छठ पर्व के बहाने ही कम से कम हर साल करोड़ों लोग नदी, तालाब के किनारे न सिर्फ जाते हैं, बल्कि घाटों, किनारों, कछारों की सफाई करते हैं। जल प्रवाह का मार्ग सुनिश्चित करते हैं। तालाबों के तलहट को साफ करते हैं। गंदे जल प्रवाह को रोकने आदि कई कार्य करते हैं। इसे हर जाति के लोग, राजा-रंक सब एक ही घाट पर इकट्ठा होकर श्रद्धा और विश्वास के साथ करते हैं।
छठ के अवसर पर
हम ऐसे दौर में हैं, जहां पर्यावरण का संकट वैश्विक है। प्रकृति के साथ साहचर्य का भाव विलुप्त हो रहा है। विकासवादी और भौतिकवादी अर्थव्यवस्था प्रकृति का दोहन की ओर अग्रसर है। विचारों की नदी सूख रही है। संवेदना की जमीन बंजर और प्रतिक्रियावादी हिंसा की जमीन उर्वर होती जा रही है। ऐसे में आस्था, दया, करूणा, त्याग, सेवा और सद्भाव के संदेश को संप्रेषित करने वाला पर्व छठ घनघोर अंधेरे में दीप की तरह है। छठ पर्व हमें स्वच्छता, समानता, सौहार्द, सहभागिता एवं साहचर्य का महत्वपूर्ण संदेश देता है।
लोक आस्था का यह महापर्व प्रकृति का पर्व है। जलस्रोतों की स्वच्छता और घाटों की सफाई का संदेश देता है। छठ पर्व के बहाने ही कम से कम हर साल करोड़ों लोग नदी, तालाब के किनारे न सिर्फ जाते हैं, बल्कि घाटों, किनारों, कछारों की सफाई करते हैं। जल प्रवाह का मार्ग सुनिश्चित करते हैं। तालाबों के तलहट को साफ करते हैं। गंदे जल प्रवाह को रोकने आदि कई कार्य करते हैं। इसे हर जाति के लोग, राजा-रंक सब एक ही घाट पर इकट्ठा होकर श्रद्धा और विश्वास के साथ करते हैं। बिना भेदभाव के स्त्री-पुरुष सभी छठ करते हैं। और भी कई महत्वपूर्ण संदेश ये आस्था का यह अनुपम पर्व हमें देता है। यह लोक आस्था का महापर्व है।
छठ पर्व, छठ या षष्ठी पूजा कार्तिक शुक्ल पक्ष के षष्ठी को मनाया जाने वाला एक सनातन पर्व है। सूर्योपासना का यह अनुपम लोकपर्व मुख्य रूप से पूर्वी भारत के बिहार, झारखंड, पूर्वी उत्तर प्रदेश और नेपाल के तराई क्षेत्रों में पूरी श्रद्धा के साथ मनाया जाता है। लाखों-करोड़ों लोगों की आस्था का केंद्र बना छठ पूर्वांचल के लोगों के लिए एक उपहार है। बाकी लोगों के लिए अपने देश के एक पौराणिक महत्व वाले व्रत के बारे में जानकारी देने का प्रयास भी है। छठ व्रती कमर भर जल में खड़े होकर सूर्य का ध्यान करते हैं। ऐसा करना जल-चिकित्सा में ‘कटिस्नान’ के नाम से जाना जाता है। नदी-तालाब व अन्य जलाशयों के जल में देर तक खड़े रहने से शरीर के कई चर्मरोगों का निदान हो जाता है।
यह सर्वविदित तथ्य है कि इस धरा पर शाश्वत ऊर्जा का स्रोत सूर्य ही है, जिससे धरती पर वनस्पति व जीव-जंतुओं को ऊर्जा मिलती है। सूर्य की किरणें विटामिन-डी का स्रोत भी हैं। पाश्चात्य देशों में सूर्य की पर्याप्त रोशनी नहीं मिलने से वहां विटामिन-डी की कमी पाई जाती है और इसकी कमी से होने वाले रोग की संभावना बनी रहती है। वहीं भारत की भौगोलिक स्थिति कुछ ऐसी है कि यहां सालों भर सूर्य की रोशनी मिलती है। कई चिकित्सकीय शोध में ऐसा साबित हुआ है कि सूर्योदय के सूर्य को देखने से आंख की ज्योति भी ठीक रहती है। दरअसल, छठ पर्यावरण संरक्षण, रोग-निवारण व अनुशासन का पर्व है और इसका उल्लेख वैदिक ग्रथों में मिलता है।
प्रकृति पूजोपासना के पर्व छठ को पर्यावरण संरक्षण से जोड़ते हुए अगर केंद्र व राज्य सरकारों की ओर से श्रद्धालुओं की मदद से देश के विकास में इस पर्व का योगदान सुनिश्चित करना एक सकारात्मक पहल है। खासतौर से जिस देश में धर्म लोगों की जीवन-पद्धति हो, वहां धार्मिक विश्वास का विशेष महत्व होता है। मगर इस पर्व को मनाने के पीछे जो दर्शन है, वह विश्वव्यापी है। शायद यही कारण है कि प्रवासी पूर्वाचलियों के इस पर्व के प्रति लोगों में आस्था आज न सिर्फ देश के अन्य भू-भागों में, बल्कि विदेशों में भी देखी जाती है।
दीपावली पर लोग अपने घरों की सफाई करते हैं, तो छठ पर नदी-तालाब, पोखरा आदि जलाशयों की सफाई करते हैं। जलाशयों की सफाई की यह परंपरा मगध, मिथिला और उसके आसपास के क्षेत्रों में प्राचीन काल से चली आ रही है। दीपावली के अगले दिन से ही लोग इस कार्य में जुट जाते हैं, क्योंकि बरसात के बाद जलाशयों और उसके आसपास कीड़े-मकोड़े अपना डेरा जमा लेते हैं, जिसके कारण बीमारियां फैलती हैं।
पुरबिया समाज अपनी जिम्मेदारियों और जवाबदेही को लेकर अक्सर सजग रहता है। जरूरत प्राकृतिक संसाधनों का दोहन करने वालों को सीख देने की है। जब हम नदी किनारे जाएंगे तभी नदियों की वास्तविक स्थिति जान सकेंगे। देश की राजधानी दिल्ली में यमुना के रासायनिक झाग वाले पानी की चर्चा छठ के बहाने ही होती है। सरकारी स्तर पर यमुना की सफाई के तमाम दावों के बाद सरकारों की नाकामियों की तस्वीर है। बावजूद इसके छठ के उस भाव के खत्म न होने की जिम्मेदारी भी कहीं न कहीं जनता की बन ही जाती है। छठ के माध्यम से अपनी सांस्कृतिक पहचान को आधार बनाकर नदियों को साफ रखने के लिए राज्य सरकारें संदेश दे सकती हैं, पूरे देश को एक उदाहरण भी।(लेखक विश्व भोजपुरी सम्मेलन संस्था के राष्ट्रीय अध्यक्ष और मैथिली-भोजपुरी अकादमी दिल्ली के पूर्व उपाध्यक्ष व सामाजिक, सांस्कृतिक विषयों के विचारक हैं।)