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ब्रिक्स में भारत की भूमिका बदली दिखी

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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की कजान यात्रा के दौरान भारत में मीडिया और विश्लेषकों का ज्यादा ध्यान चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के साथ उनकी मुलाकात पर टिका रहा। मोदी ब्रिक्स प्लस शिखर सम्मेलन में भाग लेने रूस के इस शहर गए, तो लाजिमी है कि उन्होंने शिखर बैठक को भी संबोधित किया। उनके उस वक्तव्य को अपेक्षाकृत कम, फिर भी भारतीय मीडिया में जगह मिली है। लेकिन शिखर सम्मेलन में क्या हुआ और उसमें भारत ने क्या भूमिका निभाई, ये बिंदु पृष्ठभूमि चले गए हैं।

जबकि कई वर्षों के बाद भारत इस बार ब्रिक्स शिखर सम्मेलन में भारत पूरे मनोयोग से भागीदारी करता नजर आया। 2020 में, जब चीन से सीमा विवाद भड़का था, भारत की उपस्थिति बाकी सदस्य देशों में आशंका पैदा करती थी- इस सवाल को लेकर क्या भारत ब्रिक्स के बुनियादी एजेंडे में रुकावट बनेगा? इसी क्रम में भारत ने इस मंच में अपनी नेतृत्वकारी भूमिका भी गंवा दी। आज यह एक हकीकत है कि इस समूह का एजेंडा रूस और चीन तय कर रहे हैं। इसके बावजूद इस बार नरेंद्र मोदी पर फोकस बना रहा, तो उसकी कई वजहें हैं।

वैसे इस बार यह संकेत जरूर मिला कि भारत ने ब्रिक्स में अपनी भूमिका पर पुनर्विचार किया है। गुजरे वर्षों में भारतीय विदेश नीति में अमेरिकी नेतृत्व वाली धुरी से जुड़ना प्राथमिकता बनी रही। जिस समय दुनिया दो खेमों में बंट रही है और ब्रिक्स पश्चिमी वर्चस्व को चुनौती देने वाले उभर रहे मंचों में प्रमुख बन गया है, भारत की भूमिका चर्चा के केंद्र में रही है। ब्रिक्स दरअसल, शंघाई सहयोग संगठन और यूरेशियन इकॉनमिक यूनियन जैसे मंचों के उभर रहे व्यापक ढांचे का अघोषित हिस्सा है। धीरे-धीरे इन सभी मंचों का घोषित या अघोषित उद्देश्य पश्चिम संचालित आर्थिक एवं रणनीतिक व्यवस्थाओं का विकल्प तैयार करना बन गया है।

जबकि भारत ऐसे किसी प्रयास में खुद शामिल नहीं दिखना चाहता था। कजान शिखर सम्मेलन के पहले भी भारत की तरफ से यह बयान दिया गया कि ब्रिक्स एक गैर-पश्चिमी मंच है, लेकिन यह पश्चिम विरोधी नहीं है।  इन सावधानियों के बावजूद इस बार भारत की भूमिका में बारीक बदलाव नजर आया है। यह बात कजान घोषणापत्र (शिखर सम्मेलन के दौरान जारी साझा बयान) से भी जाहिर होती है, जिसमें भारत कई ऐसे बिंदुओं पर सहमत हुआ, जिस पर अब तक उसे एतराज होता था। यह सवाल दीगर है कि उन मुद्दों पर भारत के रुख में स्थायी बदलाव आ गया है, या जो कजान में दिखा वह क्षणिक है?

कजान में भारत की भूमिका की पृष्ठभूमि चीन के साथ सीमा विवाद को संभालने के लिए हुए करार से बनी। भारत ने इस करार का एलान प्रधानमंत्री के कजान रवाना होने से ठीक एक दिन पहले किया। भारत में सरकार समर्थक मीडिया ने इस समझौते को मोदी के प्रभाव एवं उनकी कूटनीति की जीत के रूप में पेश किया है। इन सबके जरिए कजान में शी जिनपिंग के साथ मोदी की औपचारिक द्विपक्षीय वार्ता की जमीन तैयार की गई। हालांकि द्विपक्षीय वार्ता में कुछ ठोस हासिल हुआ, ऐसा नहीं कहा जा सकता। फिर भी यह महत्त्वपूर्ण है कि दोनों नेता मिले और आमने-सामने बात की।

–              मोदी-शी वार्ता का एकमात्र ठोस परिणाम यह एलान रहा कि सीमा विवाद हल करने के व्यापक प्रश्न को आगे बढ़ाने के लिए भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोवल और चीन के विदेश मंत्री वांग यी जल्दी ही मिलेंगे।

–              मुलाकात के दौरान मोदी और शी ने सीमा पर पेट्रोलिंग के लिए घोषित हुए करार की पुष्टि की।

–              लेकिन इस दौरान यह भी जाहिर यह हुआ कि दोनों देशों में अभी भी अविश्वास की चौड़ी खाई है। मसलन, मोदी ने शी से कहा “सीमा पर शांति और स्थिरता बनाए रखना हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए। पारस्परिक विश्वास, पारस्परिक सम्मान और पारस्परिक संवेदनशीलता हमारे संबंधों का आधार बने रहना चाहिए।”

–              उधर शी ने भी सरहद पर शांति एवं स्थिरता बनाए रखने पर जोर दिया।

यह निर्विवाद है कि उपरोक्त समझौता इसलिए हो सका, क्योंकि चीन ने अपना रुख कुछ नरम किया और भारत को कम-से-कम दो बड़ी रियायतें दीं। एक तो वह भारत की मांग के मुताबिक लद्दाख और अरुणाचल की सीमाओं से जुड़े विवादों के हल की प्रक्रियाओं अलग-अलग रखने पर सहमत हो गया, और फिर भारत को देपसांग और देमचोक में उन बिंदुओं तक पेट्रोलिंग का अधिकार देने में सशर्त राजी हुआ, जिस पर वह पहले सहमत नहीं हो रहा था।

कूटनीतिक हलकों में यह बहुचर्चित है कि 2020 में गलवान घाटी की वारदात के समय से रूस परोक्ष मध्यस्थ की भूमिका में रहा है। भारत और चीन खुलकर एक दूसरे के खिलाफ खड़े ना हो जाएं, इसके लिए राष्ट्रपति व्लादीमीर पुतिन और विदेश मंत्री सर्गेई लावरोव सक्रिय रहे हैं। विशेषज्ञों के मुताबिक चीन और रूस चाहते हैं कि भारत ब्रिक्स प्रक्रिया को मजबूत करने में सहायक बने। उनकी राय में पश्चिमी विश्व व्यवस्था से अलग एक बिल्कुल नई विश्व व्यवस्था बनाने का जो अवसर अभी सामने आया है, वैसा कई सदियों के बाद संभव हो सका है। उन दोनों देशों की राय में भारत अगर ग्लोबल साउथ के देश के रूप में पूरे मनोयोग से ब्रिक्स प्रक्रिया में अपनी भूमिका निभाए, तो नई विश्व व्यवस्था पर अमल का मार्ग सुगम हो जाएगा। (Why Mutual Trust Will Elude India, China Despite Patrolling ‘Deal’, Modi-Xi Meeting – The Wire)

कहा जा सकता है कि ये दांव एक हद तक कामयाब रहा है। कजान घोषणापत्र के साथ भारत की पूरी सहमति इसी बात का संकेत देती है। घोषणापत्र (Kazan Declaration : ”Strengthening Multilateralism For Just Global Development And Security”) में शामिल कुछ बिंदुओं पर गौर कीजिएः

             ब्रिक्स प्लस ने “कब्जे वाले फिलस्तीनी इलाकों- खासकर गजा पट्टी और वेस्ट बैंक में इजराइली हमलों के कारण बिगड़ती स्थिति एवं वहां पैदा हुए मानवीय संकट पर गहरी चिंता जताई।”

             ब्रिक्स प्लस ने गजा में तुरंत व्यापक एवं स्थायी युद्धविराम लागू करने की मांग की। उसने दोनों तरफ के बंधकों की तुरंत एवं बिना शर्त रिहाई, गजा में बड़े पैमाने पर मानवीय सहायता पहुंचाने और सभी प्रकार की आक्रामक कार्रवाइयों पर रोक की मांग की।

             घोषणापत्र में कहा गया- “हम मानवीय सहायता कार्यों, सुविधाओं, कर्मियों और वितरण स्थलों पर इजराइली हमलों की निंदा करते हैं।”

             दक्षिणी लेबनान में इजराइली हमलों से नागरिकों की हुई मौत और नागरिक इन्फ्रास्ट्रक्चर को पहुंची क्षति की ब्रिक्स प्लस ने “निंदा” की है।

             ब्रिक्स प्लस ने सीरिया की संप्रभुता और प्रादेशिक अखंडता की रक्षा के प्रति अपना समर्थन जताया है।

             घोषणापत्र में कहा गया- “सीरिया की राजधानी दमिश्क में ईरान के कूटनीतिक परिसरों पर इजराइल के एक अप्रैल 2024 की हम निंदा करते हैं।”

             इसके अलावा लेबनान में संयुक्त राष्ट्र शांति सेना के ठिकानों पर इजराइली हमलों की भी विकासशील देशों के इस समूह ने निंदा की है।

पिछले साल सात अक्टूबर से गजा में युद्ध शुरू होने के बाद से कभी भारत इजराइल की इतनी कड़ी भाषा में निंदा करने के किसी प्रस्ताव पर सहमत नहीं हुआ था। इसीलिए कजान में भारत की जो भूमिका रही, उस पर सबका ध्यान गया है।

इसके अलावा 134 पैराग्राफ के इस साझा बयान में कई ऐसे बिंदु हैं, जो सीधे पश्चिमी मौद्रिक एवं रणनीतिक व्यवस्थाओं के समानांतर नई विश्व व्यवस्था तैयार करने के इरादे एवं उसके लिए हो रही तैयारियों से संबंधित हैं। शिखर सम्मेलन से पहले जिस मुद्दे की सबसे ज्यादा चर्चा हुई थी, वह अंतरराष्ट्रीय भुगतान की नई व्यवस्था तैयार करने से संबंधित है। इस दिशा में कजान में महत्त्वपूर्ण प्रगति हुई। भारत इस प्रगति का हमकदम बना।

  • ब्रिक्स प्लस के सदस्य अपने वित्तीय बाजार ढांचों को एक दूसरे से जोड़ने की संभावना का पता लगाने पर राजी हुए, ताकि सीमापार भुगतान और डिपॉजिट का एक स्वतंत्र ढांचा अस्तित्व में आ सके। इस ढांचे का नाम ब्रिक्स क्लीयर रखने पर सहमति बनी है।
  • सदस्य देश एक ब्रिक्स री-इनश्योरेंस कंपनी बनाने पर सहमत हुए हैं, जिसमें भागीदारी स्वैच्छिक आधार पर होगी।
  • सदस्य देशों के नेताओं ने कहा- ‘हमने अपने वित्त मंत्रियों और सेंट्रल बैंक गवर्नरों को यह जिम्मा सौंपा है कि वे स्थानीय मुद्राओं में भुगतान, भुगतान के ढांचे एवं प्लैटफॉर्म तैयार करने के मुद्दे पर विचार-विमर्श जारी रखें और ब्रिक्स के अगले शिखर सम्मेलन तक अपनी रिपोर्ट दें।’
  • ब्रिक्स प्लस ने कहा- भुगतान संतुलन से जुड़ी अल्पकालिक समस्याओं को रोकने और वित्तीय स्थिरता के लिए ब्रिक्स कंटिजेंट रिजर्व अरेंजमेंट (सीआरए) के महत्त्व को हम स्वीकार करते हैँ।
  • इन देशों ने वैकल्पिक सीआरए ढांचा तैयार करने के प्रति अपने समर्थन का इजहार किया है।

साफ है, इन सारी तैयारियों का मकसद आईएमएफ-वर्ल्ड बैंक संचालित विश्व वित्तीय व्यवस्था का विकल्प तैयार करना है। इस रूप में ब्रिक्स अमेरिकी धुरी वाली व्यवस्था के एक चुनौती बन कर उभरा है।

शिखर सम्मेलन के सामने एक और महत्त्वपूर्ण काम ब्रिक्स की सदस्यता के लिए आए विभिन्न देशों के आवेदन पर विचार करना था। 2023 में हुए जोहानेसबर्ग शिखर सम्मेलन के खराब अनुभव से सबक सीखते हुए इस बार ब्रिक्स नेताओं ने किसी नए देश को पूर्ण सदस्यता नहीं दी। लेकिन उसने 13 देशों को पार्टनर देश के रूप में स्वीकार किया। इन देशों की सूची पर नजर डाली जाए, तो उनमें कई ऐसे हैं, जिनका अमेरिका और अन्य पश्चिमी देशों से टकराव जग-जाहिर है। इनमें बेलारुस, बोलिविया, क्यूबा, और अल्जीरिया प्रमुख हैं।

उनके अलावा इंडोनेशिया, कजाखस्तान, मलेशिया, नाईजीरिया, थाईलैंड, तुर्किये, उगांडा, उज्बेकिस्तान और वियतनाम को भी पार्टनर बनाया गया है। इनमें तुर्किये खास ध्यान खींचता है, जो अभी भी उत्तर अटलांटिक संधि संगठन (नाटो) का सदस्य है। उसके ब्रिक्स की सदस्यता के लिए आवेदन को दुनिया में बदलती हवा का संकेत समझा गया है।

उपरोक्त सभी देशों के नाम पर भारत सहमत हुआ, यह महत्त्वपूर्ण है। चर्चा है कि भारत ने सिर्फ एक नाम पर आपत्ति जताई और वह पाकिस्तान है। उधर ब्राजील ने हाल में वेनेजुएला और निकरागुआ से उभरे अपने मतभेदों के कारण उनकी अर्जी पर आपत्ति की। उन दोनों देशों की अर्जी पर भी फैसला टल गया है, जबकि वेनेजुएला के राष्ट्रपति निकलस मदुरो व्यक्तिगत रूप से कजान में मौजूद रहे। रूस ने वेनेजुएला की सदस्यता अर्जी का सार्वजनिक रूप से समर्थन किया था।

वैसे इस शिखर सम्मेलन से रूस ने अपना एक बड़ा मकसद हासिल किया। रूस के राष्ट्रपति व्लादीमीर पुतिन पश्चिमी दुनिया को यह दिखाने में सफल रहे कि पश्चिम के तमाम प्रतिबंधों और उन्हें दुनिया में अलग-थलग कर देने के वहां के नेताओं के एलान के बावजूद दुनिया का बड़ा हिस्सा उनके साथ है। इस लिहाज से नरेंद्र मोदी की उपस्थिति का खास महत्त्व था। पुतिन समर्थकों की तरफ से सोशल मीडिया पर उस फोटो को व्यापक रूप से साझा किया गया, जिसमें वे एक हाथ से मोदी और दूसरे से शी जिनपिंग का हाथ पकड़े हुए हैं। ब्रिक्स शिखर सम्मेलन के मुख्य आयोजन में पुतिन मोदी और शी के साथ आए। उस वीडियो को भी बड़े पैमाने पर शेयर किया गया, जिसमें तीनों नेता पैदल आयोजन स्थल की तरफ जाते दिखे, जिनमें बीच में पुतिन थे।

इन फोटो-ऑप्स में छिपे संकेत, संदेश, और प्रतीकात्मक महत्व की खूब चर्चा रही है। सोशल मीडिया पर कुछ लोगों ने यह भी कहा कि ये तस्वीरें वॉशिंगटन की नींद उड़ाने वाली हैं। मोदी इन प्रतीक का हिस्सा क्यों बने, इस पर फिलहाल अटकलें ही लगाई जा सकती हैं। उनमें एक प्रमुख कयास यह है कि अमेरिका और उसके साथी देशों का जो व्यवहार सामने आया है, वह मोदी की अपेक्षा के अनुरूप नहीं है। मुमकिन है कि इसी विपरीत व्यवहार ने मोदी को वैकल्पिक मंच पर अधिक सक्रिय होने के लिए प्रेरित किया। खासकर पन्नू-निज्जर मामले में उन देशों का सामने आया जो रुख सामने आया है, उसकी इस बदलाव में प्रमुख भूमिका देखी जा रही है।

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By सत्येन्द्र रंजन

वरिष्ठ पत्रकार। जनसत्ता में संपादकीय जिम्मेवारी सहित टीवी चैनल आदि का कोई साढ़े तीन दशक का अनुभव। विभिन्न विश्वविद्यालयों में पत्रकारिता के शिक्षण और नया इंडिया में नियमित लेखन।

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