श्रीकृष्ण सुदर्शन चक्र धारी थे। और अपने सीधे हाथ की छोटी ऊँगली पर एक घूमता हुआ पहिया के समान सुदर्शन चक्र धारण किया करते थे। सुदर्शन चक्र अर्थात सम्यक् दर्शन अर्थात आत्म साक्षात्कार। दर्शन अर्थात दृष्टि, और सुदर्शन अर्थात सही दृष्टि। अर्थात मैं शुद्धात्मा हूँ, का दर्शनभाव। मैं शरीर नहीं बल्कि आत्मा हूँ- यह सही दृष्टि है। अज्ञानता के कारण ही लोग नाम से पहचाने जाने वाले इस शरीर व नाम के साथ इस संसार में भ्रांत और गलत दृष्टि से अपना जीवन व्यतीत कर रहे हैं कि मैं शरीर हूँ, अथवा मैं नामधारी हूँ। लेकिन जब आत्म साक्षात्कार होता है, तब सुदर्शन, अज्ञानता का नाश करके सही दृष्टि स्थापित होती है।
वैष्णव परंपरा में श्रीकृष्ण भक्ति का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। द्वापर युग के अंत काल में जन्म और मृत्यु को प्राप्त श्रीकृष्ण आज भी पूज्य हैं। लोग आज भी भक्ति व समर्पण भाव से इनकी पूजा करते हैं। वसुदेव- देवकी से उत्पन्न अर्थात इस संसार में जन्म को प्राप्त होने के बाद भी ये भगवान तुल्य माने जाते हैं। उन्हें विष्णु का अष्टम अवतार माना जाता है। महाभारत में अंकित विवरणियों में इन्हें निष्काम कर्मयोगी, आदर्श दार्शनिक, स्थितप्रज्ञ, एक पत्नीव्रता, सर्वगुणसम्पन्न, सर्व पापसंस्पर्शशून्य, देवतुल्य एवं दैवी संपदाओं से सुसज्जित महान महात्मा आदि विभूषणों से विभूषित करते हुए उन्हें शुद्ध, उत्तम चरित्रवान षोडश कलायुक्त योगीश्वर श्रीकृष्ण कहा गया है, लेकिन पौराणिक ग्रंथों में उन्हें सोलह हजार रानियों के साथ राजसी और ऐश्वर्यशाली जीवन व्यतीत करने वाला बताया गया है, फिर भी वे आज भी भगवान की भांति पूज्य हैं।
महाभारत व पौराणिक ग्रंथों में अंकित वर्णनों के अनुसार श्रीकृष्ण विलासी हैं, तो महान त्यागी भी हैं। श्रीकृष्ण शांति प्रिय हैं, तो क्रांति प्रिय भी हैं। श्रीकृष्ण मृदु हैं, तो वही कठोर भी हैं। श्रीकृष्ण मौन प्रिय हैं, तो अत्यंत वाचाल भी हैं। श्रीकृष्ण रमण विहारी हैं, तो अनासक्त योग के उपासक भी हैं। श्रीकृष्ण में सब कुछ है, और सम्पूर्ण रूप में है। सम्पूर्ण त्याग- सम्पूर्ण विलास। सम्पूर्ण ऐश्वर्य- सम्पूर्ण लौकिकता। सम्पूर्ण मैत्री – सम्पूर्ण शत्रुता अर्थात बैर। सम्पूर्ण आत्मीयता -सम्पूर्ण अनासक्ति। महाभारत में अंकित वर्णनों में षोडश कलायुक्त श्रीकृष्ण सत्य में पूजा के योग्य हैं, इसलिए वे उस समय भी आदरणीय व पूज्य माने गए थे। किसी को इज्जत, सम्मान, आदर तभी प्राप्त होता है, जब वह पूज्य हो। श्रीकृष्ण को भी यह इज्जत, सम्मान, आदर का अधिकार उनकी सत्य ज्ञान, सच्ची समझ, और व्यवसायात्मिक बुद्धि के कारण मिली सफलता के परिणामस्वरूप प्राप्त हुई थी, और तब वे पूजा के योग्य माने गए थे। और सबके आदरणीय बन गए थे। आज भी वे पूज्य हैं, आदरणीय हैं, और सम्पूर्ण विश्व के लोग उन्हें भक्ति व समर्पण भाव से पूजा करते हैं। इसे धर्मोन्नति समझ सदा -सर्वदा कृष्णाराधना, कृष्णनाम, कृष्णकथा, कृष्णभक्ति में लीन रह श्रीकृष्ण नाम- जप- स्मरण करते हैं।
पौराणिक ग्रंथों में अंकित वर्णन के अनुसार वे संसार का आनंद लेने वाले थे, लेकिन मोक्ष के भी अधिकारी थे। इसीलिए वे वासुदेव थे। वासुदेव का अर्थ है- वे संसार की सभी वस्तुओं का आनंद लेते हैं, फिर भी वे मोक्ष के अधिकारी हैं। वसुदेव पुत्र वासुदेव असाधारण महामानवीय शक्तियों और उपलब्धियों के स्वामी थे। वासुदेव इतने शक्तिशाली थे कि सहस्त्रों लोग उनकी एक दृष्टि से ही डर जाया करते थे। सोलह हजार रानियाँ होने के बाद भी वे नैष्ठिक ब्रह्मचारी थे। अर्थात उनका हर क्षण- प्रतिक्षण भाव और समर्पण ब्रह्मचर्य के लिए ही था। उनके प्रारब्ध कर्म अब्रह्मचर्य के दिखाई देते थे, लेकिन उनके अंदर के भाव शुद्ध और सदैव ब्रह्मचर्य के समर्थक थे। जैसे कोई चौर्य कर्म करता है, लेकिन उसके भीतर के भाव अचौर्य अर्थात चोरी नहीं करने वाले हों। ऐसे ही भाव नैष्ठिक होते हैं। अंतर्मन से ही आने वाले भाव से ही आगामी जीवन के नए कर्म बंधते हैं। बाहर के कर्मों के साथ ही अंदर के भाव होते रहते हैं।
सभी वस्तुओं को पाँच इंद्रियों से ही देखा अथवा अनुभव किया जाता है कि उनका आगामी जीवन के कर्म के खाते के लिए कोई महत्व है अथवा नहीं है। ऐसे ही नैष्ठिक भाव से सम्पन्न भगवान श्रीकृष्ण की आत्मा जागृत हो गई थी। इसीलिए वे नर से नारायण बन गए। यह नैष्ठिक भाव श्रीकृष्ण को सम्यक दर्शन से प्राप्त था। श्रीकृष्ण सुदर्शन चक्र धारी थे। और अपने सीधे हाथ की छोटी ऊँगली पर एक घूमता हुआ पहिया के समान सुदर्शन चक्र धारण किया करते थे। सुदर्शन चक्र अर्थात सम्यक् दर्शन अर्थात आत्म साक्षात्कार। दर्शन अर्थात दृष्टि, और सुदर्शन अर्थात सही दृष्टि। अर्थात मैं शुद्धात्मा हूँ, का दर्शनभाव। मैं शरीर नहीं बल्कि आत्मा हूँ- यह सही दृष्टि है। अज्ञानता के कारण ही लोग नाम से पहचाने जाने वाले इस शरीर व नाम के साथ इस संसार में भ्रांत और गलत दृष्टि से अपना जीवन व्यतीत कर रहे हैं कि मैं शरीर हूँ, अथवा मैं नामधारी हूँ। लेकिन जब आत्म साक्षात्कार होता है, तब सुदर्शन, अज्ञानता का नाश करके सही दृष्टि स्थापित होती है।
श्रीकृष्ण की सोलह हजार रानियाँ थीं, और उनका जीवन भी वैभवशाली था, फिर भी उनकी सम्यक दृष्टि के कारण वे इन सभी सांसारिक वैभव से हमेशा अलिप्त रहे। बाहर से संसारिक कार्यों में लिप्त होते हुए भी, अंदर से वे हमेशा जागृतावस्था में रहते थे कि शरीर पृथक है, और मैं शुद्धात्मा हूँ। मैं किसी भी क्रिया का कर्ता नहीं हूँ। उनका भौतिक शरीर कर्मों के नियम से अलिप्त नहीं था। इसीलिए वे कर्मों के प्रभाव से अलिप्त नहीं थे, लेकिन जब उनके प्रारब्ध से वैभवशाली जीवन और अनेकों पत्नियाँ आईं, तब भी वे हमेशा इसी जागृति में रहते थे कि मैं शुद्धात्मा हूँ। जैनी मान्यता है कि यह सम्यक् दर्शन अर्थात आत्म साक्षात्कार उन्हें भगवान नेमिनाथ से प्राप्त हुआ था। मान्यता है कि योगेश्वर कृष्ण अपने अगले जन्म में तीर्थंकर बनकर वापस आएँगे और करोड़ों लोगों को सही दृष्टि देक़र मोक्ष की ओर ले जाएँगे।
कन्हैया, श्याम, गोपाल, केशव, द्वारकेश या द्वारकाधीश, वासुदेव आदि नामों से संज्ञायित श्रीकृष्ण सोलह कलाओं- श्री धन संपदा, भू संपत्ति, कीर्ति संपदा, वाणी की सम्मोहकता, लीला की कला, कान्ति, विद्या, विमला, उत्कर्षिणि शक्ति, नीर-क्षीर विवेक, क्रिया कर्मण्यता,, योगशक्ति, विनय, सत्य धारणा, आधिपत्य, अनुग्रह क्षमता- कलाओं के ज्ञाता थे, वे इन कला गुणों से सम्पन्न थे। कला अर्थात विशेष प्रकार का गुण। भारतीय परंपरा में कलाएं सोलह प्रकार की मानी गई हैं। इन कलाओं के बल पर मनुष्य समाज में अपना एक अलग पहचान बनाने में समर्थ होता है। साधारण मनुष्य में अधिकत्तम पाँच कलाएं होती हैं। श्रेष्ठ मनुष्य में अधिकतम आठ कलाएं होती हैं। लेकिन प्रजा को कंस के अत्याचारों से मुक्ति दिलाने के लिए माता देवकी के गर्भ से जन्म लेने वाले श्रीकृष्ण में सोलह कलाएं पाई जाती हैं। इसलिए वह सर्वज्ञानी और ब्रह्माण्ड के ज्ञानी कहलाते हैं। उन्हें षोडश कलायुक्त कहा गया है, जबकि विष्णु के अवतार भगवान श्रीराम बारह कलाओं का ही ज्ञान रखते थे।
श्रीकृष्ण संबंधी महाभारत व पौराणिक ग्रंथों में अंकित वर्णनों के समीचीन अध्ययन से स्पष्ट होता है कि श्रीकृष्ण मन, वचन और कर्म से भी धनी थे। उनके घर से कोई भी खाली हाथ वापस नहीं जाता था। उन्होंने अपने परम मित्र सुदामा को धन-धान्य से सम्पन्न कर दिया था। भगवान श्रीकृष्ण ने भू संपदा कला से पूर्ण होने के कारण ही द्वारका में विभिन्न झंझावातों के बाद भी वहाँ का राज-पाठ सुचारुपूर्वक संभाला था। जन कल्याण कार्यों में हमेशा आगे रहने के कारण ही श्रीकृष्ण लोकप्रियता व विश्वसनीयता को प्राप्त कर लोक में ख्याति, संसार में प्रसिद्धि प्राप्त कर कीर्ति संपदा सम्पन्न माने जाते हैं। वाणी की सम्मोहकता के गुण से परिपूर्ण श्रीकृष्ण अपनी वाणी सम्मोहन कला से सबका मन मोह लेते हैं। इसलिए उन्हें मोहन भी कहा जाता है। अपने जीवन में श्रीकृष्ण के द्वारा की गई लीलाओं की कलाओं के दर्शन मात्र से ही आनंद की प्राप्ति होती है।
श्रीकृष्ण के मुखमंडल अर्थात चेहरे पर अवस्थित कांति से नजरें हटाने का मन नहीं करता। दर्शन मात्र से दर्शक सुध-बुध खोकर उनके हो जाते हैं। उनके रूप सौंदर्य से प्रभावित हो जाते हैं। वे सभी प्रकार की विद्याओं में निपुण, वेद-वेदांग, युद्ध और संगीत कला इत्यादि में पारंगत थे। वे मन में कोई छल- कपट नहीं रखने वाले सभी के लिए निष्पक्ष भाव रखने वाले विमला कला से युक्त थे। उनमें उत्कर्षिणि शक्ति अर्थात लोगों को उत्प्रेरित करने, लक्ष्य पाने के लिए प्रोत्साहित करने की अद्भुत क्षमता थी। अपनी उत्कर्षिणि शक्ति के बल पर ही उन्होंने महाभारत की युद्धभूमि में तीर- धनुष रख चुके अर्जुन को युद्ध के लिए प्रेरित किया था। श्रीकृष्ण ने अपने नीर-क्षीर विवेक कला के ज्ञान से न्यायोचित फैसले लेकर धर्मच्युत हो रहे लोगों को सनातन वैदिक धर्म पर आरूढ़ कराने में सफलता पाई थी। अपने विवेक से लोगों को सही मार्ग सुझाने में सक्षमता प्रदर्शित कर उन्होंने विवेकशील होने का कई बार प्रदर्शन किया था।
वे सिर्फ उपदेश देने में ही नहीं बल्कि स्वयं भी कर्मठता प्रदर्शित करने अर्थात क्रिया कर्मण्यता में विश्वास रखते थे। अपनी योगशक्ति से वे आत्मा को परमात्मा से जोड़ने की कला में भी निपुण थे। वे सर्वज्ञानी, सर्वशक्तिमान होकर भी अहंकार भाव से नितांत दूर विनयशीलता की प्रतिमूर्ति थे। कठिन से कठिन परिस्थियों में भी सत्य का साथ नहीं छोड़ने वाले सत्य धारणा के ज्ञान से परिपूर्ण श्रीकृष्ण सत्यवादी थे। कटु सत्य बोलने से भी गुरेज नहीं था। श्रीकृष्ण जोर-जबरदस्ती से किसी पर अपना आधिपत्य जमाने की प्रवृति के विरोधी थे। लोगों को जिनके आधिपत्य में सुरक्षा और संरक्षण मिलने की उम्मीद हो, उसे स्वयं अपना स्वामी मान लेने के लिए वे कहते थे। दूसरों के कल्याण में हमेशा लगे रहने की अनुग्रह क्षमता के कारण ही वे सदा परोपकार के कार्यों में ही संलग्न रहते थे। सहायता के लिए उनके पास पहुँचने वाला व्यक्ति की वे अपने सामर्थ्यानुसार सहायता करते थे। उनके इन्हीं गुणों के कारण आज भी लोग श्रीकृष्ण का नाम, जप, स्मरण नित्यप्रति किया करते हैं। भाद्रपद कृष्ण अष्टमी को श्रीकृष्ण जन्मोत्सव हर्षोल्लास पूर्वक भक्ति व समर्पण भाव मनाते हैं। दंडवत प्रणाम कर उनकी पूजा -अर्चना करते हैं, और मनोवांछित कामना की पूर्ति हेतु प्रार्थना करते हैं।