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छठ: अलौकिक माहात्म्य का महापर्व

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अनंत किवदंतियों और उज्ज्वल परम्पराओं से गुजरता हुआ यह सूर्योपासना का विशिष्ट पर्व मूलतः लोक और विज्ञान के सम्मिलन और आस्था व विश्वास के महामिलन का महापर्व है।… मान्यताएं चाहे जो भी हों लेकिन यह पर्व मानवीय जीवन के पुरुषार्थ की कामना, प्रकृति पूजन एवं जल के महत्व को रेखांकित करता हैं। यह पर्व अपने स्वरुप में सिर्फ पवित्र ही नहीं वरन कृत्रिमता से दूर भी है।

मनीष चौधरी

जब सम्पूर्ण विश्व युद्ध के आतंक और मनुष्यता के विनाश के कगार पर खड़ा है। आतंकवाद निर्दोष मानवता के ऊपर बर्बरतापूर्ण व्यवहार करके डर और भय का वातावरण तैयार कर रहा है। हिंसा और अन्याय हमारे समय और समाज की पहचान बनती जा रही है। स्त्री की अस्मिता और बच्चों के बचपन पर संकट गहराता जा रहा है। हमारे पवित्र विचारों की गति विपर्यय होती जा रही है। मनुष्योचित गुणों का मंत्र विलुप्त होने को तत्पर है। मानवीय सम्बन्ध और साहचर्य की गंगा की धार कमतर हो रही है। वहीं मनुष्य की जिजीविषा और उत्कट आशा का भाव आज भी जीवंत है। उसी जीवंत सद्भाव, समानता, सौहार्द्र, सहभागिता और स्वच्छता के उदघोष के महापर्व का नाम है ‘छठ’।

यह सिर्फ पर्व नहीं है, बल्कि पवित्र सनातन संस्कृति से संवाद और व्यवहार है। सूर्योपासना के इस पावन पर्व का आख्यान और लोक मान्यता है कि सूर्य की ऊर्जा का मूल स्रोत उनकी भार्या उषा और प्रत्युषा हैं। इस पर्व में भगवान भास्कर के साथ-साथ शक्तिस्वरूपा उषा और प्रत्युषा की भी अभ्यर्थना की जाती है। एक ओर जहां अस्ताचल सूर्य (प्रत्युषा) को अर्घ्य दिया जाता है वहीं उदित सूर्य (उषा) की आशिमा को भी अर्घ्य देकर भगवान भास्कर के दोनों भार्या के साथ पूजा-अर्चना की जाती हैI यह ऊर्जा (शक्ति) के आदि स्रोत के साथ प्रार्थना के समन्वय का पर्व हैI वैदिक काल से इस पावन पर्व की मंगलयात्रा आरंभ हुई है। वह वर्तमान में भी सगुन और चैतन्य है। इसके साक्ष्य ऋग्वेद, विष्णु पुराण, भगवत पुराण, ब्रह्मवैवर्त पुराण आदि में दृष्टिगत होते हैं। हिंदू धर्म में सूर्योपासना का इतिहास जितना सुदीर्घ है उतना ही इसकी संस्कृति विराट और व्यापक है। सूर्य हिंदू देवताओँ में जागृत हैं, सगुन हैं, अनुभवशील हैं और लोक स्वीकृत हैं। देवताओं के साक्षात्कार की बात करें तो सूर्य शायद अकेले देवता हैं, जिनका प्रत्यक्ष दर्शन और उदार उपकार से सम्पूर्ण जगत लाभान्वित होता हैं।

अनंत किवदंतियों और उज्ज्वल परम्पराओं से गुजरता हुआ यह सूर्योपासना का विशिष्ट पर्व मूलतः लोक और विज्ञान के सम्मिलन और आस्था व विश्वास के महामिलन का महापर्व है। इसकी मान्यता का एक प्रसंग यह भी हैं कि रामराज्य के स्थापना के दिन कार्तिक शुक्ल षष्ठी और सप्तमी को प्रभु राम और जगत जननी मां सीता ने उपवास किया और भगवान भास्कर की आराधना की। अस्ताचल सूर्य और उदित सूर्य की आराधना के पश्चात भगवान राम और मां सीता को आशीर्वाद प्राप्त हुआ। मान्यताएं चाहे जो भी हों लेकिन यह पर्व मानवीय जीवन के पुरुषार्थ की कामना, प्रकृति पूजन एवं जल के महत्व को रेखांकित करता हैं। यह पर्व अपने स्वरुप में सिर्फ पवित्र ही नहीं वरन कृत्रिमता से दूर भी है। लोक-विश्वास से सुसज्जित ही नहीं, बल्कि आस्था से ओतप्रोत भी है। दरअसल छठ पर्व पर्यावरण संरक्षण, आरोग्य की कामना और उत्सवधर्मिता के अनुशासन का पर्व है।

मानवीय सभ्यता का विकास प्रकृति के साहचर्य में हुआ है। प्रकृति के साथ मनुष्य का आरंभ से एक रचनात्मक रिश्ता है। पर्व-त्योहार हमारी संस्कृति और प्रकृति के अनुपम सामंजस्य के श्रेष्ठ उदाहरण हैं। मुख्यतः बिहार-झारखंड के लोक आस्था का महापर्व छठ प्रकृति के नैसर्गिक अवदान के प्रति कृतज्ञता का और जीवन में हाशिए की वस्तु को विशिष्टता प्रदान करने का अलौकिक पर्व है। यह पर्व मूलतः बिहार-झारखंड और उत्तर प्रदेश के कुछ भागों में मनाया जाता है। विगत कुछ दशकों से यह पर्व देश और दुनिया के अनेक हिस्सों में उत्साहपूर्वक मनाया जाने लगा है। अगर इसे दूसरे शब्दों में कहे तो बिहार-झारखंड और उत्तर प्रदेश के लोग देश और विदेश में जिस जगह भी रहते हैं, वहां इस पर्व को मनाते हैं। यह पर्व नहीं संस्कार और संस्कृति का समुच्य है। यह संस्कृति अपनी निर्दोष मानवीय चेतना से सम्पन्न है।

छठ पर्व लोक और शास्त्र के बीच एक संतुलन का नाम है। विशुद्धता और पर्यावरण केंद्रित यह पर्व व्रती और आराध्य देव सूर्य के बीच किसी तीसरे की उपस्थिति का निषेध करता है। यह पर्व व्रती अर्थात उपासक और इष्ट के मध्य किसी लैंगिक भेदभाव को भी नकारता है। छठ के महानुष्ठान का उपासक कोई भी हो सकता है। वह स्त्री हो या पुरुष, जवान हो या वृद्ध। अतीव आस्था व विश्वास से सम्पोषित यह पर्व जीवन की सहजता और सरलता का महाआख्यान है। लोक परंपरा, प्रकृति से मानव का अटूट प्रेम, अति स्वच्छता व आस्था का अद्वितीय पर्व छठ है। अस्त और उदित सूर्य की महाउपासना के अलौकिक माहात्म्य के इस महापर्व में शुभता, सौभाग्य, समृद्धि एवं चतुर्दिक सफलता के पुण्य की मंगलकामनाओं की अंतर्ध्वनि है। यह पर्व भक्ति और समर्पण की मानवीय पराकाष्ठा का दिव्य दर्शन है।

छठ पर्व की अन्यतम विशेषता में इसके लोक गीतों का अप्रतिम योगदान है। अमेरिका की लोकप्रिय गायिका क्रिस्टीन द्वारा गाया गीत इसके गीतों की वैश्विक स्वीकृति है। छठ गीतों को एक लयात्मक और सृजनात्मक कर्णप्रियता को विस्तार देने में शारदा सिन्हा, अनुराधा पौडवाल, मनोज तिवारी, कल्पना पटवारी, ऋचा चौबे, नीलोत्पल मृणाल का भी बहुमूल्य योगदान है। ‘केलवा के पात पर ऊगो सूरज देव’, ‘पहिले पहिले हम कईनी छठी मईया’, ‘कांच ही बांस के बहंगिया लचकत जाएं’, ‘उठहु सूरज देव भइले बिहान’ आदि गीत सिर्फ गीत भर नहीं है। इन गीतों को सुनते ही एक अलग मानस में आप आ जाते हैं। आपकी धरा आपको पुकारने लगती है। घर की मोहक यादें आपको चुम्बक की तरह खींचने लगती है। तमाम जरूरतों और सुविधाओं को छोड़ आप अपने घर की तरफ मुड़ जाते हैं। यह एक दुर्निवार संस्कृति और संस्कार का आकर्षण भर नहीं, बल्कि मनुष्य के नैसर्गिक संस्कृति और संस्कार के उत्सवधर्मी प्रभाव का चरमोत्कर्ष है।

सामूहिकता में विश्वास का यह पर्व भी धीरे-धीरे व्यक्तिगत रूप में मनाया जाने लगा है। नदी की यादें भी सिर्फ इन पर्वों तक सीमित रह गई हैं। प्रकृति के साथ साहचर्य का रिश्ता भी सिकुड़ता जा रहा है। यह पर्व उन तमाम रिश्तों के बारे में पुनर्विचार करने का एक उपक्रम भी है। चांद पर अपनी पहुंच बनाते इंसान के अंदर एक धड़कता हुआ दिल है। संवेदनाओं की सुंदर आत्मा है। संस्कृति और परम्पराओं की मधुर गूंज है, जो बार-बार उसे मनुष्य बनाए रखने में सफल होती है। हम जब भी मनुष्य होते हैं तब हम साहचर्य और परस्पर सहयोग के साथ उत्सवधर्मी जीवन में विश्वास करते हैं। रागात्मकता के मानवीय स्पंदन से अपनी जड़ों की तरफ लौट आते हैं। लौटना भी कई बार अपने गंतव्य तक पहुंचना ही है। मनुष्य का गंतव्य उसकी सृजनात्मकता है। सृजन प्रकृति करती है, मां करती है। उदारता और सहनशीलता सृजन की शर्त है। प्रकृति सृजित मनुष्य उदार और सहनशील होकर ही अपने पर्व-त्योहारों द्वारा मानवता का पुण्य-पंथ आलोकित कर सकता है।

(लेखक, दौलत राम कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं।)

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