एक समय सशस्त्र विद्रोह से जुड़े दिसानायके ने संघर्ष और अपनी बात पर कायम रहने की अपनी साख के कारण लोगों के मन में जगह बनाई। चुनाव से पहले 22 संगठनों के साथ मिल कर उन्होंने नेशनल पीपुल्स पॉवर (एनपीपी) नाम का मोर्चा बनाया।… श्रीलंका के मतदाताओं के एक बड़े हिस्से ने मूलभूत परिवर्तन की अरागलया की भावना के अनुरूप मतदान किया है। उन्होंने हार्ड लेफ्ट विकल्प से नई सुबह की अपनी आशा का इज़हार किया है।
श्रीलंका में अनूरा कुमार दिसानायके का राष्ट्रपति बनना एक असाधारण घटना है। पिछले चार दशकों से देश अलगाववाद और उग्र राष्ट्रवाद के मकड़जाल में फंसा हुआ था। इस दौरान रोजी-रोटी के प्रश्न कभी राजनीतिक विमर्श के केंद्र में नहीं आए। सरकारें मनमानी आर्थिक नीतियों पर अमल करती रहीं। नतीजा 2021-22 का घोर आर्थिक संकट था, जिसके परिणामस्वरूप आजादी के 73 वर्षों के इतिहास में पहली बार श्रीलंका ने अंतरराष्ट्रीय कर्ज पर डिफॉल्ट किया।
2022 में ऐतिहासिक अरागलया (जन विद्रोह) के कारण तत्कालीन राष्ट्रपति गोटबया राजपक्षे को अफरातफरी में इस्तीफा देकर देश छोड़ कर भागना पड़ा। अरागलया का संदेश था देश की रीति-नीति में मूलभूत बदलाव हो। लेकिन शासक तबकों ने परदे के पीछे से सियासत को मैनेज करने में फिर कामयाबी पा ली। जिस राजपक्षे परिवार के खिलाफ जन विद्रोह भड़का था, उसकी की पसंद के मुताबिक आपातकालीन प्रावधान के तहत संसद के जरिए नए राष्ट्रपति का चुनाव कर लिया गया।
राष्ट्रपति बने रानिल विक्रमसिंघे की यूनाइडेट नेशनल पार्टी (यूएनपी) को 2019 के संसदीय चुनाव में सिर्फ एक सीट मिली थी। विक्रमसिंघे खुद पहले दो बार राष्ट्रपति चुनाव में अपनी ताकत आजमा चुके थे और हार पराजय का मुंह देखा था। लेकिन पॉलिटकल मैनुपुलेटर्स ने उन्हें देश का नया राष्ट्रपति बना दिया।
विक्रमसिंघे से ना किसी नई शुरुआत की उम्मीद थी, ना ही उन्होंने इस दिशा में कोई पहल की। आर्थिक संकट से निकलने का घिसा-पिटा रास्ता अपनाते हुए वे अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की पनाह में चले गए। मार्च 2023 में कर्ज संकट से निपटने के लिए आईएमएफ तीन बिलियन डॉलर का ऋण देने को राजी हुआ। 33 करोड़ डॉलर की पहली किस्त तुरंत भेज दी गई। इस बीच आश्वासन मिला कि विश्व बैंक, एशियन डेवलपमेंट बैंक, आदि जैसे अन्य कर्जदाता श्रीलंका को 3.75 बिलियन डॉलर का और ऋण देंगे।
लेकिन जैसाकि चलन है, आईएमएफ ने नया कर्ज देने के बदल सख्त शर्तें लगाईं। उन शर्तों का अक्षरशः पालन करते हुए विक्रमसिंघे ने सरकार ने,
पेंशन में बड़ी कटौती की
आय कर में 36 प्रतिशत इजाफा किया गया
खाद्य एवं ऊर्जा सब्सिडी खत्म कर दी गई
बिजली शुल्क में 65 प्रतिशत बढ़ोतरी की गई
विक्रमसिंघे सरकार श्रीलंकन एयरलाइन, श्रीलंका बीमा निगम, और श्रीलंका टेलकॉम का निजीकरण करने पर भी राजी हुई थी। विक्रमसिंघे ने इस चुनाव के बाद इस पर अमल करने का वादा किया हुआ था।
विक्रमसिंघे सरकार इन फैसलों का क्या असर हुआ, ध्यान दीजिएः
विश्व खाद्य कार्यक्रम (एफपीओ) के मुताबिक 80 लाख श्रीलंकाई- यानी एक तिहाई से ज्यादा आबादी- आज खाद्य असुरक्षा की शिकार है। खास कर ग्रामीण इलाकों में भुखमरी व्यापक रूप से फैली हुई है।
आधा से ज्यादा आबादी अपनी आमदनी का 70 प्रतिशत से ज्यादा हिस्सा भोजन पर खर्च करने के लिए मजबूर है।
थिंक टैंक वेरिटे रिसर्च के मुताबिक हजारों मध्य वर्गीय परिवार गरीबी रेखा के नीचे चले गए हैं।
विश्व बैंक का अनुमान है कि अगले अनेक वर्षों तक गरीबी की दर 25 प्रतिशत से ऊपर बनी रहेगी।
2022 में तीन लाख से अधिक श्रीलंकाई देश छोड़ कर चले गए। उनमें डॉक्टर और आईटी प्रोफेशनल्स जैसे कुशल कर्मियों की बड़ी संख्या थी।
वर्ल्ड इनक्वैलिटी लैब के मुताबिक श्रीलंका में टॉप 10 प्रतिशत आबादी 42 फीसदी आय अपने हिस्से में बटोर लेती है, जबकि देश के 64 प्रतिशत धन पर उसका कब्जा है। निचली 50 प्रतिशत आबादी के हाथ में सिर्फ 17 प्रतिशत आमदनी जाती है और सिर्फ चार प्रतिशत निजी धन उसके हिस्से में है।
टॉप दस प्रतिशत लोगों पर संकट और आईएमएफ की शर्तों का कोई असर नहीं पड़ा है। इस दौर में भी उनकी संपत्ति बढ़ी है। यानी मार सिर्फ निम्न और मध्य वर्ग पर पड़ी है।
क्या इसमें कोई हैरत है कि श्रीलंका में लगातार विरोध प्रदर्शन होते रहे हैं, जिनके प्रति विक्रमसिंघे सरकार ने सख्त रवैया अपनाए रखा है। इन प्रदर्शनों में जनता विमुक्ति पेरामुना (जेवीपी) की लगातार सक्रियता रही है। अन्य संगठनों के साथ मिल कर जेवीपी ने आईएमएफ की शर्तों के खिलाफ निरंतर प्रतिरोध जताया है। एकेडी नाम से चर्चित जेवीपी नेता अनूरा कुमार दिसानायके ने चुनाव से पहले वादा किया कि वे सत्ता में आए, तो आईएमएफ से ऋण समझौते पर नए सिरे बातचीत करेंगे। विक्रमसिंघे ने इस वादे का विरोध किया, जबकि विपक्षी दल एसजेबी के नेता सजिता प्रेमदासा इस पर चुप्पी साधे रहे।
ताजा चुनाव नतीजों की पृष्ठभूमि इसी परिस्थिति से बनी। यह पहलू राष्ट्रपति चुनाव में निर्णायक साबित हुआ है। इसके अलावा एकेडी के लंबे राजनीतिक करियर ने उन्हें वह साख प्रदान किया, जिसकी वजह से वे दुर्दशा-ग्रस्त लोगों की उम्मीद बन कर उभरे हैं।
एक समय सशस्त्र विद्रोह से जुड़े दिसानायके ने संघर्ष और अपनी बात पर कायम रहने की अपनी साख के कारण लोगों के मन में जगह बनाई। चुनाव से पहले 22 संगठनों के साथ मिल कर उन्होंने नेशनल पीपुल्स पॉवर (एनपीपी) नाम का मोर्चा बनाया। एनपीपी के उम्मीदवार के बतौर ऐतिहासिक और एक हद तक आश्चर्यजनक जीत हासिल कर दिसानायके अब श्रीलंका के राष्ट्रपति बन चुके हैं।
इसके पहले की बात आगे बढ़ाएं, दिशानायके के राजनीतिक करियर पर एक नज़र डाल लेना उचित होगाः
- 56 वर्षीय दिशानायके का जन्म एक दिहाड़ी मजदूर परिवार में हुआ था। गरीबी में जीने के बावजूद उनके पिता ने अपने बेटे की शिक्षा में पूरा जोर लगाया। वे अपने इलाके के पहले नौजवान बने, जिन्होंने यूनिवर्सिटी डिग्री हासिल की। उन्होंने ये डिग्री भौतिक शास्त्र में ली।
- दिशानायके के बारे में चर्चित है कि आज भी वे धाराप्रवाह अंग्रेजी नहीं बोल पाते हैं। वे सारा संवाद अपनी मातृभाषा भाषा सिंहली में करते हैं।
- छात्र जीवन के दौरान ही दिसानायके राजनीति में सक्रिय हुए। वे मार्क्सवादी विचारधारा से प्रभावित हुए और माओवादी लाइन से करियर की शुरुआत की।
- 1987-89 में जेवीपी ने तत्कालीन राष्ट्रपतियों जेआर जयवर्धने और आर प्रेमदासा की “साम्राज्यवादी एवं पूंजीवादी” सरकारों के खिलाफ सशस्त्र विद्रोह छेड़ दिया था। दिशानायके ने इसमें भागीदारी की।
- लेकिन 1990 के दशक में जेवीपी ने खुद को ओवरग्राउंड पार्टी बनाया। 1994 के चुनाव में जेवीपी ने पहली बार भाग लिया।
- यह पहलू ध्यान में रखना चाहिए कि सोवियत संघ के विघटन और चीन के रास्ता बदल लेने से दुनिया भर के कम्युनिस्ट आंदोलन का मनोबल गिरा था। परिणामस्वरूप राजनीतिक पार्टियां भटकाव का शिकार हुईं। जेवीपी ने आगे जो दिशा पकड़ी, उसे इस व्यापक परिघटना से अलग करके नहीं समझा जा सकता।
- 1990 के दशक से जेवीपी राजनीति में हाशिये की ताकत थी। कभी उसे सत्ता के दावेदारों में नहीं गिना गया। लेकिन 2022 के अरागलया ने सारी कहानी पलट दी। अरागलया ऐसी परिघटना का सूत्रधार बना, जिसने पारंपरिक दलों को ठिकाने लगा दिया है, जबकि एनपीपी के हाथ में देश की सत्ता आ गई है।
एकेडी अपने वादों पर कितना अमल कर पाएंगे, यह कई शर्तों से तय होगा। एकेडी ने सत्ता संभालते ही निर्वाचन आयोग को संसदीय चुनाव की तैयारी करने के लिए सूचित कर दिया है। उनका पहले से वादा है कि वे राष्ट्रपति के विशेष अधिकार का इस्तेमाल कर वर्तमान संसद को भंग नया चुनाव कराएंगे। वैसे उनका वादा तो देश में राष्ट्रपति प्रणाली खत्म कर वापस संसदीय व्यवस्था की तरफ लौटने का है, जो 1977 तक श्रीलंका लागू थी।
मगर यह सब वे तभी कर पाएंगे, अगर संसदीय चुनाव में एनपीपी को पर्याप्त समर्थन मिलता है। ऐसा नहीं हुआ, तो उनके लिए देश की रीति-नीति में बदलाव का कोई वादा पूरा करना कठिन हो जाएगा। उस स्थिति में उनकी हैसियत एक ‘लेम-डक’ (लंगड़े बत्तक यानी विकलांग) राष्ट्रपति की बन जाएगी। संसदीय चुनाव में समर्थन मिलने के बाद भी न्यायपालिका जैसी चुनौतियां उनके सामने होंगी। दुनिया भर में चुनावी लोकतंत्र वाले देशों का अनुभव है कि न्यायपालिका किसी जनपक्षीय और प्रगतिशील कदम के रास्ते में एक बड़ी रुकावट के रूप में सामने आती है।
इस लिहाज से श्रीलंका की कहानी बाकी दुनिया से अलग नहीं है। आज चुनावी लोकतंत्र वाले तमाम देशों की मुख्य परिघटना यह है कि सत्ता पर कॉरपोरेट कंट्रोल मजबूत हो गया है, जिसके बीच सरकारें विभिन्न हितों के बीच तालमेल बनाने वाली स्वायत्त इकाई रहने के बजाय कॉरपोरेट हितों का उपकरण बन गई हैं। इस संदर्भ में पारंपरिक सेंटर-लेफ्ट और सेंटर-राइट राजनीति कोई अलग विकल्प देने में अक्षम हो गई है। नतीजा यह है कि आप वोट किसी दें, सत्ता में कोई पार्टी आए, बुनियादी नीतियां नहीं बदलतीं।
फ्रांस जैसे देश में इसका हाल में अनुभव हुआ, जब मतदाताओं का सबसे ज्यादा समर्थन वास्तविक लेफ्ट विकल्प को मिला। मगर उसके बाद मध्य मार्गी, दक्षिणपंथी और धुर-दक्षिणपंथी पार्टियों ने लेफ्ट को रोकने के लिए आपस में हाथ मिला लिया। राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों ने चुनाव में चौथे नंबर पर रही एक दक्षिणपंथी पार्टी के नेता को प्रधानमंत्री नियुक्त कर दिया। उसके बाद से फ्रांस में हुए विशाल प्रदर्शनों में लोग प्लेकार्ड लिए दिखे हैं, जिन पर लिखा रहा है- हमारा वोट अप्रसांगिक हो गया है।
ये जो फ्रांस की कहानी है, वही लगभग तमाम चुनावी लोकतंत्र वाले देशों की कथा है। इसीलिए आज की एक परिघटना पारंपरिक विकल्पहीन दलों से लोगों का मोहभंग है। इस कारण धुर दक्षिणपंथ और हार्ड लेफ्ट के लिए समर्थन बढ़ना एक परिघटना के रूप में स्थापित हो गया है। इसकी सबसे ताजा मिसाल जर्मनी है, जहां तीन राज्यों के चुनाव में धुर दक्षिणपंथी ऑल्टरनेटिव फॉर ड्यूशलैंड (एएफडी) पार्टी को अभूतपूर्व समर्थन मिला। वहीं नई उभरी लेफ्ट नेता सारा वागेनक्नेष्ट के एलायंस ने हर जगर तीसरा स्थान पाकर पारंपरिक लेफ्ट को हाशिये पर धकेल दिया। यह कुल मिलाकर राज्य-व्यवस्थाओं में चौड़ी होती सियासी दरार का संकेत है।
यह जो वैश्विक परिघटना है, श्रीलंका की स्थिति को उससे अलग करके नहीं समझा जा सकता। जिस तरह बाकी जगहों पर लोग विकल्पहीन पारंपरिक राजनीति को ठोकर मार रहे हैं, वैसा ही श्रीलंका में भी हुआ है। यहां उनके सामने फ्रांस की तरह हार्ड लेफ्ट विकल्प था, जिसे उन्होंने अपनाया है। यह जितना लेफ्ट एजेंडे के लिए सकारात्मक समर्थन है, उतना ही पारंपरिक विकल्पहीन राजनीति के खिलाफ लोगों का विद्रोह है। फिलहाल एकेडी इस विद्रोह का प्रतीक बन कर उभरे हैं।
यह तो जग-जाहिर है कि अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष जैसी संस्थाओं से हो चुके करार की शर्तों को फिर से तय कराना कोई आसान लक्ष्य नहीं है। संभवतः आज तक किसी देश की कोई पार्टी या नेता इस कार्य को संपन्न नहीं कर पाया है। ग्रीस के सिरिजा का उदाहरण दुनिया के सामने है। एनपीपी तो फिर एक 22 दलों और संगठनों का ऐसा गठबंधन है, जिसमें सभी की विचारधारा एक जैसी नहीं है। सिरिजा एक लेफ्ट विकल्प के रूप में उभरा था। ग्रीस के मतदाताओं ने उसे सत्ता सौंपी। लेकिन आईएमएफ- यूरोपीयन सेंट्रल बैंक- यूरोपियन कमीशन की त्रिमूर्ति के आगे सिरिजा सरकार ने हथियार डाल दिए। फिर श्रीलंका में तो अभी यह भी साफ नहीं है कि एनपीपी की संसदीय हैसियत क्या होगी।
बहरहाल, ताजा घटनाक्रम का सार उसके सामने मौजूद चुनौतियां या यह सवाल नहीं है कि एकेडी कितना कुछ हासिल कर पाएंगे। इस घटनाक्रम का सार यह है कि श्रीलंका के मतदाताओं के एक बड़े हिस्से ने मूलभूत परिवर्तन की अरागलया की भावना के अनुरूप मतदान किया है। इस क्रम में उन्होंने शासक वर्ग की प्रतिनिधि पार्टियों को ठोकर मारी है। उन्होंने हार्ड लेफ्ट विकल्प से नई सुबह की अपनी आशा का इज़हार किया है।
मुमकिन है कि एकेडी से जोड़ी गई उम्मीदें टूट जाएं। लेकिन उस मायूसी के केंद्रीय पात्र एकेडी नहीं होंगे। उसका कथा का सेंट्रल थीम वर्तमान लोकतंत्र के वास्तविक चरित्र का बेनकाब होना होगा। लोगों ने आज पारंपरिक दलों को ठुकराया है। कल जब उन्हें यह समझ में आएगा कि समस्या की जड़ें असल में सिस्टम में हैं- सिस्टम के उस ढांचे में जिसमें चुनाव नाटक बन कर रह गए हैं और जिसमें आम मतदाता के वोट से शासन की रीति-नीति में कोई फर्क नही पड़ता, तो फिर वे सिस्टम का विकल्प भी ढूंढेंगे।
इस रूप में दुनिया आज एक नए मुकाम पर है। 1990 के दशक में थोपी गई सहमति हर जगह टूट रही है। इससे श्रमिक वर्ग की निराशा टूट रही है। चुनावी राजनीति के संचालक दलों की सीमाएं हर जगह बेपर्द हो रही हैं। फिलहाल, लोग इसी सिस्टम के भीतर उपलब्ध नए विकल्पों को मौका दे रहे हैं। वे विकल्प कुछ बदल पाए, तो इस सिस्टम की साख बचेगी। वरना, दुनिया एक नए तरह की राजनीतिक परिघटना का दर्शन करेगी।
द्वंद्वात्मक भौतिकवाद (dialectical materialism) के नजरिए से दुनिया को देखने-समझने वाले लोगों की निगाह में यह विकासक्रम की स्वाभाविक प्रक्रिया का हिस्सा है। यह दौर पूंजीवादी लोकतंत्र की थीसिस (वाद) का एंटी-थीसिस (प्रतिवाद) तैयार होने का है। श्रीलंका में एकेडी, जेवीपी और एनपीपी इसी प्रतिवाद का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं।