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मौन की भाषा: ‘बर्लिन’

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अतुल सभरवाल का निर्देशन बेहद प्रभावशाली है। उन्होंने 1993 के दिल्ली को बेहद प्रामाणिक तरीके से परदे पर जीवंत कर दिया है। पुरानी दिल्ली की गलियां, सरकारी दफ्तरों का तनावपूर्ण माहौल और राजनीतिक दबाव को उन्होंने बेहतरीन ढंग से चित्रित किया है। फ़िल्म का लेखन इतना सशक्त है कि यह दर्शकों को अंत तक बांधे रखता है। फ़िल्म की सबसे बड़ी ख़ासियत इसका रहस्यमय माहौल है।… ज़ी 5 पर है। देख लीजिएगा।

ऐसा अक्सर होता है कि बहुत बड़ी फिल्मों के अग्रेसिव प्रमोशन के शोर में कई छोटी और दिलचस्प फ़िल्मों की तरफ़ ध्यान थोड़ी देर से जाता है। पिछले साल आई हिंदी फ़ीचर फ़िल्म ‘बर्लिन’ को मैं उसी श्रेणी में पाता हूं। ‘बर्लिन’ नाम की इस फ़िल्म को लिखा और निर्देशित किया है अतुल सभरवाल ने। यह एक बेहद सशक्त और सस्पेंस से भरपूर थ्रिलर है। इस फ़िल्म की कहानी ऐसे बुनी गई है जैसे पूरी तरह से किसी वास्तविक घटना पर आधारित हो। फ़िल्म 1993 के नई दिल्ली की पृष्ठभूमि में है जब वहां रूस के राष्ट्रपति आने वाले थे और भारतीय इंटेलिजेंस विभाग एक मूक बधिर व्यक्ति को इस आशंका पर ग़िरफ़्तार कर लेता है कि वो एक विदेशी जासूस हो सकता है और साथ ही किसी बहुत बड़ी साज़िश का हिस्सा। फ़िल्म का कथानक दर्शकों को एक रहस्यमयी कहानी में उलझा देती है, जहां गुनाह और मासूमियत के बीच की रेखा धुंधली हो जाती है।

फ़िल्म की कहानी एक युवा मूक बधिर व्यक्ति अशोक कुमार (ईश्वाक सिंह) के ईर्द गिर्द घूमती है, जिसे विदेशी जासूस होने के आरोप में गिरफ्तार किया जाता है। उसकी पूछताछ के दौरान सरकार एक सांकेतिक भाषा विशेषज्ञ पुश्किन वर्मा (अपारशक्ति खुराना) को बुलाती है ताकि वह अशोक के विचारों और भावनाओं को समझ सके। जैसे जैसे कहानी आगे बढ़ती है, पता चलता है कि यह मामला सिर्फ़ एक साधारण जांच नहीं है, बल्कि इसके पीछे राजनीति, धोखे और व्यक्तिगत हितों की एक गहरी साज़िश छिपी हुई है।

अशोक निर्दोष है या दोषी, यह सवाल पूरी फ़िल्म में दर्शकों के दिमाग में गूंजता रहता है। फ़िल्म में प्रत्येक किरदार, चाहे वह राहुल बोस द्वारा निभाया गया सरकारी अफसर हो या अनुप्रिया गोयनका द्वारा निभाई गई वकील, अपनी उपस्थिति से कहानी में नए आयाम जोड़ते हैं। कबीर बेदी की उपस्थिति भी फिल्म को एक गहराई प्रदान करती है, और उनकी सशक्त अदाकारी ध्यान खींचती है।

अतुल सभरवाल का निर्देशन बेहद प्रभावशाली है। उन्होंने 1993 के दिल्ली को बेहद प्रामाणिक तरीके से परदे पर जीवंत कर दिया है। पुरानी दिल्ली की गलियां, सरकारी दफ्तरों का तनावपूर्ण माहौल और राजनीतिक दबाव को उन्होंने बेहतरीन ढंग से चित्रित किया है। फ़िल्म का लेखन इतना सशक्त है कि यह दर्शकों को अंत तक बांधे रखता है।

फ़िल्म की सबसे बड़ी ख़ासियत इसका रहस्यमय माहौल है। अतुल सभरवाल ने कहानी को परत दर परत इस तरह पेश किया है कि हर नया मोड़ दर्शकों को हैरान कर देता है। उन्होंने फ़िल्म के पात्रों को न केवल गहराई दी है, बल्कि उनकी प्रेरणाओं और संघर्षों को भी ईमानदारी से दिखाया है। दरअसल, इस तरह की कहानी वाली फ़िल्में जिसमें मुख्य पात्र बोल सुन नहीं सकता लेकिन समझ बिलकुल सकता है, स्क्रिप्ट में एक अनोखा कॉन्फ्लिक्ट लेकर आती है। कई बार क़िरदारों का मौन बहुत कुछ कह देता है और पात्रों की भाषा उलझा जाती है। वैसे भी सभ्यता के इतिहास में मौन की उम्र , भाषाओं से काफ़ी ज़्यादा है। मौन की अपनी ही एक भाषा है।

अपारशक्ति खुराना ने सांकेतिक भाषा विशेषज्ञ के रूप में शानदार अभिनय किया है। उन्होंने पुश्किन वर्मा के किरदार में अपनी भावनाओं और दुविधाओं को बखूबी उभारा है। उनके किरदार के माध्यम से फिल्म कई सामाजिक और नैतिक सवाल उठाती है। ईश्वाक सिंह ने अशोक कुमार के किरदार को बेहद संजीदगी से निभाया है। मूक बधिर होने के बावजूद, उनके चेहरे के भाव और शरीर की भाषा से वह दर्शकों को अपने दर्द और संघर्ष का एहसास कराते हैं। राहुल बोस, जो एक अनुभवी अधिकारी के रूप में नजर आते हैं, ने अपनी भूमिका को दमदार तरीके से निभाया है। उनके किरदार की जटिलताएं और नैतिक दुविधाएं फिल्म में गहराई जोड़ती हैं। अनुप्रिया गोयनका और कबीर बेदी ने अपने अपने किरदारों में जान डाल दी है। विशेष रूप से कबीर बेदी की गंभीरता और स्क्रीन प्रेजेंस फिल्म को एक अलग स्तर पर ले जाती है।

फ़िल्म की सिनेमेटोग्राफी श्रीदत्ता नमजोशी ने की है, जो फ़िल्म की एक और मजबूत कड़ी है। उन्होंने 1993 की दिल्ली को न केवल प्रामाणिकता के साथ दिखाया है, बल्कि हर फ्रेम में रहस्य और तनाव को बनाए रखा है। उनके कैमरा एंगल और प्रकाश व्यवस्था कहानी को और भी गहराई देते हैं। एडिटिंग के लिए पहले ही राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त एडिटर आईरीन धर मलिक द्वारा संपादन कसा हुआ और चुस्त है। फ़िल्म कहीं भी धीमी नहीं पड़ती, और हर सीन दर्शकों को कहानी में और गहराई तक ले जाता है। फ़िल्म का संगीत के कृष्ण कुमार ने तैयार किया है, जो कहानी के रहस्यमय और सस्पेंसफुल माहौल को और भी सशक्त बनाता है। बैकग्राउंड स्कोर न केवल दृश्यों को उभारता है, बल्कि दर्शकों को कहानी से भावनात्मक रूप से जोड़ता है।

फ़िल्म सिर्फ एक थ्रिलर नहीं है, यह कई गहरे और संवेदनशील मुद्दों पर भी प्रकाश डालती है। यह फिल्म उस दौर की राजनीति, सरकारी तंत्र की जटिलताओं और मानवीय संवेदनाओं के टकराव को दिखाती है। इसके साथ ही, यह फिल्म मूक बधिर समुदाय के प्रति समाज के नजरिए और उनके अधिकारों पर भी सवाल उठाती है। ‘बर्लिन’ का केवल एक पहलू ऐसा है जो थोड़ा कमज़ोर  लगता है, कहानी की कुछ परतें अंत में थोड़ी खींची हुई महसूस हो सकती हैं। हालांकि, यह कमी फ़िल्म के समग्र प्रभाव को बहुत ज्यादा प्रभावित नहीं करती। यह एक बेहतरीन थ्रिलर फ़िल्म है जो दर्शकों को अपनी सीट से बांधे रखने में सफल होती है। यह फ़िल्म न केवल मनोरंजन प्रदान करती है, बल्कि सोचने पर भी मजबूर करती है। अतुल सभरवाल का निर्देशन, कलाकारों का उम्दा अभिनय और तकनीकी पक्ष की मजबूती इसे एक यादगार अनुभव बनाते हैं।

फ़िल्म का विश्व प्रीमियर भारतीय फिल्म महोत्सव लॉस एंजिलिस में हुआ था, जो इसकी गुणवत्ता और अंतरराष्ट्रीय अपील को दर्शाता है। यदि आप एक ऐसी फिल्म देखना चाहते हैं जो रहस्य, सस्पेंस और संवेदनशीलता से भरपूर हो, तो ‘बर्लिन’ आपके लिए एक परफेक्ट चॉइस है। यह फ़िल्म आपको अंत तक सोचने और महसूस करने पर मजबूर करेगी। अब अगर आपके मन में ये जिज्ञासा भी है कि इस फ़िल्म का नाम ‘बर्लिन’ क्यों रखा गया है तो आपको ये फ़िल्म देखनी पड़ेगी। ज़ी 5 पर है। देख लीजिएगा। (पंकज दुबे मशहूर बाइलिंग्वल उपन्यासकार और चर्चित यूट्यूब चैट शो, “स्मॉल टाउन्स बिग स्टोरीज़” के होस्ट हैं।)

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