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44 साल में सियासी ओलों की पहली बरसात

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मुद्दा यह है कि ऐसा पहली बार हो रहा है कि भाजपा-अध्यक्ष के चुनाव के समय इतने सारे सवाल खड़े हो रहे हैं। 44 बरस में सियासी ओलों की ऐसी बरसात भाजपा के आंगन ने पहले कभी नहीं देखी थी। मगर मोदी हैं तो सब मुमकिन है। आप भले ही उन्हें तानाशाह वगैरह कहें। मैं तो उन्हें भाजपा में आंतरिक लोकतंत्र की खदबदाहट का जनक होने का श्रेय देता हूं। 2025 लगते ही भाजपा, वह भाजपा नहीं रहेगी, जो अब तक वह थी।

भारतीय जनता पार्टी के भीतर विकट घमासान मचा हुआ है। 8 अक्टूबर से यह आंतरिक खींचतान और तेज़ी से बढ़ने वाली है। उस दिन हरियाणा और जम्मू-कश्मीर विधानसभाओं के चुनाव नतीजे आएंगे। हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र भाई मोदी अपनी जनसभाओं में कह रहे हैं कि हरियाणा के मतदाताओं ने भाजपा को भारी बहुमत से जिताने का मन बना लिया है, मगर मन-ही-मन वे जानते हैं कि दोनों प्रदेशों में भाजपा के आसार बेहद धुंधले हैं। लोकसभा चुनावों में खींच-खांच कर (161+79=) 240 सीटों का इंतजाम कर पाने के बाद से भाजपा के बड़े-छोटे नेता बेतरह विचलित हैं। हरियाणा और जम्मू-कश्मीर उन की चिंताओं को चरम पर पहुंचाने वाले साबित होंगे और बची-खुची कसर महाराष्ट्र और झारखंड विधानसभाओंे के चुनाव पूरी कर देंगे।

चारों राज्यों में चुनाव हो जाने के फ़ौरन बाद भाजपा को अपने लिए नए अध्यक्ष की तलाश के झंझट से गुज़रना होगा। मौजूदा अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा का कार्यकाल ख़त्म हो चुका है, मगर उन का कार्यकाल लोकसभा के चुनाव पूरे होने तक बढ़ा दिया गया था। जून में वह अवधि भी समाप्त हो गई। उन्हें केंद्रीय मंत्रिपरिषद में ले लिया गया। लेकिन दिसंबर तक वे ‘एक व्यक्ति-एक पद’ के नियम पालन से मुक्त रहेंगे। भाजपा की पितृ संस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ चाहती थी कि अगस्त के आख़ीर में केरल में होने वाली समन्वय बैठक से पहले भाजपा में कार्यकारी अध्यक्ष की नियुक्ति हो जाए। मगर ‘मोशा’-जमात संघ की इस ख़्वाहिश को ठेंगा दिखाने में अब तक तो कामयाब रही ही है।

भाजपा के अगले अध्यक्ष के नाम पर सहमति को ले कर स्वयंसेवकों और कलियुगी भाजपाइयों के बीच रस्साकशी चालू है। इस बीच भाजपा का सदस्यता अभियान भी चल रहा है। इस बार दस करोड़ अतिरिक्त सदस्य बनाने का लक्ष्य हासिल करने के लिए हर तरह के पापड़ बेले जा रहे हैं। हर स्तर के नेता-कार्यकर्ता के लिए एक तय संख्या में सदस्य बनाने का कोटा तय कर दिया गया है। हर सांसद को 15 हज़ार नए सदस्य बनाने का लक्ष्य दिया गया है। यानी लोकसभा के 240 और राज्यसभा के 96 सांसद मिल कर 50 लाख से ज़्यादा अतिरिक्त सदस्य जोड़ेंगे। विधायक, पार्षद और बाकी नेताओं का कोटा 5 हज़ार का है।

छह साल पहले अमित भाई शाह की अगुआई में चले सदस्यता अभियान के बाद भाजपा के 18 करोड़ सदस्य हो गए थे। उन में 10 करोड़ अतिरिक्त सदस्य जुड़ने का मतलब है कि इस बार वह 28 करोड़ की गिनती पर पहुंच जाएगी। 2024 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को देश भर से 23 करोड़ 60 लाख वोट मिले हैं। अगर वे सब भाजपा के सदस्य बन जाते हैं तो 4 करोड़ 40 लाख लोग ऐसे होंगे, जिन्होंने इस बार भाजपा को वोट तो नहीं दिया है, लेकिन वे सदस्यता लेंगे। इस आपाधापी के चलते मिस्ड-कॉल के ज़रिए सदस्यता लेने-देने में घालमेल की ख़बरें भी हर दिन आभासी आसमान से बरस रही हैं। संसार के सब से बड़े राजनीतिक दल का दर्ज़ा और भी बढ़ा-चढ़ा कर हर कीमत पर हासिल करने के लिए पार्टी-सदस्यता के ठेकेदारों ने अपनी बाहें चढ़ा रखी हैं।

सदस्यता अभियान का पहला चरण बुधवार को पूरा हो गया है। पहले चरण की सदस्यता-संख्या की समीक्षा हो रही है। दूसरा चरण 1 अक्टूबर से शुरू होगा और 15 अक्टूबर तक चलेगा। पहले चरण में बने सदस्यों की संख्या का अधिकारिक ऐलान तो अभी नहीं किया गया है, मगर कहा जा रहा है कि पांच करोड़ का आंकड़ा पार हो चुका है। पुराने सदस्यों को भी दोबारा सदस्यता लेनी होती है, सो, अभी यह धुंधलका कायम है कि भाजपा के कुल सदस्यों की तादाद इस वक़्त क्या है? 10 करोड़ अतिरिक्त सदस्य जोड़ने का लक्ष्य अभी कितने कदम दूर है? पुराने सदस्यों में से कितनों की सदस्यता का नवीनीकरण हुआ है और कितने लोग ऐसे हैं, जो पहली बार सदस्य बने हैं?

16 से 31 अक्टूबर तक भाजपा के सक्रिय सदस्य बनाने का काम होगा। 1 से 15 नवंबर के बीच मंडल अध्यक्षों के चुनाव होंगे। 16 से 30 नवंबर के बीच ज़िला अध्यक्ष चुने जाएंगे। इस के बाद राज्य और केंद्रीय परिषदों के सदस्यों का चुनाव होगा। दिसंबर के पहले पखवाड़े में प्रदेश अध्यक्षों के चयन की प्रक्रिया पूरी होगी। देश भर के आधे राज्यों में यह काम पूरा होने के बाद राष्ट्रीय अध्यक्ष के निर्वाचन की प्रक्रिया शुरू हो जाएगी। नया साल आते-आते भाजपा को नया अध्यक्ष मिल जाएगा।

इस बार अध्यक्ष चुनने के लिए मतदान कराने की नौबत आ जाएगी या अंततः सर्वसम्मति से यह हो जाएगा – अभी कहना मुश्क़िल है। लगता है कि मतदान कराने तक पहुंच जाने जैसी तनातनी आख़िरकार टल जाएगी, लेकिन आगत के जो सगुन नज़र आ रहे हैं, उन से कइयों की बाईं आंख फड़क रही है। आरएसएस ने पहले संजय जोशी का नाम आगे बढ़ाया था। सब जानते हैं कि नरेंद्र भाई के होते सूरज तो पश्चिम से निकल सकता है, मगर जोशी कभी भाजपा के अध्यक्ष नहीं बन सकते। दोनों के बीच अदावत की इबारत का शिलालेख भाजपा-भूमि में इतना गहरा धंसा हुआ है कि निकाले नहीं निकलेगा। चौथाई सदी की लातमलात रातोंरात गलबहियों में भला कैसे तब्दील हो जाएगी?

सो, अब आरएसएस ने वसुंधरा राजे का नाम भी आगे बढ़ाना शुरू कर दिया है। संजय जोशी जितना न सही, मगर वसुंधरा और नरेंद्र भाई के बीच का सियासी समीकरण भी कसैला ही रहा है। राजस्थान विधानसभा के चुनावों के वक़्त तो दोनों की मारामारी अपने चरम पर पहुंच गई थी। इसलिए वसुंधरा को भी पार्टी अध्यक्ष न बनने देने के लिए नरेंद्र भाई और अमित भाई कोई भी पत्थर उलटे बिना नहीं छोड़ेंगे। इस मामले में नरेंद्र भाई अपनी ताल संघ-प्रमुख मोहन भागवत की ताल से मिलाने को तैयार नहीं हैं। दोनों तरफ़ से चूंकि ताल ठुकी हुई है, इसलिए भाजपा के नए अध्यक्ष का मसला खूंटी पर लटका हुआ है।

मुझे नहीं लगता कि चारों राज्यों में भाजपा के कहीं का नहीं रहने के बाद भी संजय जोशी या वसुंधरा राजे में से कोई पार्टी-अध्यक्ष बन पाएगा। छप्पन इंच की अपनी छाती पर इतनी आसानी से मूंग दलने की इजाज़त देने वालों में नरेंद्र भाई नहीं हैं। मगर यह भी तय है कि वे अपने किसी चंगू-मंगू को भाजपा का अध्यक्ष नहीं बनवा पाएंगे। क्या मनोहर लाल खट्टर और भूपेंद्र यादव अध्यक्ष बन पाएंगे? क्या छींका टूट कर सुनील बंसल और केशवप्रसाद मौर्य में से किसी की गोद में गिर पाएगा? क्या विनोद तावड़े और विष्णुदत्त शर्मा में से किसी पर किस्मत मेहरबान हो जाएगी? क्या अनुराग ठाकुर, बी.एल. संतोष, देवेंद्र फडनवीस और के. लक्ष्मण में से कोई भाजपा अध्यक्ष की कुर्सी पर बैठा दिया जाएगा? क्या इस उठापटक के चलते शिवराज सिंह चौहान बतौर सुलह-प्रत्याशी सामने लाए जाएंगे? कहीं ऐसे में योगी आदित्यनाथ तो भाजपा के अगले अध्यक्ष नहीं बन जाएंगे?

तो मुद्दा यह है कि ऐसा पहली बार हो रहा है कि भाजपा-अध्यक्ष के चुनाव के समय इतने सारे सवाल खड़े हो रहे हैं। 44 बरस में सियासी ओलों की ऐसी बरसात भाजपा के आंगन ने पहले कभी नहीं देखी थी। मगर मोदी हैं तो सब मुमकिन है। आप भले ही उन्हें तानाशाह वगैरह कहें। मैं तो उन्हें भाजपा में आंतरिक लोकतंत्र की खदबदाहट का जनक होने का श्रेय देता हूं। 2025 लगते ही भाजपा, वह भाजपा नहीं रहेगी, जो अब तक वह थी।

By पंकज शर्मा

स्वतंत्र पत्रकार। नया इंडिया में नियमित कन्ट्रिब्यटर। नवभारत टाइम्स में संवाददाता, विशेष संवाददाता का सन् 1980 से 2006 का लंबा अनुभव। पांच वर्ष सीबीएफसी-सदस्य। प्रिंट और ब्रॉडकास्ट में विविध अनुभव और फिलहाल संपादक, न्यूज व्यूज इंडिया और स्वतंत्र पत्रकारिता। नया इंडिया के नियमित लेखक।

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