राजनीति की सीढ़ी चढ़ने के लिए शायद राजनीति में अनुभव होना कोई ज़रूरी नहीं पर अगर विरोधियों की नकेल कसने में अनुभव है तो राजनीति की सीढ़ी आप कब चढ़ जाएँ पता ही नहीं चलेगा। नई दिल्ली से सांसद बनी बांसुरी स्वाराज के साथ तो कम से कम ऐसा ही गुजरा। बांसुरी को लगाया तो गया था सुप्रीम कोर्ट में हरियाणा की नुमाइंदगी करने के लिए पर चंद दिनों में ही जब वे दिल्ली में केजरीवाल सरकार के पीछे हाथ धोकर पीछे पडीं तो राजनीति का रास्ता ऐसा खुला कि वे ठसक के साथ संसद में नई दिल्ली की नुमाइंदगी करने लगीं। वो भी सत्ता में केजरीवाल की आप पार्टी के सोमनाथ को 78000 वोटों से हरा कर। यह अलग बात है कि बांसुरी को राजनीति के गुर विरासत में अपनी माँ और भाजपा की वरिष्ठ नेता रहीं सुषमा स्वाराज से मिले पर थोड़े समय में ही जिस तरह बांसुरी ने केजरीवाल एंड पार्टी को अदालत में धोया उससे बनी पहचान ने उन्हें नई दिल्ली से पहले नंबर पर टिकट का दावेदार बना दिया।
अब भला संसद में वे कितनी बेहतर तरीक़े से नई दिल्ली की नुमाइंदगी करती पाती हैं पर फिलाहल तो तेवर ऐसे दिखे नहीं हैं। हाँ यह ज़रूर है कि संसद में पहुँचने वाले नुमाइंदों में वे शिक्षा में तो अब्बा रही ही हैं। वारविक यूनिवर्सिटी से इंगलिश में बेचलर डिग्री के अलावा लंदन से क़ानून की डिग्री हासिल कर राजनीति में उतरी बांसुरी के सामने अब माँ की विरासत पर खरा उतरना चुनौती है। भला वे क्या रंग दिखा पाती हैं संसद में, इंतज़ार की बात है। पर यह भी है कि जिन दावेदारों को टिकट नहीं मिल सकी वे तो बांसुरी को नेताओं में ही शुमार मानते हैं। ऐसे ही नेता पैराशूट से उतर कर कर्मठ और अनुभवी कार्यकर्ताओं के हक़ को छीन लेते हैं।
हरियाणा में शुरू हुई नूरा कुश्ती
हरियाणा में चुनावों की दस्तक हुई तो कांग्रेस और भाजपा में नूरा कुश्ती भी शुरू हो गई। एक पार्टी के नेता संविखुद को बनियां का बेटा बताता है तो दूसरा हरियाणा का बेटा। दोनों एक-दूसरे से सत्ता में रहने का हिसाब किताब माँगने को बेताब हैं पर दोनों पार्टियों में नेता न हिसाब दे पाता है और न दूसरा ले पाता है और चुनाव निपट जाता पूरे पाँच साल तक। इस बार हिसाब माँगने वाले हैं ग्रहमंत्री और भाजपा के वरिष्ठ नेता अमित शाह और हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री भूपेन्द्र सिंह हुड्डा । यह अलग बात है कि एक दशक पहले नरेंद्र मोदी ने भी हुड्डा से हिसाब माँगा था पर यह इच्छा अधर में ही रह गई। और बारी फिर आ गई हिसाब माँगने की। हरियाणा के पाली में केंद्रीय यूनिवर्सिटी में हुए पिछड़े वर्ग के सेमिनार में अपने अमित शाह खूब दहाड़े। पहले तो कांग्रेस नेता हुड्डा के पिछले दिनों भाजपा सरकारें से कामों का हिसाब माँगने का ज़िक्र किया और फिर बोले हिसाब वो क्या हम माँगेंगे,बनिया का बेटा हूँ। हिसाब तो मैं माँगूँगा कांग्रेस के हुड्डा से उसके दस साल के शासन का। इससे पहले भी शाह ने लोकसभा चुनावों के दौरान हुड्डा को आड़े हाथों लिया था और उन पर राजनीतिक हमले किए ही थे। पर तब हुड्डा ने यह कहकर शाह की गर्मी दूर कर दी थी कि शाह उनके अच्छे दोस्त हैं।अब शाह इतने जोश में कोई यूँ ही नहीं आए। वे जानते हैं कि हुड्डा की कई मामलों में सीबीआई जाँच चल रही है। और फिर इससे पहले हुड्डा ने भी भाजपा पर ऐसे ही तंज कसे थे। या यूँ मानिए कि दोनों नेता चुनावों के चलते एक-दूसरे को गरियाते रहे हैं पर मतलब कुछ भी नहीं। अब अगर हरियाणा के लोग ही यह कहें कि पहले भी ऐसा ही खेल मोदी ने भी खेला था तब वे प्रधानमंत्री नहीं थे। तो झूठ सभी क्या। मोदी ने कहा था कि हुड्डा की सत्ता में रॉबर्ट वाड्रा का ख़ज़ाना तेज़ी से बढ़ रहा है। और हमारी सरकार आती है तो हिसाब लिया जाएगा । केन्द्र और हरियाणा में भाजपा की सरकार आ भी गई पर मोदी के गीत अधूरे ही रह गए। अब विधानसभा चुनावों हैं तो नूरा कुश्ती फिर शुरू हो ली। अब भला कोई माने या न माने पर हरियाणा में भाजपा की हालत बहुत अच्छी तो है नहीं। बार बार सीएम बदलना भी कोई अच्छी बात होती नहीं ।लोगों को सरकार पलटती भी दिख रही है। नूरा कुश्ती के इस खेल में कौन जीतता है और कौन जाता है हार यह तो इंतज़ार की बात रही पर खबर तो यह भी है कि जल्दी ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी इस नूरा कुश्ती में हिस्सा ले सकते हैं।
संसद की दहलीज़ पर ये भी
संविधान में क़तई आस्था नहीं पर फिर भी संविधान के नाम पर शपथ लेने वाले नेता को आप क्या कहेंगे? और क्या रखेंगे उम्मीद। यह सवाल 2024 के लोकसभा चुनावों ने आम जनता के मंथन के लिए इस बार छोड़ा है। लेकिन जनता ने ही इन नेता को जनता का प्रतिनिधित्व करने के लिए संसद तक पहुँचाया है। वो भी क़रीब दो लाख वोटों से जिताकर।पंजाब में यह जीत सबसे ज़्यादा वोटों से जीतने वाली बताई गई है। अमृतपाल सिंह संधू पंजाब के खंडूर साहिब से इन चुनावों में निर्दलीय जीते हैं। कई अपराधिक मामलों में शामिल होने के आरोपों में शामिल संधू एनएसए के तहत फिलाहल डिब्रूगढ़ जेल में हैं। भला ये नेताजी कब से जनता का प्रतिनिधित्व करने संसद में पहुँचते हैं यह तो बाद की बात है लेकिन अपराधिक नज़ाकत को देखते हुए सरकार ने उनकी सजा एक साल बढ़ा दी बताई जा रही है। अब भला कोई यह कहे कि नेता बनने या फिर चुनाव लड़ने का न तो कोई मुहूर्त होता है और न ही कोई उम्र, तो अमृतपाल सिंह इसका ताज़ा उदाहरण माना जा सकता है। पंजाब क्या दिल्ली के लोग भी कहते हैं कि अगर कोई भिंडरावाले को भूल चुका हो तो अमृतपाल को देखकर याद ताज़ा हो सकती है। उसी तरह की पोशाक ,वैसा ही रोबीला चेहरा और उसी तरह का एक्शन खड़े होने का,म्यान से तलवार खींचते हुए उसकी फ़ोटो को देख कोई भी भ्रमित हो सकता है। चर्चा तो ऐसी भी है कि कोई नहीं जानता था कि जेल में बंद अमृतपाल चुनाव लड़ने की मंशा रखता होगा या फिर चुनाव की कोई तैयारी पहले की होगी।सब कुछ अचानक,।अमृतपाल ऐसा चेहरा रहा जिसका राजनीति से दू-दूर तक कई वास्ता नहीं और न ही कोई इतिहास फिर भी पहला चुनाव वो पहलीबार में ही जीत गया वो पंजाब में सबसे ज़्यादा वोटों से। भला अब आप उसे अपराधियों की क़तार में में भले मानते रहें पर याद रखिए अमृतपाल दुनियाँ के सबसे बड़े लोकतंत्र का चुनाव जीत जनप्रतिनिधि बना है।