कुल कहानी यह है कि जिन देशों के पास उत्पादक क्षमता और स्वतंत्र विकास की आकांक्षा है, उन्होंने एक नई राह चुन ली है। कई सौ साल से पश्चिमी उपनिवेशवाद और फिर साम्राज्यवाद से पीड़ित इन देशों ने महसूस किया है कि अब उनके पास वह क्रिटिकल मास (निर्णायक क्षमता) है, जिसके बदौलत वे पुराने वर्चस्व से निकल सकते हैँ। मुक्त होने की ये जद्दोजहद भी कम से कम ढाई सौ साल पुरानी है। लेकिन अब यह आज की वस्तुगत परिस्थितियों के अनुरूप एक नए मुकाम पर पहुंची है।
दक्षिण अफ्रीका के जोहानेसबर्ग शहर में नई उभर रही विश्व व्यवस्था की कहानी का पहला दृश्य देखने को मिला। या यूं कहा जाए कि इस कथानक का पहला अध्याय वहां लिखा गया। 24 फरवरी 2022 को रूस के राष्ट्रपति व्लादीमीर पुतिन ने जब यूक्रेन में विशेष सैनिक कार्रवाई शुरू करने का एलान किया था, तब उसे सात दशक पहले अस्तित्व में आई और साढ़े तीन दशक से दुनिया पर हावी अमेरिकी वर्चस्व वाली विश्व व्यवस्था के पटाक्षेप के रूप में देखा गया था। उस घटना पर पश्चिम की प्रतिक्रिया ने परदा गिरने के इस घटनाक्रम की रफ्तार और तेज कर दी। उसका परिणाम अब जोहानेसबर्ग में नई कथा की शुरुआत के रूप में सामने आया है।
इस सदी की शुरुआत में अमेरिकी इन्वेस्टमेंट बैंक गोल्डमैन सॉक्स के अर्थशास्त्री जिम ओ’नील ने ब्रिक (ब्राजील- रूस- भारत- चीन) को नई सदी में विश्व अर्थव्यवस्था का इंजन बताया था, तब संभवतः उन्हें भी इस बात का अहसास नहीं रहा होगा कि दो दशक बाद यह समूह ऐसी नई मौद्रिक-वित्तीय विश्व व्यवस्था का सूत्रधार बन जाएगा, जिससे दुनिया में शक्ति संतुलन में आमूल बदलाव की सूरत पैदा हो जाएगी। ओ’नील की उसी अवधारणा के अनुरूप आगे चल कर इन चारों देशों ने पहले ब्रिक स्थापना की और 2010 में उसमें दक्षिण अफ्रीका को जोड़ कर इसे ब्रिक्स का रूप दिया था।
तब से ब्रिक्स के शिखर सम्मेलन हर साल आयोजित होते रहे हैं। लेकिन हाल तक इन देशों ने अपनी चर्चाओं को आर्थिक सहयोग बढ़ाने और आपसी व्यापार को सहज बनाने तक सीमित रखा था। यह रुझान यूक्रेन युद्ध से बनी पृष्ठभूमि में तेजी से बदला। इस दौर में रूस के साथ-साथ चीन की भी घेराबंदी तेज करने की अमेरिका एवं अन्य पश्चिमी देशों की कोशिश ने दुनिया में उभरती अर्थव्यवस्था वाले, विकासशील, और गरीब देशों में ऐसी प्रतिक्रिया उत्पन्न की, जिससे ब्रिक्स की एक बिल्कुल नई भूमिका उभर कर सामने आ गई है।
नतीजतन, ब्रिक्स का 22 से 24 अगस्त तक जोहानेसबर्ग में हुआ 15वां शिखर सम्मेलन पश्चिमी मीडिया में भी जितनी दिलचस्पी और अटकलों का विषय रहा, वैसा पहले कभी नहीं हुआ था। निगाहें इस पर टिकी थीं कि क्या इस शिखर सम्मेलन से सचमुच ब्रिक्स के विस्तार का रास्ता साफ होगा? और क्या ब्रिक्स दुनिया में ऐसी मौद्रिक या अंतरराष्ट्रीय कारोबार के भुगतान की व्यवस्था बनाने की तरफ बढ़ेगा, जो डॉलर के वर्चस्व से मुक्त हो? वैसे तो बीते आठ दशक से, लेकिन खासकर पांच दशकों से तो निश्चित रूप से, डॉलर का वर्चस्व अमेरिकी साम्राज्यवाद का प्रमुख आधार बना रहा है। इसीलिए ब्रिक्स के दूसरे एजेंडे पर पूरी दुनिया की खास निगाह रही है।
पश्चिमी मीडिया ने इसको लेकर कई भ्रम भी फैलाए। यह खबर अंतिम दिन तक दी जाती रही कि भारत और ब्राजील ब्रिक्स के विस्तार के खिलाफ हैं। साथ ही बताया गया कि भारत ब्रिक्स की अपनी भुगतान व्यवस्था के भी खिलाफ है। इसीलिए इन खबरों पर यकीन करने वाले लोग मंगलवार को चकित रह गए, जब शिखर सम्मेलन को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यह दो-टूक वक्तव्य दिया कि भारत ब्रिक्स के विस्तार का पूरा समर्थन करता है। और अंततः जोहानेसबर्ग में क्या हुआ, इस पर गौर कीजिएः
छह नए देशों को ब्रिक्स की सदस्यता देने का आम सहमति से निर्णय हुआ। इनकी सदस्यता एक जनवरी 2024 से अमल में आ जाएगी। ये देश हैः ईरान, सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात, मिस्र, इथियोपिया, और अर्जेंटीना।
ब्रिक्स नेताओं ने नए देशों को सदस्यता देने के मानदंड और प्रक्रियाओं को तय करने संबंधी प्रस्ताव को आम सहमति से पारित कर दिया।
इसके तुरंत बाद चीन के मीडिया ने खबर दी कि ब्रिक्स के अगले शिखर सम्मेलन में दस और नए देशों को सदस्यता दी जाएगी। उनमें इंडोनेशिया और अल्जीरिया भी शामिल हैं। गौरतलब है कि जोहानेसबर्ग शिखर सम्मेलन से पहले कुल 23 देशों ने ब्रिक्स की सदस्यता के लिए औपचारिक आवेदन दिया था।
ब्रिक्स नेताओं ने अपने वित्त मंत्री और सेंट्रल बैंक के गवर्नरों को निर्देश दिया कि वे सदस्य देशों की राष्ट्रीय मुद्राओं में एक-दूसरे को भुगतान करने की संभावना पर विचार करें और इस बारे में अपनी रिपोर्ट अगली शिखर बैठक से पहले पेश करें। इसे ब्रिक्स पेमेंट टास्क फोर्स नाम दिया गया है। इस तरह आपसी कारोबार को डॉलर से मुक्त करने की दिशा में एक ठोस कदम बढ़ाया गया है।
शिखर सम्मेलन के बाद जारी जोहानेसबर्ग घोषणा पत्र में संयुक्त राष्ट्र के ढांचे में सुधार की मांग का जोरदार समर्थन किया गया। साथ ही संकल्प जताया गया कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में विकासशील देशों को उचित प्रतिनिधित्व देने की मांग का ब्रिक्स पुरजोर समर्थन करेगा। (सम्मेलन के दौरान इस बात पर बार-बार जोर डाला गया कि संयुक्त राष्ट्र सहित मौजूदा वैश्विक संस्थाएं अप्रभावी हो गई हैं। यूक्रेन युद्ध ने उनकी सीमाओं को बिल्कुल साफ कर दिया है।)
भारत ने ब्रिक्स देशों का अंतरिक्ष अनुसंधान कंपनी-समूह बनाने का प्रस्ताव रखा।
चीन ने आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस में अनुसंधान और विशेषज्ञता को ब्रिक्स देशों के साथ साझा करने की पेशकश की।
बहरहाल, अब जबकि ब्रिक्स का विस्तार एक हकीकत बन चुका है, सबका ध्यान प्रस्ताविक ब्रिक्स पेमेंट सिस्टम पर टिकना लाजिमी है। दरअसल, यही वह प्रयास है, जिससे पश्चिमी देशों की नींद उड़ सकती है। जैसाकि ऊपर कहा गया है, आधुनिक दौर में अमेरिकी साम्राज्यवाद का प्रमुख आधार डॉलर का वर्चस्व है। 1970 के दशक में यह वर्चस्व सऊदी अरब पर उसके प्रभाव के कारण बना था। सऊदी अरब तब से लेकर आज तक कच्चे तेल का सबसे बड़ा उत्पादक रहा है। अपनी इस हैसियत के कारण तेल उत्पादक देशों के संगठन- ओपेक में उसकी लगभग निर्णायक भूमिका रही है।
अमेरिकी रणनीति का हिस्सा बनकर सऊदी अरब ने 1973 में यह एलान कर दिया था कि अब कच्चे तेल के बदले भुगतान वह सिर्फ अमेरिकी डॉलर में स्वीकार करेगा। इस तरह पेट्रो-डॉलर अस्तित्व में आया। चूंकि कच्चा तेल (और प्राकृतिक गैस) दुनिया में सबसे महत्त्वपूर्ण कॉमोडिटी है, इसलिए बाकी दुनिया भी सऊदी अरब की शर्त को मानने के लिए मजबूर हो गई। दुनिया के सभी देशों के लिए अपने मुद्रा भंडार में डॉलर रखना अनिवार्य हो गया। यानी पेट्रो-डॉलर ने असल में हर कारोबार में डॉलर का वर्चस्व कायम कर दिया। नतीजा यह हुआ कि अधिक से अधिक डॉलर जुटाने के प्रयास में तमाम देश अपने यहां पैदा होने वाले आर्थिक मूल्य का एक बड़ा हिस्सा अमेरिकी खजाने में ट्रांसफर करने को विवश हो गए।
अब वही सऊदी अरब ब्रिक्स का सदस्य बनने जा रहा है। रूस में होने वाले अगले शिखर सम्मेलन में जब आपसी कारोबार का भुगतान अपनी मुद्राओं में करने का सिस्टम बनाने की बात होगी, तब सऊदी अरब उसका हिस्सा होगा। ईरान और यूएई भी तेल के बड़े उत्पादक हैं, जो अब ब्रिक्स का हिस्सा बनने जा रहे हैं। रूस सऊदी अरब के दूसरा सबसे बड़ा तेल उत्पादक देश है, जो ब्रिक्स का संस्थापक सदस्य है। एक अन्य बड़े तेल उत्पादक वेनेजुएला ने ब्रिक्स का सदस्य बनने की अर्जी दे रखी है। जानकारों ने ध्यान दिलाया है कि दुनिया के नौ सबसे बड़े तेल उत्पादक देशों में से छह अगले वर्ष तक ब्रिक्स का सदस्य बन जाएंगे। ब्रिक्स के कई सदस्य देशों के पास उन खनिजों का भी समृद्ध भंडार है, जिनकी आज सबसे ज्यादा मांग है। जब ये सारा कारोबार डॉलर से मुक्त रहते हुए होने लगेगा, तो डॉलर का वर्चस्व स्वाभाविक रूप से गुजरे जमाने की कहानी बन जाएगी।
यह नई लिखी जा रही कहानी का आर्थिक अध्याय है। अगर भू-राजनीतिक लिहाज से देखें, तो ईरान को ब्रिक्स की सदस्यता देना सीधे तौर पर पश्चिम को चुनौती के रूप में देखा जा सकता है। ईरान पर अमेरिका और उसके साथी देशों ने सख्त प्रतिबंध लगा रखे हैं, जबकि ब्रिक्स की सदस्यता के साथ अब यह देश नई उभरी विश्व मुख्यधारा का हिस्सा बनने जा रहा है। आयरलैंड के अर्थशास्त्री फिलिप पिलकिंग्टन ने लिखा है- ‘बिक्र्स से ईरान के जुड़ने का मतलब यह होगा कि वह विश्व अर्थव्यवस्था में अलग-थलग नहीं रह जाएगा। यह देखते हुए कि ईरान दुनिया का आठवां सबसे बड़ा तेल उत्पादक है और उसके पास तीसरा सबसे बड़ा तेल भंडार है, उसका ब्रिक्स का सदस्य बनना एक ठोस आर्थिक एवं भू-राजनीतिक घटना है।’ अपनी इसी टिप्पणी में पिलकिंग्टन कहा है- ‘इन घटनाओं को पश्चिम में घबराहट के साथ देखा गया है।’
यह घबराहट वाजिब है। ओ’नील ने जब ब्रिक का कॉन्सेप्ट दिया था, तब कथित एक-ध्रुवीयता या पूरे अमेरिकी वर्चस्व का दौर था। तब पश्चिम ब्रिक देशों को नव-उदारवादी अर्थव्यवस्था के तहत अमेरिका से तय किए जाने वाले श्रम विभाजन का हिस्सा समझा गया था। हकीकत यह है कि इस व्यवस्था को ब्रिक देशों ने अपनी तरफ से चुनौती देने की नियोजित कोशिश कभी नहीं की। लेकिन अमेरिका के न्यू कंजरवेटिव शासक तबके में डॉलर का हथियार के रूप में इस्तेमाल करने की बढ़ती प्रवृत्ति ने इन देशों में सोच को बदल दिया है। विश्व व्यवस्था में विकासशील देशों की सुरक्षा संबंधी चिंताओं को पूरी तरह नजरअंदाज करने और एकतरफा फैसलों से दुनिया को चलाने की उनकी कोशिशों ने स्वाभाविक प्रतिक्रिया पैदा की है। यूक्रेन युद्ध के संदर्भ में वह प्रतिक्रिया निर्णायक दौर में पहुंच गई है।
यूक्रेन मुद्दे पर रूस पर लगाए गए प्रतिबंधों का उलटा असर हुआ है। अब साफ है कि इस मामले में अमेरिका का अंधानुकरण कर यूरोप आर्थिक बर्बादी के रास्ते पर चल निकला है। दूसरी तरफ विकासशील देशों ने उचित सबक लेते हुए ब्रिक्स, यूरेशियन इकॉनमिक यूनियन, और शंघाई सहयोग संगठन के इर्द-गिर्द उभर रही समानंतर विश्व व्यवस्था से जुड़ने में अपना हित समझा है। जोहानेसबर्ग शिखर सम्मेलन इस परिघटना के ठोस रूप लेने का मौका बना। कहा जा सकता है कि नई कहानी की पहली इबारत वहां लिखी गई।
ब्रिक्स की सदस्यता मिलने की पुष्टि होने के बाद अर्जेंटीना के बीजिंग स्थित राजदूत वाका नोवावजा ने चीन के अखबार ग्लोबल टाइम्स से कहा- ‘अब हम मिलकर उभरते देशों की उस आवाज की नुमाइंदगी करने जा रहे हैं, जिसकी अंतरराष्ट्रीय संगठनों में उपेक्षा की गई है। ग्लोबल साउथ (विकासशील विश्व) के देशों के विकास के लिए ब्रिक्स का मजबूत होना अनिवार्य है। … इसका विस्तार एक ऐसी सद्भावपूर्ण विश्व व्यवस्था के निर्माण के लिए महत्त्वपूर्ण है, जहां टकराव की जगह सहयोग और वित्तीय वायदा कारोबार की जगह उत्पादक विकास ले सके। जहां एकतरफा हस्तक्षेप की जगह पारस्परिक सम्मान, प्रतिबंध के पुराने चलन की जगह आर्थिक एकीकरण और तकनीक पर प्रतिबंध की जगह तकनीक हस्तांतरण की परंपरा कायम हो सके।’
अमेरिकी मीडिया ब्लूमबर्ग ने कहा है कि ब्रिक्स के विस्तार से इस समूह के वैश्विक प्रभाव और जी-7 के वर्चस्व का मुकाबला करने की शक्ति में इजाफा होगा। ब्रिक्स नेताओं ने किसी का मुकाबला करने की बात नहीं कही है। बल्कि उनका जोर आपसी सहयोग को बढ़ाने पर है, ताकि इन देशों के विकास के रास्ते की रुकावटों को दूर किया जा सके। ऐसा करने की क्षमता आज इन देशों के पास है।
ब्राजील के राष्ट्रपति लुइज इनेसियो लूला दा सिल्वा ने जोहानेसबर्गमें ध्यान दिलाया विस्तार के बाद ब्रिक्स का परचेजिंग पॉवर पैरिटी आधारित साझा जीडीपी विश्व जीडीपी का 36 प्रतिशत हो जाएगा। साथ ही दुनिया की 46 प्रतिशत आबादी अब ब्रिक्स देशों में होगी। स्पष्टतः अगले वर्ष नए देशों को सदस्यता मिलने के बाद इन आंकड़ों में और बढ़ोतरी होगी।
तो कुल कहानी यह है कि जिन देशों के पास उत्पादक क्षमता और स्वतंत्र विकास की आकांक्षा है, उन्होंने एक नई राह चुन ली है। कई सौ साल से पश्चिमी उपनिवेशवाद और फिर साम्राज्यवाद से पीड़ित इन देशों ने महसूस किया है कि अब उनके पास वह क्रिटिकल मास (निर्णायक क्षमता) है, जिसके बदौलत वे पुराने वर्चस्व से निकल सकते हैँ। मुक्त होने की ये जद्दोजहद भी कम से कम ढाई सौ साल पुरानी है। लेकिन अब यह आज की वस्तुगत परिस्थितियों के अनुरूप एक नए मुकाम पर पहुंची है। इससे उन ताकतों का आक्रामक होना लाजिमी है, जिनके हाथ से डोर फिसल रही है। अब देखने की बात यह होगी कि क्या वे इसकी प्रतिक्रिया को नए युद्धों तक ले जाते हैं?
अमेरिका के नव-कंजरवेटिव शासक दुनिया के विभिन्न क्षेत्रों में युद्ध का माहौल बना रहे हैं। इससे पूरी दुनिया में बढ़ रहा तनाव लगातार खतरनाक रूप लेता रहा है। दरअसल, ढहते साम्राज्य की संचालक ताकतों को यह मालूम है कि आर्थिक और एक हद तक तकनीकी क्षेत्र में भी बाजी उनके हाथ से निकल चुकी है। चूंकि उनकी सैनिक ताकत अभी भी मजबूत है, तो संभवतः उसका इस्तेमाल ही उनका आखिरी आसरा है। ब्रिक्स समूह के सामने यह एक बड़ी चुनौती है। आखिर शांति कायम रहना विकास की पहली एवं अनिवार्य शर्त है।