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ऊधमबाज़ी से रुआंसा हुआ चंद्रयान

चंद्रयान-3 जितने हौले-से चंद्रमा की सतह पर उतरा, हमारी सत्तारूढ़-मंडली इसकीे श्रेय की कलगी ज़िल्ल-ए-सुब्हानी के साफे पर टांकने को उतने ही ज़ोर से लपकी।… दरअसल हमें हर बात पर बस ऊधम मचाना है। रीति-रिवाज़ पर, धर्म पर, भाषा पर, खानपान पर, गाय पर, चीते पर, राजचिह्न पर, सेंगोल पर, संविधान की धाराओं पर, संसद के निर्माण पर, वंदेभारत रेल पर, प्रगति मैदान की सुरंग पर, सिर्फ़ ऊधमी बिगुल बजाना है। छिप-छिपा कर और खुलेआम किए गए अपने हर करतब के बखान की घ्वनि को डेढ़ सौ डेसिबल तक पहुंचाने के लिए जी-जान एक कर देना है। … चंद्रयान-3 जितने हौले-से चंद्रमा की सतह पर उतरा, हमारी सत्तारूढ़-मंडली इसकीे श्रेय की कलगी ज़िल्ल-ए-सुब्हानी के साफे पर टांकने को उतने ही ज़ोर से लपकी।

चंद्रयान-3 चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव की सतह पर जितने हौले-से उतरा, हमारी सत्तारूढ़-मंडली इस के समूचे श्रेय की कलगी ज़िल्ल-ए-सुब्हानी के साफे पर टांकने को उतने ही ज़ोर से लपकी। ताबेदार अपने सुल्तान के मन की बात न जानें तो काहे के ताबेदार? फिर ज़िल्ल-ए-सुब्हानी स्वयं भी कौन-से संकोची हैं? एक दशक में संसार की सारी रोशनी का किरण-केंद्र उन्होंने जैसे ख़ुद पर कर रखा है, उस की चुधियाहट में कोई और किसी को दिखाई ही कहां दे रहा है? सो, छोटे परदे  और अख़बार के पन्नों के आधे से ज़्यादा हिस्से पर पर हम ने अपने प्रजापालक को पसरे देखा और चंद्रयान बेचारा चंदामामा की गोद में सिकुड़ कर छुप गया। 

ब्रिक्स की बेइंतिहा मसरूफ़ियत के बावजूद अपना अमूल्य समय निकाल कर हमारे सुल्तान ने इसरो के प्रमुख श्रीधर पणिक्कर सोमनाथ को याद दिलाया कि उन के तो नाम में ही ‘सोम’ है, सो, सोमनाथ के होते चंद्रयान भला कैसे चांद पर न उतरता? भगवान शिव के प्रति अपने प्रधानमंत्री के ऐसे भक्तिभाव ने मुझे गदगद कर दिया। विज्ञान की उपलब्धियों को अध्यात्म की छुअन दे कर सोने पर सुहागा करने की जैसी विलक्षण कला नरेंद्र भाई मोदी में है, मैं ने तो किसी और में नहीं देखी। राजा दक्ष प्रजापति के श्राप से मुक्ति पाने के लिए चंद्र देवता ने शिव को अपना स्वामी मान कर पृथ्वी पर जहां तपस्या की थी, वह जगह गुजरात के सौराष्ट्र में है। चंद्र देवता ने शिव से वहां ज्योतिर्लिंग के रूप में स्थापित होने का आग्रह किया। बारह ज्योतिर्लिंगों में से यही पहला है – सोमनाथ। 

मैं भी पूरी आस्था से यह बात मानता हूं कि विज्ञान-फिज्ञान अपनी जगह है, मगर अगर ईश्वर साथ न हो तो सफलता नहीं मिलती। इसलिए हमें अपने चंद्रयान अभियान की भावी श्रंखलाओं को भी सफल बनाने के लिए यह ध्यान रखना बेहतर होगा कि इसरो के सभी अगले प्रमुखों के नामों में रुद्र, पशुपति, महेश्वर, वामदेव, शंकर, श्रीकंठ, अंबिकानाथ, गंगाधर, जटाधर, विश्वेश्वर, मृत्युजय जैसे शब्दों का समावेश हो। ऐसा होगा तो चंद्रयानों की झड़ी लग जाएगी।

भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा ने अब हमें इतना जागरूक तो बना ही दिया है कि हम जानें भी और मानें भी कि इसरो के अब तक के 89 उपग्रह मिशनों में से 47 का लॉच नरेंद्र भाई मोदी के नौ साल में हुआ है। यानी इसरो की स्थापना के बाद 52 बरस में सिर्फ़ 42 सैटेलाइट लॉच हुए – हर सवा साल में एक; और, नरेंद्र भाई के राज में हर साल पांच से ज़्यादा। नरेंद्र भाई के पहले 13 लोग देश के प्रधानमंत्री बने, पर सब ऊंघते रहे। आप कहते रहिए कि नरेंद्र भाई के आगमन के बाद हमारे अंतरिक्ष कार्यक्रमों का बजट घटा है, लेकिन सच्चाई तो यही है कि विज्ञान की हमारी दुनिया के भाग्य तो 2014 के बाद ही खुले हैं। 

कोई समझा हो, न समझा हो, मैं तो साढ़े चार बरस पहले ही समझ गया था कि अब आकाश-जगत में भारत को विश्व-गुरु बनने से कोई नहीं रोक पाएगा। फरवरी 2019 में जिस दिन प्रधानमंत्री जी ने पाकिस्तानी सरहद में बने आतंकवादी अड्डो पर सर्जिकल स्ट्राइक की तारीख़ मौसम की खराबी की वज़ह से बदलने की इजाज़त नहीं दी और कहा कि बादल और बरसात हैं तो और भी अच्छा है, क्योंकि पाकिस्तान के राडार हमारे विमानों को पकड़ नहीं पाएंगे; मैं तो उसी दिन से लंबी चादर तान कर निश्चिंत सो रहा हूं। काहे का इसरो? काहे के वैज्ञानिक? चंद्रयान का चांद पर अवतरण हमारे मौजूदा राजनीतिक नेतृत्व की प्रज्ञा और कौशल की उपलब्धि है। पहले के प्रधानमंत्रियों की तरह अगर नरेंद्र भाई भी तंद्राभिभूत होते तो क्या हम चांद पर उतरने वाला चौथा और उस के दक्षिणी ध्रुव पर पहुंचने वाला पहला देश बनते? 

आज़ादी के बाद 1948-49 में भारत सरकार का बजट 197 करोड़ रुपए का था। पंडित जवाहरलाल नेहरू तब कसामुसी के चलते विज्ञान परियोजनाओं के लिए सिर्फ़ एक करोड़ 10 लाख रुपए आवंटित कर पाए थे। यानी बजट का तक़रीबन आधा प्रतिशत। मगर जब नेहरू के कार्यकाल के आख़ीर में देश का बजट 1700 करोड़ रुपए हो गया तो विज्ञान परियोजनाओं के लिए उन्होंने 85 करोड़ रुपए रखे। यानी पांच प्रतिशत। एक करोड़ से 85 करोड़ रुपए तक का इज़ाफ़ा। यह 15 साल में 85 गुना बढ़ोतरी ही हुई न? और, अब हाल क्या है? आज जब देश का बजट क़रीब साढ़े 39 लाख करोड़ रुपए का है, विज्ञान परियोजनाओं के लिए नरेंद्र भाई ने 14217 करोड़ रुपए दिए हैं। यानी आधा प्रतिशत से भी कम। मगर फिर भी नेहरू विज्ञान को ले कर आलसी थे और नरेंद्र भाई ने विज्ञान परियोजनाओं को ऐसी रफ़्तार दे दी है कि भूतो न भविष्यति। यही बात मैं ने चंद्रयान पर हुई टेलीविजन बहसों में कह दी तो नरेंद्रोन्मुख बहसबाज़ तो बहसबाज़, गिलगिल करने वाले टीवी-सूत्रधार भी शाब्दिक ताडव करने लगे। 

चंद्रशेखर वेंकट रामन, होमी जहांगीर भाभा, विक्रम साराभाई, हरगाविंद खुराना, सतीश धवन, शांतिस्वरूप भटनागर, एपीजे अब्दुल कलाम, वग़ैरह आज होते तो विज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों में हासिल हो रही उपलब्धियों के नाम पर पिछले कुछ वक़्त से हो रही सियासत को देख कर अपना सिर पीट रहे होते। ठीक है कि राजनीतिक इच्छाशक्ति विकास परियोजनाओं को गति देने का प्रमुख घटक है। लेकिन प्रतिकूल परिस्थितियों में भी अपने लक्ष्य हासिल करने के अदम्य हौसले के लिए अपने वैज्ञानिकों, अपने सैन्यबलों, अपने श्रमिकों, अपने कृषकों, अपने शिक्षाविदों और समाज के समूचे क्षितिज को संभाले बैठे नायक-नायिकाओं के अनुगमन की भावना के बजाय उन के श्रेय में सेंधमारी की नीयत रखना, आप ही बताइए, अक्षम्य है या नहीं? उन के स्वेद-बिंदुओं से स्वयं की सूरत संवारने का सिलसिला समाप्त होना चाहिए या नहीं? 

पिछले एक दशक में ऊधमबाज़ी की बढ़ती प्रवृत्ति ने हमारे सकारात्मक प्रतिफलों के उत्सवों को भी हो-हल्ले में तब्दील कर दिया है। अब हम अपने अर्जन-सृजन के संगीत का आनंद लेने को नहीं थिरकते हैं, लाल रोशनी और नीले धुएं का अंबार लगा कर चिल्लपों में डूबते-उतरते हैं। हमें हर बात पर बस ऊधम मचाना है। रीति-रिवाज़ पर, धर्म पर, भाषा पर, खानपान पर, गाय पर, चीते पर, राजचिह्न पर, सेंगोल पर, संविधान की धाराओं पर, संसद के निर्माण पर, वंदेभारत रेल पर, प्रगति मैदान की सुरंग पर, सिर्फ़ ऊधमी बिगुल बजाना है। छिप-छिपा कर और खुलेआम किए गए अपने हर करतब के बखान की घ्वनि को डेढ़ सौ डेसिबल तक पहुंचाने के लिए जी-जान एक कर देना है। 

सो, थोड़े दिनों के लिए चंद्रयान का बहाना भी मिल गया। साप्ताहिक आयोजनों के ज़रिए अपनी प्रजा का दिल बहलाए रखने वाले ज़िल्ल-ए-सुब्हानी के झोले में काले जादू की पुड़ियाओं का ढेर है। उन के झोले से निकलने वाली अगली पुड़िया का इंतज़ार कीजिए। ये किसी नीम-हकीम की नहीं, एक खांटी-हाकिम की पुड़ियाएं हैं। इन पुड़ियाओं ने आप का आधे से अधिक विचार-कल्प कर दिया है। आप मदहोशी में अगर ऐसे ही तंद्राग्रस्त बने रहेंगे तो आप का बचा-खुचा चिंतन-कल्प भी आने वाले वक़्त में हो जाएगा। लेकिन मैं करवट लेते समय की आहट सुन रहा हूं। आप भी ज़रा ध्यान से कान लगाइए। शायद आप को भी यह आहट सुनाई दे।

By पंकज शर्मा

स्वतंत्र पत्रकार। नया इंडिया में नियमित कन्ट्रिब्यटर। नवभारत टाइम्स में संवाददाता, विशेष संवाददाता का सन् 1980 से 2006 का लंबा अनुभव। पांच वर्ष सीबीएफसी-सदस्य। प्रिंट और ब्रॉडकास्ट में विविध अनुभव और फिलहाल संपादक, न्यूज व्यूज इंडिया और स्वतंत्र पत्रकारिता। नया इंडिया के नियमित लेखक।

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