साधु सन्यासियों को राजनीति से दूर इसलिए रहना चाहिए क्योंकि राजनीति वह काल कोठरी है जिसमें, ‘कैसो ही सयानों जाए – काजल का दाग भाई लागे रे लागे’ नियति है। बाबा रामदेव ने अपने आंदोलन की शुरुआत भ्रष्टाचार और काले धन के विरुद्ध की थी लेकिन वे एक ही राजनैतिक दल से जुड़ कर अपनी निष्पक्षता खो बैठे है। इसलिए भी वे आलोचना के शिकार बने है।
सन् 1989 में जब मैंने वीडियो समाचार कैसेट ‘कालचक्र’ जारी की तो उसमें एक स्लॉट भ्रामक विज्ञापनों को कटघरे में खड़े करने वाला था। उस दौर में इन कमर्शियल विज्ञापनों की विश्वसनीयता पर सवाल उठाने का प्रचलन नहीं था। पर कुछ जागरूक नागरिकों को इस मामले में बड़ी कामयाबी तब मिली जब उन्होंने सिगरेट बनाने वाली कंपनियों को मजबूर किया कि वो सिगरेट की डिब्बी पर ‘सिगरेट पीना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक छापे।’
उन दिनों ज़्यादातर विज्ञापन प्रिंट मीडिया में छपते थे और मीडिया कोई भी हो बिना विज्ञापनों की मदद के चल नहीं पाता। इसलिए मीडिया में भ्रामक विज्ञापनों के विरुद्ध प्रश्न खड़े करने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता। लेकिन उस समय हमनें जिन विज्ञापनों पर सीधा लेकिन तथ्यात्मक हमला किया उसकी कुछ रिपोर्ट्स थीं, ‘नमक में आयोडीन का धंधा’, ‘नूडल्स खाने के ख़तरे’, ‘झागदार डिटर्जेंट का कमाल’, ‘प्यारी मारुति – बेचारी मारुति’ आदि। हमारी नीति थी कि हम जनहित में ऐसे विज्ञापन बना कर प्रसारित करें जिनमें किसी कंपनी के ब्रांड का प्रमोशन न हो बल्कि ऐसी वस्तुओं का प्रचार हो जो आम जनता के लिए उपयोगी हैं। उदाहरण के तौर पर हमने एक विज्ञापन की स्क्रिप्ट लिखी, ‘भुना चना खाइए – सेहत बनाइए। हर गली मोहल्ले में मिलता है, भुना चना – टनटना’।
इस घटनाक्रम का बाबा रामदेव के मौजूदा विवाद के संदर्भ में उल्लेख करना इसलिए ज़रूरी है ताकि यह रेखांकित हो कि देश में झूठे दावों पर आधारित भ्रामक विज्ञापनों की शुरू से भरमार रही है। जिन्हें न तो मीडिया ने कभी चुनौती दी और न ही कार्यपालिका, न्यायपालिका या विधायिका ने। बाबा रामदेव के समर्थन में सोशल मीडिया पर कुछ लोगों ने ऐसे विज्ञापनों की सूची प्रसारित की है जिनके दावे भ्रामक हैं। जैसे त्वचा का रंग साफ़ करने वाली क्रीम या फलों के रसों के नाम पर बिकने वाले रासायनिक पेय या सॉफ्ट ड्रिंक पी कर बलशाली बनने का दावा या बच्चों के स्वास्थ्य को पोषित करने वाले बाल आहार, आदि।
इस लेख का उद्देश्य बाबा रामदेव और आचार्य बालाकृष्ण के उन दावों का समर्थन करना नहीं है जो सर्वोच्च न्यायालय में विचाराधीन हैं। न ही ऐसे भ्रामक दावों के लिए बाबा रामदेव और आचार्य बालकृष्ण को कटघरे में खड़ा करना है। इसलिए नहीं कि इन दोनों से मेरे आत्मीय संबंध हैं बल्कि इसलिए कि ऐसी गलती देश की तमाम बड़ी-बड़ी कंपनियाँ अपने उत्पादनों को लेकर दशकों से करती आई हैं। तो फिर पतंजलि को ही कटघरे में खड़ा क्यों किया जाए? एक ही जैसे अपराध को नापने के दो अलग मापदंड कैसे हो सकते हैं?
बावजूद इसकेमैं बाबा रामदेव के सार्वजनिक जीवन के उन पक्षों को रेखांकित करना चाहता हूँ जिनके कारण, वे विवादों में घिरे हैं। पहला कारण उनका संन्यासी भेष में हो कर व्यापार करना है। हालांकि इन दिनों यह काम सदगुरु, श्री श्री रवि शंकर, इस्कॉन व स्वामी नारायण जैसे अनेकों धार्मिक संगठन भी कर रहे हैं, जो धर्म की आड़ में व्यापारिक गतिविधियोँ में लिप्त है।
चूँकि बाबा रामदेव ने योग और भारतीय संस्कृति के बैनर तले अपनी सार्वजनिक यात्रा शुरू की थी और आज उनका पतंजलि संस्थानसाबुन, शैम्पू, बिस्कुट, कॉर्नफ्लेक्स जैसे तमाम आधुनिक उत्पाद बना कर बेच रहा है, जिनका योग और वैदिक संस्कृति से कोई लेना देना नहीं है। इसलिए यदि बाबा रामदेव की व्यापारिक गतिविधियां बहुत छोटे स्तर पर सीमित रहतीं तो वे किसी की आँख में न खटकते। पर उनका आर्थिक साम्राज्य दिन दुगुनी और रात चौगुनी गति से बढ़ा है। इसलिए वे ज़्यादा निगाह में आ गये हैं।
साधु सन्यासियों को राजनीति से दूर इसलिए रहना चाहिए क्योंकि राजनीति वह काल कोठरी है जिसमें, ‘कैसो ही सयानों जाए – काजल का दाग भाई लागे रे लागे’ नियति है। बाबा रामदेव ने अपने आंदोलन की शुरुआत भ्रष्टाचार और काले धन के विरुद्ध की थी लेकिन वे एक ही राजनैतिक दल से जुड़ कर अपनी निष्पक्षता खो बैठे है। इसलिए भी वे आलोचना के शिकार बने है।
आंदोलन की शुरुआत में बाबा ने अपने साथ देश के तमाम सामाजिक कार्यकर्ताओं को जोड़ा था। इससे उनकी विश्वसनीयता बढ़ी तो जनता का उन पर विश्वास भी बढ़ा। पर केंद्र में अपने चहेते दल के सत्ता में आने के बाद बाबा उन सारे मुद्दों और अपनी क्रांतिकारिता को भूल गए। शुद्ध व्यापार में जुट गये। इससे उनका व्यापक वैचारिक आधार समाप्त हो गया।
अगर वे ऐसा न करते और धन कमाने के साथ जनहित के लिए चलाए जा रहे आंदोलनों और प्रकल्पों को उनकी आवश्यकता अनुसार थोड़ी-थोड़ी आर्थिक मदद करते रहते तो उनका जनाधार बना रहता और योग्य व जुझारू समर्थकों की फ़ौज भी उनके साथ खड़ी रहती। जहां तक बाबा की आर्थिक गतिविधियों से संबंधित विवाद हैं या उनके उत्पादों की गुणवत्ता से संबंधित सवाल हैं उन पर मैं यहाँ टिप्पणी नहीं कर रहा हूँ। मुझे लगता है कि आयु, क्षमता और ऊर्जा को देखते हुए बाबा रामदेव में देश का भला करने की आज भी असीम संभावनाएँ हैं बेशर्ते वे अपने तौर-तरीक़ों में वांछित बदलाव ला सकें।
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