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‘अंधा युग’ पेशेवर नाटक की आहट

भोपाल। भोपाल के रंगमंच में बरसों बाद या कहूं पहली बार किसी निजी नाट्य संस्था द्वारा पेशेवर अंदाज में नाटक की प्रस्तुति की गई। यह था धर्मवीर भारती रचित नाटक ’अंधा युग’ जिसे हम थियेटर द्वारा बालेन्द्र सिंह के निर्देशन में प्रस्तुत किया गया। बालेन्द्र पिछले तीन दशक से अधिक समय से रंगमंच में सक्रिय हैं और अब तक लगभग एक दर्जन नाटक निर्देशित व अभिनीत कर चुके हैं। बालू के नाम से लोकप्रिय बालेन्द्र सिंह लीक से हटकर काम करने वाले रंगकर्मी है। एकल पात्रीय नाटक ’पापकार्न’ उनके इसी धुन को दिखाता है विख्यात निर्देशक हबीब तनवीर के साथ काम कर चुके बालू ने उनकी जन्म शताब्दी पर अगल-अलग रंग समूहों में काम कर रहे उन रंगकर्मियों को साथ लेकर हबीब साहब का वह नाटक मंचित किया जिसमें बरसों पहले इन्हीं रंगकर्मियों ने काम किया था। ऐसा प्रयोग हिन्दी रंगमंच में पहली बार हुआ था। थियेटर के साथ बालू फिल्मों व टीवी सीरियल में भी काफी सक्रिय हैं लेकिन उनकी पहली पसंद थियेटर ही है।

‘अंधा युग’ धर्मवीर भारती जी द्वारा 1953-54 में लिखा एक गीतिनाट्य है जिसका प्रसारण आकाशवाणी से हुआ। इसे सुनकर विख्यात रंग निदेशक सत्यदेव दुबे बेहद प्रभावित हुए और उन्होंने इस नाटक को 1962 में खुले मंच में मंचित किया। जाहिर है उन्होंने ’अंधा युग’ को मंचन योग्य नाटक के रूप में नया रूप दिया रहा होगा। नाटक की यह स्क्रिप्ट उन्होंने राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के निदेशक इब्राहिम अल्काजी को भेजा। यहां बता दें कि अल्काजी एनएसडी में जाने के पहले मुम्बई में थियेटर करते थे और एनएसडी डायरेक्टर बनकर दिल्ली जाने पर अपनी नाट्य संस्था की जिम्मेदारी सत्यदेव दुबे जी को सौंपा था। अल्काजी को भी ’अंधायुग’ नाटक इतना पसंद आया कि उन्होंने उसे पूरी भव्यता के साथ दिल्ली के पुराने किले में प्रस्तुत किया। इस नाट्य मंचन की भव्यता ने हिन्दी रंगमंच में नया अध्याय गढ़ दिया था। उसके बाद से अब तक देश का शायद ही कोई सक्रिय रंग निदेशक होगा जिसने अपनी-अपनी शैली में ’अंधा युग’ नाटक को न खेला हो।

नाटक की रचना के 7 दशक और इसके प्रथम मंचन से 6 दशक बाद नौजवान रंगनिदेशक बालेन्द्र सिंह ने इस ”अंधा युग“ नाटक को भोपाल के रंगमंच पर प्रस्तुत किया। भोपाल के रंगदर्शकों के लिये हालांकि ’अंधायुग’ का मंचन पहली घटना नहीं थी। रंगमंडल भारत भवन के दौर में बंशी कौल ने ’अंधायुग’ किया था जिसका संगीत बाबा कारंथ ने तैयार किया था। यह लगभग चार दशक पहले की बात है। हाल ही में ’अंधायुग’ का मंचन भारत भवन में प्रसिद्ध रंगनिदेशक रामगोपाल बजाज के निदेशन में हुआ था। मजे की बात यह है कि हाल ही के मंचन को छोड़कर बालेन्द्र ने किसी भी रंग निर्देशक के ’अंधायुग’ को नहीं देखा था। इसलिये उन नाटकों का कोई प्रभाव उस पर नहीं था, सिवा एक चुनौती के कि जिस नाटक को देश के शीर्षस्थ रंग निदेशक मंचित कर चुके हैं, उसे वह करने जा रहा है।

नाटक के निदेशक बालेन्द्र ने भले ही ’अंधायुग’ का प्रदर्शन पहले न देखा हो लेकिन इस नाटक के कुछ वरिष्ठ कलाकार असीम दुबे, अरबिंद बिलगैया, अजय श्रीवास्तव, सरोज शर्मा आदि ने ’अंधा युग’ के एकाधिक प्रदर्शन पहले ही देख चुके थे। सरोज शर्मा ने तो बंशी कौल निर्देशित ’अंधायुग’ में भूमिका भी निभा चुकी थी। जाहिर है इन कलाकारों पर अन्य निर्देशकों के अंधायुग का प्रभाव था लेकिन बालेन्द्र इस नाटक को अपनी तरह से करना चाह रहे थे और वे इसमें सफल भी रहे।

अक्सर नाटकों का मंचन इतनी खामोशी से होता है कि लोगों को इसका पता ही नहीं चल पाता। परिणाम यह होता है कि मुफ्त में भी नाट्य दर्शकों का टोटा पड़ा रहता है। बालेन्द्र के ’अंधायुग’ में ऐसा नहीं हुआ। नाट्य मंचन के काफी पहले ही अखबारों व सोशल मीडिया में इस नाटक की चर्चा होने लगी थी जिसका असर मंचन के दिन देखने को मिला जब सौ रुपये टिकट खरीदकर नाटक देखने वाले दर्शकों की भीड़ उमड़ पड़ी। हाल खचाखच भर गया और बहुत से दर्शकों को वापस लौटना पड़ा।

अब नाट्य मंचन पर आते हैं। मेरी समझ से अच्छा नाटक वही होता है जो जल्दी ही दर्शक को अपने से बांध ले। ’अंधा युग’ नाटक शुरू होते ही दर्शकों को बांध लेता है और आखिरी तक बांधे रखता है। यह इस नाटक की सबसे बड़ी खूबी थी और यही उसकी सफलता। अंधा युग नाटक की जीवंतता उसकी कथावस्तु के साथ के साथ उसकी काव्यामयी भाषा में समाहित है और कलाकारों ने अपनी संवाद अदायगी में उस काव्यात्मकता को बखूबी निभाया। मोरिस लाजरस की संगीत रचना नाटक के कथ्य को उभारने के साथ-साथ उसके काव्य को भी संवारता चलता है।

नाटक की कथावस्तु महाभारत युद्ध के आखिरी दिन पर केन्द्रित है जहां युद्ध की निरर्थता के साथ-साथ प्रतिहिंसा अपने पूरे उभार में है। अश्वत्थामा इसी प्रति हिंसा में अपने क्ररतम रूप में आता है तो गांधारी कृष्ण को मृत्यु का अभिशाप दे देती है। न्याय-अन्याय, आस्था-अनास्था, सत्ता और लोभ का अंधापन ही अंधायुग है। धृतराष्ट्र दृष्टिहीन हैं तो उन्माद में दूसरे भी विवेक और दृष्टि खो बैठते हैं। ऐसे गंभीर नाटक की प्रस्तुति निदेशक के साथ ही कलाकारों के लिये बड़ी चुनौती होती है। और बेहतर करने की संभावनाओं के साथ सभी कलाकारों ने अपने-अपने चरित्रों को बखूबी निभाया।
नाटक एक क्षण के लिये भी दर्शकों को बोझिल न लगे, इसका भरपूर जतन निदेशक बालेन्द्र सिंह ने किया जिसके चलते उन्हें स्क्रिप्ट को संपादित भी करना पड़ा और इसमें वे पूरी तरह कामयाब रहे। पिछले 6 दशक में कई छोटे-बड़े निदेशकों के साथ इस नाटक की हजारों प्रस्तुतियां हो चुकी हैं उनमें किसी तरह की तुलना नहीं की जा सकती क्योंकि हर निदेशक की शैली और फलसफा अपना होता है। बालेन्द्र के ’अंधायुग’ को भी मैं उनके नाटक के रूप में देखता हूँ जो अपने आप में अलग स्थान रखता है। तैयारी में लब्बा समय लेकर अपेक्षाकृत अधिक बजट के साथ वे इस नाटक को भव्य बनाना चाहते थे और यह भव्यता लाइट, सेट, कास्ट्यिूम, प्राप्स आदि सब में थी जिसे दर्षकों ने भरपूर महसूस किया।

बालेन्द्र ने इस नाटक में एक ओर जहां अलग-अलग समूहों में नाटक करने वाले वरिष्ठ व अनुभवी रंगकर्मियों से अभिनय कराया तो नये कलाकारों को भी शामिल किया। गोविंद नामदेव तथा राजीव वर्मा जैसे फिल्मों व थियेटर के मंजे हुए अभिनेताओं की आवाजों का उपयोग भी उन्होंने नाटक भी किया। कुल मिलाकर श्रेष्ठ कलाकारों की पूरी टीम ’अंधा युग’ के लिये उन्होंने खड़ी कर दी थी।

गैर महानगरीय शहरों का रंगमंच अभी शौकिया रंगमंच ही बना हुआ है और ज्यादातर सरकारी अनुदान पर आश्रित है। चाहे वह नाट्य समारोह हो या किसी नाटक मंचन, शायद ही कोई मंचन ऐसा हो जिसके ब्रोसर में सरकारी अनुदान का उल्लेख नहीं मिलता हो। ऐसे में जिस तैयारी, भव्यता और प्रचार-प्रसार के साथ ’अंधा युग’ का मंचन हुआ वह पेशेवर नाटक की आहट पेश करता है। अच्छी बात यह रही कि पेशेवर नाटक के रूप में इस नाटक का स्वागत दर्शकों ने भी भरपूर किया। यह सिलसिला जब शुरू हो चुका है तो उस पर विराम नहीं लगना चाहिए। बालेन्द्र और उनकी टीम से यह अपेक्षा मैं करूंगा कि वे पेशेवर नाटक के रूप में ’अंधा युग’ का आगे बढ़ायें तथा उनकी सफलता से अन्य देश निदेशक भी अपने अनुदान पोषित रंगमंच को पेशेवर रंगमंच की ओर ले जाने पर विचार भी करें और आगे भी बढ़ें।

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