रूस के शहर कजान में 22 से 24 अगस्त तक ब्रिक्स शिखर सम्मेलन आयोजित होने जा रहा है, यह चर्चा जोरों पर है कि वहां अपनी मुद्राओं में भुगतान की कोई ठोस व्यवस्था शुरू करने का निर्णय हो सकता है। जो सूचनाएं उपलब्ध हैं, उनके मुताबिक फिलहाल मकसद डॉलर में भुगतान के सिस्टम स्विफ्ट (Society for Worldwide Interbank Financial Telecommunication) का विकल्प तैयार करना है। तो क्या ब्रिक्स स्विफ्ट का विकल्प पेश करेगा?
पंचतंत्र की उस कथा को याद कीजिए, जिसमें एक राक्षस के आतंक से एक राजा का पूरा राज्य तबाही झेल रहा था। राक्षस हर रोज एक व्यक्ति को मार कर खा जाता था। तब राजा ने एलान किया कि जो व्यक्ति राक्षस को मार डालेगा, उसका विवाह वह राजकुमारी- यानी अपनी बेटी- से कर देगा (बेशक यह वाक्य पितृ-सत्तात्मक है, लेकिन हमारा पारंपरिक समाज और उससे जुड़ी कथाएं ऐसी ही रही हैं)। मगर राक्षस के सामने जाना अपनी जान को खतरे में डालना था! तो कोई तैयार नहीं हो रहा था। इसी बीच एक गरीब नौजवान ने सोचा कि वैसे भी उसकी जिंदगी में क्या आराम है! तो क्यों ना यह जोखिम उठाया जाए! उसने यह रिस्क लेने का मन बनाया।
जब वह राक्षस के ठिकाने की तरफ जा रहा था, तभी रास्ते में उसे एक जादूगरनी मिली, जो खुद भी राक्षस से परेशान थी। उसने उस नौजवान को बताया कि राक्षस की जान एक तोते में बसती है, इसलिए राक्षस पर कितने भी हमले किए जाएं, उसका कुछ नहीं बिगड़ेगा।
जादूगरनी ने उस तोते का ठिकाना भी बताया और उसे आसानी से पकड़ने का तरीका भी। तो उस शख्स ने तोते को पकड़ लिया। तोते के साथ जब वह राक्षस के सामने गया, तो राक्षस ने हमला करने के तेवर दिखाए। लेकिन इसी बीच उस व्यक्ति ने तोते का एक पांव तोड़ दिया, तो राक्षस का भी एक पांव टूट गया। तब उसने तोते का दूसरा पांव तोड़ा, तो राक्षस के दोनों पांव टूट गए और वह जमीन पर गिर पड़ा। फिर उस नौजवान ने तोते की गर्दन मरोड़ दी, जिसके साथ ही राक्षस मर गया।
अब यहां राक्षस की जगह पर अमेरिका और तोते की जगह पर अमेरिकी मुद्रा डॉलर को रख कर विचार करें। अमेरिका कभी उत्पादक अर्थव्यवस्था के लिहाज से भी सबसे बड़ी आर्थिक महाशक्ति था। नव-उदारवाद की पनाह में जाने और अर्थव्यवस्था का अधिक से अधिक वित्तीयकरण (financialization) करने की दौड़ में शामिल हो कर उसने खुद अपनी इस ताकत को खत्म कर लिया। वैसे अमेरिका आज भी दुनिया की सबसे बड़ी सैन्य शक्ति है। मगर उस सैन्य शक्ति की जान डॉलर के वैश्विक वर्चस्व में बसती है।
वैश्विक कारोबार की मुद्रा होने के कारण हर देश के लिए अपने विदेशी मुद्रा भंडार में डॉलर रखना फिलहाल अनिवार्य है। जिन देशों के पास अपनी निर्यात शक्ति के कारण व्यापार भुगतान की अपनी जरूरत से ज्यादा डॉलर हैं, वे उसका निवेश अमेरिकी सरकार, वहां केंद्रीय बैंक, या कंपनियों के ट्रेजरी बिल/ बॉन्ड में करते हैं। इस तरह हर देश जो मूल्य अपनी अर्थव्यवस्था में पैदा करते हैं, उसका एक बड़ा हिस्सा वे अमेरिका ट्रांसफर कर देते हैं। इस प्रक्रिया के कारण अमेरिका घाटे की अर्थव्यवस्था को आराम से चला पा रहा है।
अमेरिका की जीडीपी तकरीबन 24 ट्रिलियन डॉलर है, जबकि सरकार पर कर्ज 35 ट्रिलियन डॉलर पार कर चुका है। इसके अतिरिक्त अमेरिकी सरकार की unfunded liabilities 95 ट्रिलियन डॉलर से ज्यादा हो चुकी है। कोई और देश होता, तो कब का default करने को मजबूर हो चुका होता। लेकिन अमेरिका की स्थिति अलग है। जैसाकि फ्रांस के तत्कालीन वित्त मंत्री (जो बाद में राष्ट्रपति भी बने) वालेरी जिस्कार देस्तां ने 1960 में कहा था कि दूसरे विश्व युद्ध के बाद बनी अंतरराष्ट्रीय मौद्रिक/वित्तीय व्यवस्था के तहत यह अमेरिका को मिला exorbitant privilege (असाधारण एवं अत्यधिक विशेष सुविधा) है।
आम समझ है कि जिस रोज ये सुविधा खत्म होगी या कम-से-कम सीमित हो जाएगी, अमेरिका के लिए घाटे की अर्थव्यवस्था चलाना और दुनिया में कायम अपने साढ़े सात सौ से ज्यादा सैनिक अड्डों की फंडिंग करना मुश्किल हो जाएगा। दरअसल, इसी सुविधा के कारण अमेरिका विभिन्न देशों पर आर्थिक प्रतिबंध लगाने में सफल होता रहा है। इस माध्यम से उसने विभिन्न देशों की विदेश संबंधी प्राथमिकताओं को संचालित और नियंत्रित किया हुआ है।
मगर हर असहमति पर ये तरीका लागू करने की नीति अब उसे भारी पड़ने लगी है। इससे प्रतिबंधित देशों के साथ-साथ वे देश भी अंतरराष्ट्रीय कारोबार में डॉलर का विकल्प ढूंढने के प्रेरित हुए हैं, जिन्हें लगता है कि भविष्य में जब कभी उनकी नीति अमेरिका के माफिक नहीं पड़ी, उन पर पाबंदियां लग जाएंगी। इतना ही नहीं, जैसाकि अमेरिका ने ईरान, वेनेजुएला और अब रूस के मामले में किया, उन देशों के डॉलर में रखे गए धन को भी जब्त कर लिया जाएगा।
इसी परिघटना के कारण डॉलर से हट कर व्यापार करने का प्रयास (DE dollarization) आज बहुचर्चित शब्द बन गया है। आपसी मुद्रा में कारोबारी भुगतान के लिए अलग-अलग देशों ने द्विपक्षीय समझौते किए हैँ। इस प्रयास में रूस (मजबूरी में) और चीन (एहतियातन) आज सबसे आगे दिखते हैं। दोनों देशों के बीच अब आपसी आयात-निर्यात के 90 फीसदी मूल्य का भुगतान रुबल-युवान में हो रहा है।
इसके बावजूद अभी कोई ऐसी बहुपक्षीय व्यवस्था नहीं है, जिसके तहत विभिन्न देश DE dollarization को ठोस रूप से अपना सकें। पिछले वर्ष जब ब्रिक्स देशों का शिखर सम्मेलन दक्षिण अफ्रीका में हुआ था, तब वहां सदस्य देशों ने अपने केंद्रीय बैंक के अधिकारियों और वित्त मंत्रियों को यह जिम्मेदारी सौंपी थी कि वे एक ऐसी व्यवस्था का खाका तैयार करें। वहीं छह अन्य देशों को ब्रिक्स की सदस्यता देने का फैसला हुआ, जिनमें से चार देश (ईरान, मिस्र, इथियोपिया और संयुक्त अरब अमीरात) अब तक औपचारिक रूप से ब्रिक्स का हिस्सा बन चुके हैं। उसके बाद अब ब्रिक्स को ब्रिक्स प्लस के नाम से जाना जाता है। (सऊदी अरब ने आमंत्रण पर निर्णय लटकाए रखा है, जबकि अर्जेंटीना में सरकार बदलने के बाद नए राष्ट्रपति हावियर मिलेय ने ब्रिक्स में शामिल होने का न्योता ठुकरा दिया।)
अब जबकि रूस के शहर कजान में 22 से 24 अगस्त तक ब्रिक्स शिखर सम्मेलन आयोजित होने जा रहा है, यह चर्चा जोरों पर है कि वहां अपनी मुद्राओं में भुगतान की कोई ठोस व्यवस्था शुरू करने का निर्णय हो सकता है। जो सूचनाएं उपलब्ध हैं, उनके मुताबिक फिलहाल मकसद डॉलर में भुगतान के सिस्टम स्विफ्ट (Society for Worldwide Interbank Financial Telecommunication) का विकल्प तैयार करना है। स्विफ्ट में दुनिया भर के 11 हजार से ज्यादा बैंक शामिल हैं, जिनके अंदर कोई मनी ट्रांसफर होने पर सेकंडों के अंदर यह क्रिया संपन्न हो जाती है और संबंधित व्यक्तियों को उसकी सूचना मेसेजिंग के जरिए मिल जाती है। तो क्या ब्रिक्स स्विफ्ट का विकल्प पेश करेगा?
इस संबंध में ब्रिक्स की तैयारी का कुछ संकेत रूसी वित्त मंत्रालय और रूस के सेंट्रल बैंक बैंक ऑफ रशिया की तरफ से पेश एक दस्तावेज से मिला है। (BRICS_Research_on_IMFS_20241008।pdf (pdfupload।io)) इस दस्तावेज में शामिल व्यवस्था को ब्रिक्स देश स्वीकार करेंगे या नहीं, यह अभी साफ नहीं है। ब्रिक्स में फैसले आम सहमति से होते हैं। यानी किसी एक भी देश का विरोध वहां निर्णय को रोक सकता है। ब्रिक्स प्लस में कुछ देश ऐसे जरूर हैं, जो भले अपनी मुद्रा में अंतरराष्ट्रीय कारोबार को फैलाने के लिए अनेक देशों से द्विपक्षीय समझौते कर रहे हों, लेकिन वे खुल कर डॉलर के वर्चस्व को चुनौती देते नहीं दिखना चाहते। इन देशों में भारत प्रमुख है। इसलिए यह तय नहीं है कि रूस ने जो प्रस्ताव तैयार किया है, उसे मंजूरी मिल ही जाएगी।
लेकिन इस प्रयास को हमें एक क्रम के रूप में देखना चाहिए। अभी ढाई साल पहले तक डॉलर का विकल्प तैयार करना सिर्फ अकादमिक चर्चा का विषय था। लेकिन फरवरी 2022 में यूक्रेन के खिलाफ विशेष सैनिक कार्रवाई शुरू करने के रूस के फैसले के बाद अमेरिका और अन्य पश्चिमी देशों ने जैसी प्रतिक्रिया दिखाई, उसके बाद यह विषय ग्लोबल साउथ के एजेंडे पर आ गया। इन देशों ने रूस पर सैकड़ों प्रतिबंध लगा दिए तथा उसे स्विफ्ट सिस्टम से बाहर कर दिया। साथ अमेरिकी एवं यूरोपीय बैंकों में रखी गई उसकी लगभग 300 बिलियन डॉलर की विदेशी मुद्रा जब्त कर ली।
उसी के परिणामस्वरूप पहली बार ब्रिक्स में DE dollarization की चर्चा पिछले साल दक्षिण अफ्रीका में हुए शिखर सम्मेलन के दौरान हुई। तब चूंकि कोई खाका सामने नहीं था, इसलिए ब्रिक्स देशों ने ऐसा एक ब्लूप्रिंट तैयार करने के लिए कमेटी बनाई।
इस बार ब्रिक्स प्लस के मेजबान रूस ने अपनी तरफ से भी एक खाका पेश किया है। इसके तहत प्रस्तावित प्रणाली को आईएमएफएस यानी इंटरनेशनल मोनेटरी एंड फाइनेंशियल सिस्टम (अंतरराष्ट्रीय मौद्रिक एवं वित्तीय प्रणाली) नाम दिया गया है। इसके मुताबिक,
इरादा फिलहाल कोई नई मुद्रा जारी करने का नहीं है। पहले यह चर्चा थी कि ब्रिक्स अपनी मुद्रा जारी करेगा, जो या तो सोने की कीमत से जुड़ा होगा, या कॉमोडिटी बास्केट की औसत कीमत से संबंधित होगा।
एक चर्चा यह थी कि सदस्य देशों की मुद्राओं के बास्केट के औसत मूल्य से संचालित मुद्रा ब्रिक्स प्लस तैयार करेगा। लेकिन यह भी फिलहाल विचार-विमर्श की मेज पर नहीं है।
अभी मुख्य चर्चा आईएमएफएस की सुरक्षा, स्वतंत्रता, समावेशन और टिकाऊपन पर है।
दस्तावेज के मुताबिक ब्रिक्स देशों में अपनी मुद्रा जारी करने पर सहमति नहीं बनी, लेकिन ये सभी देश ऐसा मेसेजिंग सिस्टम तैयार करने पर राजी हैं, जो स्विफ्ट की जगह ले सके। एक ऐसा सिस्टम जिसका इन देशों में होने वाले घरेलू भुगतान से भी तालमेल हो।
रूस ने ब्रिक्स देशों का एक अपना केंद्रीय बैंक स्थापित करने का सुझाव दिया था। लेकिन संकेत हैं कि इस पर आम सहमति नहीं बन सकी है।
उसके इस प्रस्ताव पर भी सहमति नहीं बनी है कि ब्रिक्स के सदस्य देशों के सेंट्रल बैंक आपस में मिल कर एक अंतरराष्ट्रीय ढांचा तैयार करें, जो आम लेन-देन के सेटलमेंट को संपन्न करे।
लेकिन रूस के इस प्रस्ताव को समर्थन मिला है कि ब्रिक्स देशों के अपने-अपने सेंट्रल बैंक आपस में सेटलमेंट का सिस्टम बनाएं।
इस बात पर भी सहमति बनी है कि विभिन्न देशों के विदेशी मुद्रा भंडारों में डॉलर की मौजूदा अतिशय मात्रा (या अतिशय मात्रा रखने पर जोर) की सभी सदस्य देश समीक्षा करें।
सहमति बनी है कि न्यू डेवलमेंट बैंक, जिसे ब्रिक्स बैंक के नाम से भी जाना जाता है, बुनियादी सिद्धांत तैयार करे और एक ऐसी मिसाल तैयार करे, जिसका अनुपालन सदस्य देश करें।
ब्रिक्स प्लस देश सहमत हैं कि अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष एवं उसका एसडीआर (स्पेशल ड्रॉविंग राइट्स) सिस्टम सारी दुनिया की जरूरतों के मुताबिक काम नहीं कर रहे हैं।
फिलहाल ब्रिक्स देशों की अपनी क्रेडिट रेटिंग एजेंसी बनाने का विचार भी टाल दिया गया है। ब्रिक्स प्लस देशों में समझ बनी है कि तीसरे पक्ष के प्रतिबंध, अमेरिकी डॉलर पर निर्भरता, डेटा संग्रहण संबंधी दिक्कतें और किसी आम विश्लेषण ढांचे का मौजूद ना होना, इस रास्ते में प्रमुख बाधाएं हैं।
दरअसल, महत्त्वपूर्ण यह नहीं है कि कजान शिखर सम्मेलन में ब्रिक्स देश संगठित रूप से डॉलर का वर्चस्व खत्म करने का कोई सिस्टम शुरू कर पाते हैं या नहीं। महत्त्वपूर्ण यह है कि DE dollarization आज ग्लोबल साउथ में एक ठोस परिघटना का रूप ले चुका है। इस बात को खुद अमेरिकी विश्लेषक, निवेशक और यहां तक कि राजनेता भी स्वीकार कर रहे हैं और इसके संभावित परिणामों पर चर्चा कर रहे हैं। (‘Black Swan’ author Nassim Taleb is really afraid of de-dollarization | Fortune)।
दूसरी अहम बात यह है कि इस परिघटना को औपचारिक रूप से कार्यरूप देने के गंभीर प्रयास शुरू हो चुके हैं। डॉलर का वर्चस्व लगभग आठ दशकों से जारी है। पांच दशक से यह अपने आप में वैश्विक मौद्रिक प्रतिमान (global monetary standard) है। डॉलर इस हैसियत में एक खास ऐतिहासिक स्थिति में पहुंचा था। वो वस्तुगत स्थितियां काफी हद अब बदल चुकी हैं। लेकिन ये स्थितियां अभी निर्णायक रूप से नहीं बदली हैं। इसलिए डॉलर आधारित व्यवस्था का विकल्प तैयार करने की कोशिशें उस तरह निर्बाध नहीं हैं, जैसा 1945 में था, जब दूसरा विश्व युद्ध खत्म होने के साथ गैर-समाजवादी दुनिया में अमेरिका की हैसियत अकेली महाशक्ति की बन गई थी।
आज कोई एक देश उस हैसियत में नहीं है। इसलिए देशों का एक समूह दुनिया में एक अलग ध्रुव के रूप में संगठित होने की कोशिश कर रहा है। गौरतलब यह है कि यह समूह लगातार बड़ा होता जा रहा है। इस बात की पुष्टि हो चुकी है कि कजान में कम-से-कम 35 देशों के राष्ट्राध्यक्ष या शासनाध्यक्ष आएंगे। इनमें तुर्किये पर खास नज़र है, जो नाटो का भी सदस्य है। नाटो के एक सदस्य का ब्रिक्स प्लस के शिखर में आना अपने-आप में दुनिया में बदलती हवा का सूचक है।
निगाहें इस पर भी टिकी हैं कि क्या कजान में उन 30 से ज्यादा देशों में से कुछ को ब्रिक्स में शामिल किया जाता है, जिन्होंने सदस्यता पाने की अर्जी दे रखी है। ब्रिक्स प्लस का ताजा रुख इस बारे में सतर्कता से कदम उठाने का है। यानी कजान में ब्रिक्स प्लस का आकार कितना बढ़ेगा, यह अभी तय नहीं है। बहरहाल, कुछ नए देशों को सदस्यता देने पर सहमति बनी, तो ब्रिक्स प्लस ग्रेटर ब्रिक्स का रूप ले लेगा। इस रूप में कजान एक महत्त्वपूर्ण मुकाम बनेगा। वैसे यह ना भी हो, तब यह तय है कि कजान में ब्रिक्स का एजेंडा ग्रेटर (अधिक बड़ा) रूप जरूर ग्रहण करेगा।