कार्तवीर्य सहस्रार्जुन बहुत लोक प्रिय सम्राट थे। विश्व भर के राजा महाराजा मांडलिक, मंडलेश्वर आदि सभी अनुचर की भांति सम्राट सहस्रार्जुन के दरबार में उपस्थित रहते थे। उनकी अपार लोकप्रियता के कारण प्रजा उनको देवतुल्य मानती थी। उनके जन्म कथा के महात्म्य के संबंध में मत्स्य पुराण के 43 वें अध्याय के 52वें श्लोक में कहा गया है- जो प्राणी सुबह-सुबह उठ कर श्री कार्तवीर्य सहस्त्रबाहु अर्जुन का स्मरण करता है उसके धन का कभी नाश नहीं होता है।
8 नवंबर- सहस्त्रबाहु जयंती
पौराणिक कथानुसार प्राचीन काल में एक चंद्रवंशी राजा ययाति की दो रानियां थी- प्रथम भार्गव ऋषि शुक उषमा की पुत्री देवयानी और द्वितीय दैत्यराज वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा। देवयानी से यदु और तुर्वस राजवंश तथा शर्मिष्ठा से दुह, अनु और पुरू नाम के पांच पुत्र हुए। ययाति ने अपने राज्य को पांच पुत्रों में बांट दिया। इस प्रकार ययाति से पांच राजवंशों का उदय हुआ। यदु से यादव राजवंश, तुर्वसु से तुर्वस राजवंश, दुह से दुह, अनु से आनव और पुरू से पौरव राजवंश का विस्तार हुआ। ययाति ने अपने ज्येष्ठ पुत्र यदु को चंबल-वेतवा और केन नदियों का मध्यवर्ती राज्य दिया। महाराज यदु के पांच पुत्र हुए, जिनमें सहस्त्रजित, क्रोंत प्रमुख थे। यदु वंश के समकालीन तुर्वस राजवंश के अंतर्गत राजा तुर्वस के तीन पुत्र हुए, जिसमें हैहय, हय और वेनुहय हुए, जिसमें हैहय के नाम से ही हैहयवंश का विस्तार हुआ।
हैहयवंश की शाखा विस्तार में राजा साहज्ज के वंश के विस्तार में, राजा कनक के चार सुविख्यात पुत्र कृतवीर्य, कृतौजा, कृतवर्मा और कृताग्नि हुए, जो समस्त विश्व में विख्यात थे। राजा कनक के ज्येष्ठ पुत्र कृतवीर्य उनके पश्चात राज्य के उत्तराधिकारी बने। वे पुण्यवान प्रतापी राजा थे और अपने समकालीन राजाओं में वे सर्वश्रेष्ठ राजा माने जाते थे। इनकी रानी का नाम कौशिका था। कार्तिक मास में शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि को श्रवण नक्षत्र में प्रात: काल के मुहूर्त में महाराज कृतवीर्य से कार्तवीर्य अर्जुन उत्पन्न हुए। इनका जन्म का नाम एक वीर था। कृतवीर्य के पुत्र होने के के कारण इन्हें कार्तवीर्य व अर्जुन तथा भगवान दत्तात्रेय की तपस्या से प्राप्त सहस्त्र बाहु अर्थात सहस्त्र भुजाओं के बल होने के कारण सहस्त्रबाहु अथवा सहस्रार्जुन के नाम से भी ये जाने जाते हैं। उन्होंने सभी सिद्धियाँ प्राप्त की थीं।
सहस्रार्जुन को विष्णु का चौबीसवां अवतार मानकर उपास्य देवता के रूप में उनकी पूजा-अर्चना उनके अनुयायी सहस्रार्जुन के नाम से करते हैं। कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की सप्तमी को इनका जन्म होने की मान्यता होने के कारण इस दिन सहस्रार्जुन जयंती मनाई जाती है। कार्तिक शुक्ल सप्तमी को हैहयवंशी दीपोत्सव की भांति महाराज कार्तवीर्य अर्जुन की जयंती धूमधाम से मनाते हैं और कार्तवीर्य की गरिमामयी इतिहास और उनके गुण व महिमा का गान करते हैं।
सहस्रार्जुन से संबंधित कथाएं महाभारत एवं हरिवंश पुराण अध्याय 38, वायु पुराण अध्याय 2 व 32 तथा मत्स्य पुराण अध्याय 42, कालिका पुराण, पदम पुराण आदि पौराणिक ग्रंथों में अंकित हैं। इनके नाम से स्वयं भी एक पुराण -सहस्रार्जुन पुराण प्रचलित है, जिसके तीन भाग हैं। इन ग्रंथों में हैहयवंश, हैहय राजा कार्तवीर्य, सहस्रार्जुन अथवा सहस्रबाहु और महिष्मति प्रदेश के संबंध में विस्तृत वर्णन अंकित है। इन पौराणिक ग्रंथों में कंकोतक नाम वंशजों के साथ हैहय राजा कार्तवीर्य, सहस्रार्जुन अथवा सहस्रबाहु के द्वारा युद्ध में जीत कर अपनी आधिपत्य में स्थापित करने का उल्लेख मिलता है। पौराणिक ग्रंथों में कार्तवीर्य अर्जुन के सहस्रार्जुन, कृतवीर्यनन्दन, राजेश्वर, हैहयाधिपति, दशग्रीविजयी, सुदशेन, चक्रावतार, सप्तद्वीपाधि आदि अनेक नाम अंकित हैं। पौराणिक ग्रंथों में द्वापर युग में भगवान श्रीकृष्ण के अवतार के समय यदुवंश के समकालीन शाखा ययाति वंश (चंद्रवंशी) में हैहय वंश का प्रादुर्भाव देखने को मिलता है। मत्स्य पुराण अध्याय 42 के अनुसार पचीसवें कृत युग के आरम्भ में हैहय कुल में एक प्रतापी राजा कार्तवीर्य राजा होगा, जो सातों द्वीपों और समस्त भूमंडल का परिपालन करेगा। महिष्मति महाकाव्य के अनुसार यह चंद्रवंश के महाराजा कृतवीर्य के पुत्र कार्तवीर्य अर्जुन- हैहयवंश शाखा के 36 राजकुलों में से एक कुल से संबद्घ माने जाते हैं।
उक्त सभी राजकुलों में हैहयवंश, कुल के राजवंश के कुलश्रेष्ठ राजा सहस्त्रवाहु अर्जुन समस्त समकालीन वंशों में सर्वश्रेष्ठ, शौर्यवान, परिश्रमी, निर्भीक और प्रजा के पालक के रूप की जाती है। इस कुल वंश ने सबसे ज्यादा 12000 से अधिक वर्षो तक सफलता पूर्वक शासन किया था। महिष्मति महाकाव्य के अनुसार सहस्त्रबाहु अर्जुन का जन्म महाराज हैहय के दसवीं पीढ़ी में माता पद्मिनी के गर्भ से हुआ था। महाराज कार्तवीर्यार्जुन के राज्याभिषेक में स्वयं दत्तात्रेय एवं ब्रह्मा पधारे थे। राजसिंहासन पर बैठते ही उन्होंने घोषणा कर दी कि मेरे अतिरिक्त कोई भी अस्त्र-शस्त्र धारण नहीं करेगा। वे अकेले ही सब प्रकार से अपनी प्रजा का पालन और रक्षा करते थे। युद्ध दान धर्म दया एवं वीरता में उनके समान कोई नहीं था।
सहस्रबाहु अपने युग के एकमात्र राष्ट्रपुरुष एवं युगपुरुष ही नहीं, बल्कि धर्मनिष्ठ एवं शौर्यवान पुरुष थे। उन्होंने साक्षात भगवान के अवतार दत्तात्रेय को अपना गुरु माना और उन्हीं से अपनी सम्पूर्ण शिक्षा- दीक्षा व धनुर्विद्या प्राप्त की थी। और अपने तप और उपासना द्वारा प्रार्थना कर उनसे अपराजय होने और सहस्रभुजाओं के बल होने का वरदान प्राप्त किया था, जिसके कारण ही वह सहस्रबाहु अर्जुन कहलाते हैं। उन्होंने सम्पूर्ण पृथ्वी पर अपना आधिपत्य स्थापित किया था। वे परम भक्त और भृगुवंशी ब्राह्मण के यजमान थे। उनके समान दानवीर कोई और दूसरा शासक नहीं था। उन्होंने बहुत सारे यज्ञ और हवन का आयोजन कर प्रचुर मात्रा में ब्राह्मणों को धन दान किया करते थे। प्रजा को हमेशा सुखी रखते थे।
पौराणिक ग्रंथों में यदुवंश के समकालीन ययाति शाखा हैहयवंश का महिष्मति पर राज्य और अधिकार करने का वर्णन है। महिष्मति को ही हैहय वंश के राजाओं की राजधानी भी बताया गया है। महाभारत में भी महेश्वरपुर और महिष्मति नगर अथवा स्थान का उल्लेख मिलता है। पद्य पुराण के अनुसार महिष्मति में ही त्रिपुरसुर का वध हुआ था। पुराणों में त्रिपुरी के मुख्य शासक तथा तर्कापुर के नाम भी मिलते हैं। मार्कण्डेय पुराण में कार्तवीर्य को एक हजार वर्ष और हरिवंश पुराण में बारह हजार वर्ष दत्तात्रेय की उपासना करना बतलाया है।
राजराजेश्वर भगवान कार्तवीर्य सहस्रार्जुन बहुत लोक प्रिय सम्राट थे। विश्व भर के राजा महाराजा मांडलिक, मंडलेश्वर आदि सभी अनुचर की भांति सम्राट सहस्रार्जुन के दरबार में उपस्थित रहते थे। उनकी अपार लोकप्रियता के कारण प्रजा उनको देवतुल्य मानती थी। उनके जन्म कथा के महात्म्य के संबंध में मत्स्य पुराण के 43 वें अध्याय के 52वें श्लोक में कहा गया है- जो प्राणी सुबह-सुबह उठ कर श्री कार्तवीर्य सहस्त्रबाहु अर्जुन का स्मरण करता है उसके धन का कभी नाश नहीं होता है और यदि कभी नष्ट हो भी जाय तो पुन: प्राप्त हो जाता है। हरिवंश पुराण के अनुसार जो मनुष्य सहस्रार्जुन के जन्म आदि का पाठ नित्यश: कहते और सुनते हैं उनका धन कभी नष्ट नहीं होता है तथा नष्ट हुआ धन पुन: वापस आ जाता है। इसी प्रकार जो लोग श्री सहस्रार्जुन भगवान के जन्म वृतांत की कथा की महिमा का वर्णन कहते और सुनाते हैं उनकी जीवन और आत्मा यथार्थ रूप से पवित्र हो जाती है वह स्वर्गलोक में प्रशंसित होता है।
पौराणिक कथाओं के अनुसार सहस्त्रबाहु का लंकेश रावण से सामना हुआ था, जिसमें उसने रावण को हराकर बंदी बना लिया था। कथा के अनुसार सहस्रबाहु को अपने बल और वैभव का बड़ा गर्व था। एक बार वह गले में वैजयंतीमाला पहनकर नर्मदा नदी में स्नान कर रहा था। उसने कौतुकवश अपनी भुजाओं को फैलाकर नदी के प्रवाह को रोक लिया। उस समय नर्मदा में स्नान कर रहे लंकाधिपति रावण को सहस्त्रबाहु का यह कार्य बड़ा ही अनुचित और अन्यायपूर्ण लगा। उसे भी अपने बल का बड़ा गर्व था। वह सहस्त्रबाहु के पास जाकर उसे खरी-खोटी सुनाने लगा। सहस्त्रबाहु उसकी खरी-खोटी सुनकर क्रुद्ध हो उठा। और उसने रावण को बंदी बना लिया। और अपने कारागार में बंद कर दिया।
किंतु पुलस्त्य ॠषि ने दयालु होकर उसे मुक्त करा दिया। फिर भी रावण के मन का अभिमान दूर नहीं हुआ। वह अभिमान के मद में चूर होकर ही ऋषियों और मुनियों पर अत्याचार किया करता था।रावण के अभिमान को मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम ने तोड़ा। सहस्त्रबाहु के द्वारा परशुराम के पिता जमदग्नि से उनकी कामधेनु गाय मांगे जाने की कथा भी अत्यंत प्रचलित है। जमदग्नि के इंकार करने पर उसके सैनिक बलपूर्वक कामधेनु को अपने साथ ले गए। बाद में परशुराम को सारी घटना विदित होने पर उन्होंने अकेले ही सहस्त्रबाहु की समस्त सेना का नाश कर दिया। और सहस्त्रबाहु का भी वध कर दिया।