने अखबारी हेडिंगों ही नहीं राजनीतिक किताबों के टाइटल में आताहै। हर राजनीतिक पत्रकार बीस पच्चीस तो ऐसी आधी रात की रिपोर्टिंग कोवैसे ही याद करके बता सकता है। और हम इसमें कश्मीर की अलग से कई जोड़ सकते हैं। कई प्रधानमंत्रियों, कई मुख्यमंत्रियों और नेताओं के साथ। दसप्रधानमंत्रियों की तो हमें याद है। ठेठ इन्दिरा गांधी के समय से।

तो उमर ने कड़ा जवाब दिया। पहली बार उन्हें गुलाम कहकर संबोधित किया। साफबीजेपी का एजेंट कहा। सांसद न रहने के बाद भी सरकारी बंगला बने रहने औरमोदी सरकार द्वारा पद्म भूषण देने पर सवाल उठाया। राज्यसभा में उनकेप्रधानमंत्री के साथ मिलकर आंसू बहाने को याद दिलाया।

तो वैसे तो कमलनाथ अकेले नहीं हैं। वे अब जाएं या भाजपा द्वारा न लिएजाएं उससे कोई फर्क नहीं पड़ता है। उन्होंने अपना अवसरवादी चेहरा दिखादिया। वे भी उस लिस्ट में शामिल हो गए जिनमें पिछले दस साल में कांग्रेसके अच्छे समय में सत्ता सुख भोगने के बाद संघर्ष का समय आते ही गायब होजाने वाले या भाजपा में चले जाने वाले नेताओं के नाम हैं।

मगर थोड़ा फर्क है। बाकी लोगों के पास चाहे कमजोर हो मगर कोई कारण था।बहाना था। मगर जैसे नीतीश के पास कोई बहाना भी नहीं है। वैसे ही कमलनाथके पास कोई झूठा बहाना भी नहीं है। अदालतें तलाक के मामले में कारण पूछती हैं। वह चाहे वकील के द्वारा गढ़ाहुआ ही क्यों न हो। मगर यहां तो उनके वकील भी कोई कारण नहीं बता पाए? औरऐसे में उन्हें मनाने समझाने की हो रही कोशिशें कांग्रेस कार्यकर्ताओं केसाथ आम लोगों के लिए भी, जिनसे कांग्रेस को वोट लेना है की समझ से भी बाहर हैं।भला कांग्रेस के लिए कमलनाथ क्यों जरूरी हैं?

By शकील अख़्तर

स्वतंत्र पत्रकार। नया इंडिया में नियमित कन्ट्रिब्यटर। नवभारत टाइम्स के पूर्व राजनीतिक संपादक और ब्यूरो चीफ। कोई 45 वर्षों का पत्रकारिता अनुभव। सन् 1990 से 2000 के कश्मीर के मुश्किल भरे दस वर्षों में कश्मीर के रहते हुए घाटी को कवर किया।

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