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भारत विरोध बांग्लादेश को भारी पड़ेगा

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भारत सरकार ने अभी तक संयम रखा है और स्थितियों को ठीक करने के संभवतः अंतिम प्रयास के तौर पर विदेश सचिव विक्रम मिस्री बांग्लादेश की यात्रा पर जा रहे हैं। सोमवार, नौ दिसंबर से उनकी यात्रा शुरू हो रही है। वे बांग्लादेश के अपने समकक्ष यानी वहां के विदेश मंत्री से मिलेंगे। वे बहुत स्पष्ट शब्दों में नई दिल्ली का संदेश ढाका को देंगे।

बांग्लादेश में चार महीने पहले जब शेख हसीना का तख्तापलट हुआ था तब माना गया था कि कूटनीतिक रूप से यह भारत के लिए बड़ा झटका है। परंतु तब ऐसा नहीं लगा था कि बांग्लादेश की अंतरिम सरकार भारत विरोधी रुख अपना लेगी और हिंदुओं पर अत्याचार इतना बढ़ जाएगा। इसके उलट जब मोहम्मद यूनुस अंतरिम सरकार के मुखिया बने तो एक उम्मीद जगी कि भारत और बांग्लादेश के संबंध फिर से सुधर सकते हैं। भले उतने सद्भाव वाले न हों, जितने शेख हसीना के समय थे, फिर भी कामचलाऊ संबंध बहाल हो सकता है। आखिर मोहम्मद यूनुस अपेक्षाकृत उदार माने जाते हैं और उनकी ससुराल भारत के पश्चिम बंगाल में है। तभी उनसे कुछ बेहतर होने की उम्मीद की जा रही थी। परंतु चार महीने बाद ये उम्मीदें टूटने लगी हैं। पिछले चार महीने में न सिर्फ हिंदुओं का उत्पीड़न बढ़ा है, बल्कि बांग्लादेश की अंतरिम सरकार भारत विरोधी फैसले भी करने लगी है। उसकी घरेलू राजनीति और उसके कूटनीतिक फैसले दोनों से भारत विरोध के संकेत मिल रहे हैं।

उदाहरण के लिए पाकिस्तान को लेकर किए गए अंतरिम सरकार के ताजा फैसले को देखा जा सकता है। मोहम्मद यूनुस की सरकार ने पाकिस्तानी नागरिकों के लिए वीजा के नियमों में ढील दे दी है। पहले किसी पाकिस्तानी नागरिक को बांग्लादेश जाना होता था तो उसको ‘सिक्योरिटी क्लीयरेंस’ लेनी होती थी। यानी सामान्य जांच के साथ साथ ‘सुरक्षा मंजूरी’ जरूरी होती थी। इस नियम को अब हटा दिया गया है। इसका अर्थ है कि अब पाकिस्तानी नागरिक बेरोकटोक ढंग से बांग्लादेश जा सकेंगे। यह फैसला भारत के लिए गंभीर सुरक्षा चुनौती बन सकता है। ध्यान रहे भारत और बांग्लादेश की सीमा पर उस तरह की चौकसी और सुरक्षा नहीं है, जैसी पाकिस्तान या चीन के साथ सीमा पर है। इसका फायदा उठा कर बांग्लादेश पहुंचने वाले पाकिस्तानी नागरिक भारतीय सीमा में घुसपैठ कर सकते हैं।

बांग्लादेश के साथ भारत की चार हजार किलोमीटर लंबी सीमा लगती है और पश्चिम बंगाल के साथ साथ त्रिपुरा, असम, मेघालय और मिजोरम जैसे पांच राज्य बांग्लादेश की सीमा से सटे हुए हैं। शेख हसीना से पहले जब 2001 से 2006 तक बांग्लादेश में खालिदा जिया की बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी की सरकार थी तब इन राज्यों की सीमा पर बांग्लादेश की तरफ पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई की गतिविधियां बहुत होती थीं। इस अवधि में भारत में कई आतंकवादी हमले हुए, जिनकी साजिश बांग्लादेश में रची गई थी। लश्कर ए तैयबा जैसा आतंकवादी संगठन बांग्लादेश से संचालित होता था। खालिदा जिया ने पाकिस्तान के साथ साथ चीन से दोस्ती बढ़ाई थी और चीन से कई सुरक्षा करार किए थे। शेख हसीना ने सरकार में आने के बाद पाकिस्तान के प्रति सख्ती की नीति अपनाई तब आईएसआई की गतिविधियां कम हुईं। अब एक बार फिर बांग्लादेश की अंतरिम सरकार के पाकिस्तान के प्रति नरम नीति अपनाने से सीमा पर आईएसआई की भारत विरोधी गतिविधियां बढ़ सकती हैं। पता नहीं है कि अंतरिम सरकार के मुखिया मोहम्मद यूनुस इस सच्चाई को कैसे नजरअंदाज कर रहे हैं कि पाकिस्तान के हाथों उनके देश के लोगों ने कितने कष्ट झेले हैं। उसी उत्पीड़न से मुक्ति के लिए अलग देश का गठन हुआ और अब देश की सरकार अपने ही हाथों अपनी गर्दन फिर से पाकिस्तान के हाथ में दे रही है। इससे बांग्लादेश की अपनी सुरक्षा के लिए भी खतरा बढ़ेगा।

पाकिस्तान के प्रति नरमी दिखाने के साथ साथ बांग्लादेश की अंतरिम सरकार जमात ए इस्लामी के प्रति भी नरमी रुख दिखा रही है। ध्यान रहे तख्तापलट और शेख हसीना के देश छोड़ने के बाद उनकी पार्टी आवामी लीग हाशिए पर चली गई और अब देश की सत्ता पर कब्जे के लिए असली मुकाबला बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी और जमात ए इस्लामी के बीच है। पहले दोनों पार्टियां साथ भी रही हैं लेकिन अब आमने सामने लड़ रही हैं। अंतरिम सरकार इन दोनों को बढ़ावा दे रही है। मुश्किल यह है कि खालिदा जिया की बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी के साथ भारत कूटनीतिक स्तर पर बातचीत कर सकता है और संबंध सुधार के प्रयास कर सकता है लेकिन जमात ए इस्लामी जैसे कट्टरपंथी धार्मिक संगठन के साथ तो कूटनीतिक वार्ता भी संभव नहीं है। ध्यान रहे इसी संगठन की कट्टरपंथी गतिविधियों की वजह से बांग्लादेश के हिंदुओं पर अत्याचार बढ़ा है। हिंदुओं के घरों पर हमले और लूटपाट की घटनाएं हों या मंदिरों पर हमले का मामला हो, उनके पीछे आमतौर पर इसी कट्टरपंथी संगठन के लोग होते हैं। बांग्लादेश की सरकार उनके ऊपर कार्रवाई करने की बजाय उलटे हिंदू संगठनों को परेशान कर रही है।

बांग्लादेश के चटगांव में कृष्ण भक्तों पर कार्रवाई करके अंतरिम सरकार ने जमात ए इस्लामी की तुष्टिकरण की राजनीति की है। बांग्लादेश की सरकार ने एक आधारहीन मामले में इस्कॉन के धर्मगुरू चिन्मय प्रभु को गिरफ्तार कर लिया। उनके ऊपर आरोप हैं कि उन्होंने हिंदुओं के एक जुलूस का नेतृत्व किया, जिसमें भगवा झंडे लहराए गए। अब सवाल है कि क्या हिंदुओं को अपने ऊपर हो रहे अत्याचार के प्रतिकार के लिए एकजुट होने और प्रदर्शन करने का अधिकार नहीं है? क्या धार्मिक समूह के प्रदर्शन में उस धर्म के प्रतीक झंडे का लहराना कानूनी रूप से गलत है? क्या बांग्लादेश के दूसरे धार्मिक संगठन अपने प्रदर्शन में अपने धर्म का झंडा नहीं लहराते हैं? वास्तविकता यह है कि जमात ए इस्लामी के जुलूस और प्रदर्शनों में भी हमेशा इस्लामी झंडे लहराए जाते हैं लेकिन उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं होती है और न उनको कहा जाता है कि वे राष्ट्रीय झंडा लहराएं। तो क्या यह कानून सिर्फ डेढ़ करोड़ हिंदुओं के लिए ही है? बांग्लादेश की अंतरिम सरकार ने अपने देश की कट्टरपंथी ताकतों के तुष्टिकरण के लिए हिंदुओं पर अत्याचार की ओर से आंखें मूंद ली हैं और उलटे उस अत्याचार का हिस्सा बन गई है।

यही कारण है कि भारत में इसे लेकर तीखी प्रतिक्रिया देखने को मिल रही है। भारत में हिंदू संगठनों ने चार महीने इंतजार किया। उनको लग रहा था कि तख्तापलट के बाद हिंदुओं पर जो हमले शुरू हुए हैं वे तात्कालिक घटनाक्रम की प्रतिक्रिया हैं और धीरे धीरे सब कुछ ठीक हो जाएगा। लेकिन ठीक होने की बजाय स्थितियां बिगड़ती गईं तो भारत में हिंदुओं का धैर्य जवाब दे गया और उन्होंने प्रदर्शन शुरू कर दिया। राजधानी दिल्ली से लेकर मुंबई और कोलकाता से लेकर अगरतला तक प्रदर्शन हुए हैं। इस प्रदर्शन पर बांग्लादेश की बेचैनी इतनी बढ़ गई कि उसने ढाका में भारतीय उच्चायुक्त को तलब कर दिया। ध्यान रहे अगरतला की घटना बांग्लादेश के लिए एक बड़े खतरे का संकेत है। वहां हिंदुओं पर हो रहे अत्याचार के विरूद्ध भारत में गुस्सा बढ़ रहा है। लोग आंदोलित हो रहे हैं। भारत के अलग अलग राज्यों में चाहे जिस पार्टी की सरकार हो, सब इस बात पर एकमत होकर केंद्र सरकार के साथ हैं। तभी अगर बांग्लादेश में हिंदुओं पर अत्याचार नहीं बंद हुआ तो उसे किसी बड़ी कार्रवाई के लिए तैयार रहना होगा। केंद्र में अब ऐसी सरकार नहीं है, जो चुपचाप हिंदुओं पर अत्याचार देखती रहेगी।

बांग्लादेश में हिंदुओं पर अत्याचार और भारत विरोधी घटनाएं तब हो रही हैं, जब मोहम्मद यूनुस के अंतरिम सरकार का मुखिया बनने पर प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने उनको बधाई दी थी। इसका अर्थ था कि भारत ने वहां के बदलाव को स्वीकार किया है। इसके बावजूद बांग्लादेश में हिंदुओं के घरों पर हमले हुए, लूटपाट की गई, कट्टरपंथी भीड़ द्वारा मंदिरों पर हमला किया गया और भारत के राष्ट्रीय ध्वज तिरंगे का अपमान किया गया। तिरंगे का अपमान तो दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की संप्रभुता पर हमला है। भारत या भारत के नागरिक इसे कैसे बरदाश्त कर सकते हैं? यह सब होने के बाद भारत सरकार ने भी निंदा की और देश के अनेक हिस्सों में हिंदुओं ने प्रदर्शन शुरू किए। भारत सरकार न तो हिंदुओं पर हो रहे अत्याचार पर आंख मूंद सकती है और न अपने देश में हो रहे प्रदर्शनों से निरपेक्ष रह सकती है। भारत में हिंदू समूहों के प्रदर्शनों के साथ साथ और भी कई चीजें हो रही हैं। व्यापारी समूह निर्यात रोकने की बात कर रहे हैं तो डॉक्टर बांग्लादेशियों का इलाज करने से मना कर रहे हैं। यहां तक कि अमेरिका ने भी बांग्लादेश में हिंदुओं पर हो रहे अत्याचार का मुद्दा उठाया है। अमेरिका की विदेश विभाग की प्रवक्ता ने हालात को चिंताजनक बताया है और धार्मिक अल्पसंख्यकों यानी हिंदुओं के अधिकारों की रक्षा की बात कही है। हालांकि अमेरिका से इससे बेहतर की उम्मीद है। आखिर मोहम्मद यूनुस को अमेरिका का निर्बाध समर्थन है।

बहरहाल, भारत सरकार ने अभी तक संयम रखा है और स्थितियों को ठीक करने के संभवतः अंतिम प्रयास के तौर पर विदेश सचिव विक्रम मिस्री बांग्लादेश की यात्रा पर जा रहे हैं। सोमवार, नौ दिसंबर से उनकी यात्रा शुरू हो रही है। वे बांग्लादेश के अपने समकक्ष यानी वहां के विदेश मंत्री से मिलेंगे। वे बहुत स्पष्ट शब्दों में नई दिल्ली का संदेश ढाका को देंगे। बांग्लादेश की अंतरिम सरकार को हिंदुओं का उत्पीड़न रूकवाना होगा, हिंसा और लूटपाट बंद करानी होगी, मंदिरों पर हमले रोकने होंगे व राष्ट्रीय ध्वज का अपमान बंद कराना होगा। अगर ऐसा नहीं होता है तो भारत में जनमानस उद्वेलित हो रहा है और तब भारत सरकार कोई बड़ा कदम उठा सकती है।

(लेखक दिल्ली में सिक्किम के मुख्यमंत्री प्रेम सिंह तमांग (गोले) के कैबिनेट मंत्री का दर्जा प्राप्त विशेष कार्यवाहक अधिकारी हैं।)

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