स्वतंत्रता के बाद भारत का एक राजनीतिक वर्ग दशकों से ‘सेकुलरवाद’ के नाम पर उसी इस्लामी कट्टरता को प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से बढ़ावा दे रहा है, जो पहले भी देश का इस्लाम के नाम पर विभाजन कर चुका है। यह राजनीतिक कुनबा वोटबैंक की राजनीति हेतु गाजा-फिलीस्तीन के मुस्लिमों के सहानुभूति तो रखता है, परंतु बांग्लादेशी हिंदुओं के दमन को अंतरराष्ट्रीय मुद्दा बताकर चुप रहता है। ऐसे दोहरे मापदंड रखने वालों को पहचानने की आवश्यकता है.. इन्ही से सर्वाधिक खतरा है।
इसी सप्ताह भारत ने स्वतंत्रता दिवस मनाया। निसंदेह, यह अवसर जश्न मनाने के साथ आत्मचिंतन करने का भी है। वर्ष 1947 में जब हम ब्रितानी दासता की मुक्त हुए, तब इसके कुछ घंटे पहले हमारा मुल्क इस्लाम के नाम पर खंडित हो चुका था। पाकिस्तान के पैरोकार उन कासिम, गोरी, गजनवी, बाबर, औरंगजेब, अब्दाली, टीपू सुल्तान आदि आक्रांताओं में अपना नायक खोजते है, जिन्होंने इस भूखंड की सनातन संस्कृति और उससे प्रेरित सिख गुरु परंपरा को कुचलने का प्रयास किया था। जो एक चौथाई हिस्सा तब हमसे अलग हुआ था, वह 1971 में फिर दो और हिस्सों में बंट गया।
वही विक्षेपित भारतीय भूखंड— पाकिस्तान और बांग्लादेश नाम से जाने जाते है, जिसपर इस्लाम का कब्जा है। वहां सनतान भारत की कालजयी बहुलतावादी, लोकतांत्रिक और पंथनिरपेक्षी जीवनमूल्यों का दम घुट चुका है। इसका प्रमाण बांग्लादेश के हालिया घटनाक्रम में दिख जाता है, जो अपने भीतर खंडित भारत के लिए गंभीर सबक लिए हुए है।
जैसे ही 5 अगस्त को बांग्लादेश के प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा देकर शेख हसीना अपना देश छोड़ने और भारत में शरण लेने को मजबूर हुई, वैसे ही इस इस्लामी देश में महीनों से ‘सत्ता-विरोधी’ और ‘छात्र क्रांति’ के नाम पर चल रहा आंदोलन, अपने असली चरित्र अर्थात् घोर इस्लामी प्रदत्त अल्पसंख्यक— हिंदू-बौद्ध, ईसाई और उदारवादी मुसलमान विरोधी जिहाद में परिवर्तित हो गया। बांग्लादेशी मीडिया के अनुसार, देश के 64 में से 52 जिलों में हिंदुओं लक्षित करते हुए 205 से अधिक हमले हो चुके है। हिंदुओं को चिन्हित करके उनके घर-दुकानों के साथ मंदिरों को फूंका जा रहा है, उनकी बहू-बेटियों की अस्मत से खिलवाड़ किया जा रहा है और उनकी संपत्ति तक लूटी जा रही है।
भारत-बांग्लादेश सीमा पर प्रवेश के लिए पीड़ित हिंदुओं का तांता लगा हुआ है। इससे संबंधित कई वीडियों और तस्वीरें सोशल मीडिया पर वायरल भी है। एक बंगाली मीडिया की रिपोर्ट के अनुसार, बांग्लादेश में कट्टरपंथी संगठन जमात-ए-इस्लामी और हिफाजत-ए-इस्लाम पूरे बांग्लादेश के साथ भारत से सटे क्षेत्रों के साथ नेपाल, म्यांमार के कुछ एक इलाकों को मिलाकर ‘गजवा-ए-हिंद’ अवधारणा के तहत उसपर इस्लामी परचम लहराना चाहते है।
क्या शेख हसीना को उनकी तथाकथित ‘तानाशाही’ और ‘अलोकतांत्रिक’ होने के कारण हटना पड़ा? इस प्रश्न का उत्तर खोजने से पहले बांग्लादेश की आर्थिकी का हाल जान लेते है। शेख हसीना के पिछले 15 साल से अधिक के शासन में बांग्लादेश की अर्थव्यवस्था पूरी तरह बदल गई है। यहां तक कुछ मामलों में उसने भारत को भी पीछे छोड़ दिया है। बांग्लादेश ने विश्व स्तरीय रेडीमेड गारमेंट्स (आरएमजी) उद्योग खड़ा किया है, जो भारत से अधिक निर्यात कर रहा है। बांग्लादेश की प्रति व्यक्ति जीडीपी आय 2600 डॉलर है, जोकि लगभग भारत के बराबर है। कई सामाजिक संकेतकों में बांग्लादेश की स्थिति अच्छी है। फिर भी बांग्लादेश में शेख हसीना के प्रति गहरी घृणा का कारण क्या है, जिसके चलते उन्हें अपनी जान बचाने हेतु देश छोड़कर भागना पड़ा?
सुधी पाठकों को याद होगा कि शेख हसीना के पिता और बांग्लादेश के जनक ‘बंगबंधु’ शेख मुजीबुर रहमान की 15 अगस्त 1975 को उनके परिवार के कई सदस्यों के साथ उनके घर में मौत के घाट उतार दिया गया था। जिन कारणों से उनकी हत्या की गई थी, उन्हीं कारकों ने शेख हसीना को बांग्लादेश से भागने पर विवश किया है। अपने पिता की भांति हसीना भारत के साथ अच्छे संबंध रखने के पक्षधर रही हैं, जिसे जिहादी सहित इस्लामी कट्टरपंथी ‘काफिर’ मानते है। वर्ष 1971 के ‘बांग्लादेश मुक्ति युद्ध’ के दौरान पाकिस्तानी सेना और जिहादी रजाकारों ने स्थानीय हिंदू-बौद्ध समुदाय का नरसंहार करते हुए उनकी लाखों महिलाओं के साथ बलात्कार किया था। वैसा मजहबी नरसंहार बांग्लादेश में दोबारा न दोहराया जाए, उसके लिए शेख मुजीबुर रहमान ने हिंदू-बौद्ध अनुयायियों को ‘काफिर’ मानने से इनकार कर दिया। पिता की तरह शेख हसीना भी अपने कार्यकाल में ऐसा ही करने की कोशिश कर रही थी, जो जिहादियों को मुजीबुर के समय भी नागवार गुजरा था और उन्हें ऐसा आज भी मंजूर नहीं है।
सच तो यह है कि अविभाजित भारत में जिन शक्तियों— ब्रितानियों, वामपंथियों और जिहादियों के गैर-मुकद्दस गठजोड़ ने पाकिस्तान का खाका खींचा, उसने ही शेख मुजीबुर रहमान को रास्ते से हमेशा के लिए हटा दिया और उनकी बेटी शेख हसीना को देश निकाला कर दिया। इसमें फर्क केवल इतना है कि औपनिवेशी के रूप में ब्रितानियों का स्थान अमेरिका ने ले लिया है। शेख हसीना का आरोप है कि अमेरिका रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण सेंट मार्टिन द्वीप पर कब्जा चाह रहा है, ताकि वह हिंद महासागर में वह अपना प्रभुत्व स्थापित कर सके। इससे पहले उन्होंने, बतौर बांग्लादेशी प्रधानमंत्री, दावा किया था कि बांग्लादेश और म्यांमार के कुछ हिस्सों को काटकर पूर्वी तिमोर जैसा एक ईसाई देश बनाने की साजिश चल रही है।
यह ठीक है कि अपने 20 वर्षों के शासनकाल में शेख हसीना हिंदू सहित अन्य बांग्लादेशी अल्पसंख्यकों की सुरक्षा हेतु प्रतिबद्ध रहीं, परंतु वह दो नांवों में एक साथ सवार होने की कोशिश कर रही थी। वह इस्लामी बांग्लादेश में उदार व्यवस्था तो बना रही थी, साथ ही ‘हिफाजत-ए-इस्लाम’ जैसे कट्टरपंथी मुस्लिम संगठन को अधिक से अधिक मदरसे बनाने के लिए ज़मीन और अनुदान भी दे रही थी। उन्होंने ‘मदीना सनद’ के मुताबिक शासन चलाने और मदरसों से मिलने वाली डिग्रियों को सामान्य विश्वविद्यालयों की डिग्रियों के बराबर का दर्जा देने का ऐलान तक कर दिया था। कड़वा सच तो यह है कि गद्दी पर बने रहने के लिए शेख हसीना ने जिस इस्लामी कट्टरपंथ को संरक्षण दिया, उसने ही उन्हें अपदस्थ कर दिया।
स्वतंत्रता के बाद भारत का एक राजनीतिक वर्ग दशकों से ‘सेकुलरवाद’ के नाम पर उसी इस्लामी कट्टरता को प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से बढ़ावा दे रहा है, जो पहले भी देश का इस्लाम के नाम पर विभाजन कर चुका है। यह राजनीतिक कुनबा वोटबैंक की राजनीति हेतु गाजा-फिलीस्तीन के मुस्लिमों के सहानुभूति तो रखता है, परंतु बांग्लादेशी हिंदुओं के दमन को अंतरराष्ट्रीय मुद्दा बताकर चुप रहता है। ऐसे दोहरे मापदंड रखने वालों को पहचानने की आवश्यकता है, जिनसे भारत की स्वतंत्रता, संप्रभुता, सुरक्षा और उसके सांस्कृतिक अस्तित्व को सर्वाधिक खतरा है।