दल-बदल रोक कानून मानवीय स्वतंत्रता और गरिमा के विरुद्ध है। यह सांसदों, विधायकों को अनुचित बंधन में रखता है। असहमति की आवाज रोकता है। दल के ऊपरी चालबाजों, हवाबाजों की तानाशाही व बेवकूफियाँ बढ़ाने का औजार बनता है। क्योंकि सांसद उन का हाथ नहीं पकड़ सकते। जबकि कहीं भी असुविधाजनक सच कहने वाला प्रायः अकेला होता है। तानाशाही के विरुद्ध उभरने वाला स्वर भी पहले अकेला ही होता है। अतः अभिव्यक्ति और गतिविधि की स्वतंत्रता हर मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार है – मुख्यतः अकेले स्वर का ही अधिकार है! वह किसी सांसद से ही छीन ली जाए, यह घोर विडंबना है!
यूरोप अमेरिका के लोकतंत्रों में दल-बदल विरोधी कानून नहीं है। सांसदों को दल छोड़ने/बदलने का अधिकार है। जो भारत में उन से छीन लिया गया है। इस से अनेक विकृतियाँ पैदा हुई हैं। Anti defection law
मसलन, भाजपा सुप्रीमो बरसों से अनेक ऐसे ऊटपटाँग कर रहे हैं, जिस में उन्हें चार बार सोचना पड़ता यदि सांसदों को वह विचार स्वतंत्रता तथा कार्य अधिकार होता, जो उन्हें संविधान से मिला हुआ था। ब्रिटिश भारत में भी, 1920 से ही निर्वाचित जनप्रतिनिधि अपने दल में रहने/छोड़ने के लिए स्वतंत्र थे। उन का यह अधिकार छ: दशक तक अबाध रहा, जिस से कभी कोई हानि होने का उदाहरण नहीं है। यही यूरोप अमेरिका का भी अनुभव है।
पर यहाँ वह स्वतंत्रता 1985 में संविधान संशोधन कर खत्म कर दी गई। उस ने पार्टी सुप्रीमो को सांसदों का मालिक बना डाला।उन के लिए सांसदों की राय बेमतलब हो गई। सुप्रीमो कुछ भी करे, उस के सांसद चुप देखने के सिवा कुछ नहीं कर सकते। क्यों कि इन की विचार व कार्य स्वतंत्रता छिन चुकी है! यह बड़ा अनर्थ हुआ है। इसे सिद्धांत और व्यवहार, दोनों में देख सकते हैं।
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यह दलील कि ‘सांसद को दल-टिकट मिला था, अतः उसे दल बदलने का हक नहीं’ अधूरी बात है। एक तो टिकट मिलता ही है व्यक्ति का मोल आँक कर। पर सर्वोपरि यह कि यहाँ चुनाव प्रणाली और संविधान में भी व्यक्ति मुख्य है, दल कुछ नहीं। कोई दल रातो-रात भंग, या अन्य दल में विलीन हो जाए तब भी उस के सांसद अपना पद नहीं खोएंगे। संसद सदस्यता दलीय अस्तित्व से स्वतंत्र हैसियत रखती है। दल-बदल रोक कानून ने इस बुनियादी संवैधानिक स्थिति पर पर्दा डाल दिया है। Anti defection law
जबकि वह दलील किसी कंपनी-कर्मी पर अधिक सही है। कंपनी ने कर्मी को विदेश भेजा, ट्रेनिंग दी, वेतन-गाड़ी दी, अनुभव दिया, आदि। सो वह कंपनी नहीं छोड़ सकता, और ‘कंपनी-बदल’ रोका जाए! यह दलील शायद ही किसी को ठीक लगे। पर यह राजनीतिक दलों पर और बेठीक है। दल टिकट के बिना भी कोई चुनावी उम्मीदवार और फिर सांसद विधायक बन सकता है। टिकट निर्जीव चोला भर है। जबकि उम्मीदवार व्यक्ति सजीव शरीर है। अतः दल टिकट को सारा महत्व देकर सांसद के व्यक्तित्व व योग्यता को शून्य बताना गलत दलील है। इसलिए वह कानून गलत है।
भारतीय संविधान में भी यही भाव था। उस में राजनीतिक दल का उल्लेख तक न था। यानी, दल अनगिनत प्रकार के सामाजिक संगठनों जैसे सामान्य थे। लेकिन उस कानून के बाद से पूरी संसदीय प्रक्रिया पर दलों का कब्जा हो गया। यह संविधान का भीतरघात है।
फिर, वह कानून सिद्धांतहीन भी है। उस के अनुसार झुंड में सांसद दल-बदल कर सकते हैं। पर अकेले-दुकेले करना दंडनीय है। मानो अकेले धोखाधड़ी करना अवैध हो, पर गिरोह बनाकर वैध हो!
याद रहे, आधुनिक कानून व्यक्ति को उत्तरदाई रखते हैं। यदि दल-बदल अपराध होता, तो झुंड बनाकर करना भी अपराध ही रहता। परन्तु चूँकि दल छोड़ना बदलना अपराध है ही नहीं, इसलिए यह कानून मूलतः निराधार और विचारहीन है।
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वस्तुत: कंपनी छोड़ने/बदलने और पार्टी छोड़ने/बदलने में समान मनोभाव है। परिस्थिति अनुसार अपना लाभ, सुविधा, भविष्य, आदि देखकर कोई कभी एक, तो कभी दूसरी, और फिर ठीक लगे तो पुनः पुरानी कंपनी में वापस आता है। इसे कोई अनुचित नहीं समझता। कंपनी मालिक हाय-तौबा नहीं करते कि कानून बनाकर हमारे कर्मी को दूसरी कंपनी जाने से रोकें! अपने कर्मी को संतुष्ट रखना कंपनी की जिम्मेदारी है, यह सर्व स्वीकृत है। Anti defection law
यही मान्यता यूरोप अमेरिका में राजनीतिक दलों के लिए भी है। वहाँ दलों की प्रतिष्ठा के कारण सांसद साथ बने रहते हैं, न कि जबरिया या भय से। वहाँ दल छोड़ना बदलना किसी सांसद का अधिकार है। इस से वहाँ सांसद लोग इधर-उधर नहीं होते रहते। बल्कि वहीं दलीय व्यवस्था अधिक स्थिर और जिम्मेदार बनी है।
मूल भारतीय संविधान की भी वही मान्यता थी। संसद/विधान सभा के कार्य में दल का कोई स्थान ही नहीं था। सारी जिम्मेदारी अदद सांसद, अदद सभापति, अदद मंत्री, आदि की रखी गई थी। अर्थात, उत्तरदायित्व का आधार व्यक्ति था। दल और सांसद का संबंध सदन से बाहर का था। यह बुनियादी बात है, और सोचने की है कि उस मान्यता को हटाने से कितनी हानियाँ हुई हैं। संविधान में दिए गए व्यवस्थापिका और कार्यपालिका के पृथक्करण का भी घोल-मट्ठा हो गया है। सदन के अध्यक्ष की जो हस्ती पहले थी, वह लुप्त हो गई है। Anti defection law
यूरोपीय या अमेरिकी लोकतंत्रों में दल-बदल रोक कानून नहीं होने से दलीय नेतृत्व गंभीरता से काम करते हैं। इसे वहाँ यहाँ की तुलना कर देख सकते हैं। वहाँ दल के सुप्रीमो मनमाने नाटक, डींगबाजी, या ऊटपटाँग घोषणाएं नहीं किया करते। न ही जहाँ-तहाँ नेताओं की मनमानी खरीद करते रहते हैं। Anti defection law
यहाँ दल-बदल रोक कानून किन्हीं नेताओं ने अपनी सुविधा के लिए रचा था। तब से सत्ताधारी सुप्रीमो अपने सांसद विधायक को गुलाम, और अन्य दलों के विधायकों को शिकार बनाते रहे हैं। उस कानून की फूहड़ता का सब से लज्जास्पद प्रमाण यह है कि सिरमौर कानून-निर्माता ही दलबदल कराते रहते हैं!
दूसरा प्रमाण, कि भारत में जब तक वह कानून न था, तब दल-बदल बहुत कम होते थे। दल सुप्रीमो अपने सांसद विधायक के साथ अधिक सम्मानपूर्ण थे। उन में परस्पर सहयोग का मित्र-भाव था, साहब-अर्दली वाला हीन-भाव नहीं। दल से उन की और उन से दल की पहचान-प्रतिष्ठा जुड़ी थी। इसलिए दल-बदल कम होते थे।
लेकिन दल-बदल रोक कानून ने समानता का भाव खत्म कर सुप्रीमो को भारी ताकत दे दी। अब वे अपने सांसद विधायक को बंधुआ समझ सकते थे। इसीलिए दल-बदल के हर खतरे/हमले के बाद अपने विधायकों या नये शिकार विधायक झुंड को कैद कर फाइवस्टार ‘बाड़े’ में बंद रखा जाता है। कैसा शर्मनाक तमाशा – संविधान में सब से बड़े पदधारी, कानून-निर्माताओं, को खुलेआम अपमानित करना कि वे अविश्वसनीय या बिकाऊ माल से अधिक कुछ नहीं!
अतः दल-बदल रोक कानून ने केवल हीन प्रवृत्तियाँ बढ़ाई। सांसद विधायक की गरिमा गिराई। दलीय फिक्सरों की महत्ता बनाई, जो अदृश्य रह कर संसद/विधानसभा की पूरी प्रक्रिया मुट्ठी में रखते हैं। सरकारों की उलट-फेर करते हैं, जब कि इन कृत्यों के लिए खुद जबावदेह नहीं होते।
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पहले अदद सांसद/विधायक अपने दल, नेता, मतदाता, व मित्रों-सहयोगियों के समक्ष एक स्वाभिमान भाव महसूस करते थे। और आज? सत्ताधारी दलों के विचारवान सांसद, विधायक हाथ-पैर बँधे जीव जैसे लाचार, निर्विकार लगते हैं। यह समझते हुए कि उन के हाथ में कुछ नहीं। अपना बयान भी नहीं! ऐसे विवश सांसदों, विधायकों की बहुतायत में कोई देश भाग्यहीन ही होगा। Anti defection law
निस्संदेह, दल-बदल रोक कानून मानवीय स्वतंत्रता और गरिमा के विरुद्ध है। यह सांसदों, विधायकों को अनुचित बंधन में रखता है। असहमति की आवाज रोकता है। दल के ऊपरी चालबाजों, हवाबाजों की तानाशाही व बेवकूफियाँ बढ़ाने का औजार बनता है। क्योंकि सांसद उन का हाथ नहीं पकड़ सकते।
जबकि कहीं भी असुविधाजनक सच कहने वाला प्रायः अकेला होता है। तानाशाही के विरुद्ध उभरने वाला स्वर भी पहले अकेला ही होता है। अतः अभिव्यक्ति और गतिविधि की स्वतंत्रता हर मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार है – मुख्यतः अकेले स्वर का ही अधिकार है! वह किसी सांसद से ही छीन ली जाए, यह घोर विडंबना है! कि देश का प्रतिनिधि, देश की सर्वोच्च विचार-सभा में भी, मन की बात बोलने में डरे। असहमति में कदम उठाने के लिए पहले उसे ‘झुंड’ बनना पड़े – यह स्वतंत्रता की मूल भावना के विरुद्ध है।
इस से हानि हुई है। पहले यहाँ दलीय गतिविधियाँ और फैसले अधिक उत्तरदायित्वपूर्ण थे। दलीय सुप्रीमो जिम्मेदारी से कदम उठाते थे। उन्हें अपने सांसदों विधायकों की नजर का ध्यान रखना होता था। जो मनमानियों और मूर्खताओं पर स्वत: अंकुश था। वे अपने सांसदों को जेब में समझ कर नहीं चल सकते थे। दल-बदल विरोधी कानून ने यह सब बिगाड़ कर रख दिया है। यह देख सकना चाहिए।