कौण्डिन्य मुनि ने चौदह वर्ष तक अनन्त-व्रत का नियमपूर्वक पालन करके खोई हुई समृद्धि को पुन:प्राप्त कर लिया। श्रीकृष्ण की सलाह और इस कथा से प्रेरित होकर धर्मराज युधिष्ठिर ने अपने भाइयों तथा द्रौपदी के साथ पूरे विधि-विधान से यह व्रत किया तथा अनन्त सूत्र धारण किया। अनन्त चतुर्दशी व्रत के प्रभाव से पाण्डव सब संकटों से मुक्त हो गए।
28 सितंबर- अनन्त चतुर्दशी व्रत
जिसकी कोई सीमा न हो, जिसका कोई अंत न हो, उसे अनन्त (अनंत) कहा जाता है। यह शब्द उन राशियों के लिए प्रयुक्त किया जाता है, जिनकी माप अथवा गणना उनके परिमित न रहने के कारण असंभव है। अपरिमित सरल रेखा की लंबाई सीमाविहीन और इसलिए अनन्त होती है। अत्यंत प्राचीन काल से ही भारतीयों को अनन्त की संकल्पना, अनन्त के मूलभूत गुणों का पता रहा है, और संसार के प्राचीनतम ग्रंथ वेदों में भी इसके लिए अनन्त, पूर्णं, अदिति, असंख्यत आदि कई शब्दों का प्रयुक्त हुआ है। असंख्यत का उल्लेख यजुर्वेद में आया है। अनन्त का अर्थ – अगणनीय, अगणित, अगण्य, अगनत, अगिनत, अगिनित, अनगणित, अनगन, अनगा, अनगिन, अनगिनत, अनगिना, अनंत, अपरिगण्य, अरपनगंडा, अशेष, असंख, असंख्य, असंख्यक, असंख्यात, असंख्येय, असङ्ख्य, असङ्ख्यक, असङ्ख्यात, असङ्ख्येय, अकूत, बेशुमार आदि है। अनन्त शब्द की महिमागान करते हुए ईशोपनिषद में कहा गया है-
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।।
ॐ शांतिः शांतिः शांतिः।।
अर्थात – ॐ वह (परब्रह्म) पूर्ण है, और यह (कार्यब्रह्म) भी पूर्ण है, क्योंकि पूर्ण से पूर्ण की ही उत्पत्ति होती है। तथा प्रलयकाल में पूर्ण कार्यब्रह्म का पूर्णत्व लेकर अपने में लीन करके पूर्ण परब्रह्म ही बचा रहता है। त्रिविध ताप की शांति हो।
अर्थात- अनन्त से अनन्त घटाने पर भी अनन्त ही शेष रहता है। इस अनन्त की महिमा भी अपरंपार है। वेद, उपनिषद, आरण्यक, ब्राह्मण ग्रंथ, पुराण सभी इसके महिमा गाते नजर आते हैं। पौराणिक ग्रंथों में शेषनाग को भी अनन्त कहा गया है और भगवान विष्णु को क्षीरसागर में शेषनाग पर शयन करते हुए चित्रित किया गया है। क्षीरसागर में शेषनाग पर शयन कर रहे भगवान विष्णु की अनन्त रूप में पूजा- अर्चना किए जाने की परिपाटी भी चल पड़ी है। भाद्रपद मास के शुक्लपक्ष की चतुर्दशी तिथि को अनन्त चतुर्दशी कहा जाता है। सर्वकामना पूर्ति के उद्देश्य से इस दिन व्रत करने और भगवान विष्णु की अनन्त रूप में पूजा करके संकटों से रक्षा करने वाला चौदह ग्रंथियों अर्थात गांठों से युक्त अनन्तसूत्र अर्थात धागा बांधे जाने का विधान है। इसमें कपास अथवा रेशम के धागे से बने और कुंकमी रंग में रंगे चौदह गाँठों वाला अनन्त सूत्र पुरुषों द्वारा दाहिने तथा स्त्रियों द्वारा बायें हाथ में बाँधा जाता है। यह व्रत व्रतियों को सुख एवं सौभाग्य देने वाला होता है। भगवान सम्पूर्ण जगत के नियंता एवं पालनहार है। उन्हीं की कृपा से समस्त लोगों का पालन हो रहा है।
ऐसे भी लोक जिन्हें मनुष्य जानता भी नहीं और उनके आदि -अंत का पता भी नहीं लगा सकता है। ऐसे भी लोकों के स्वामी होने के कारण श्रीविष्णु को अनन्त आदि सहस्त्रों नामों से जाना जाता है। विष्णु ही सभी लोक के स्वामी है। उन्हें ही नारायण, सत्यनारायण तथा वासुदेव आदि अनेक नामों से जाना व पूजा जाता है। इस व्रत में भगवान को चौदह लोकों – तल, अतल, वितल, सुतल, तलातल, रसातल, पाताल, भूः भुवः स्वः मह, जनः तपः सत्यं लोक के स्वामी के रूप में पूजने का महत्व है। विष्णु ही इन लोकों के पालन एवं संचालन कर्ता है। प्रत्येक लोक के स्वामी के रूप में चौदह वर्ष तक निरंतर भगवान विष्णु की पूजा विधि- विधान से करने वाले व्यक्ति को नाना प्रकार की सुख सम्पत्ति होती है। मन में शान्ति एवं सद्भाव जैसे गुणों का विकास होता है। अच्छे कर्म के प्रति आकर्षण होता है। तथा अन्तकाल में विष्णु धाम को जाता है।
अनन्त चतुर्दशी जैन धर्मावलंबियों के लिए सबसे पवित्र तिथि है। यह मुख्य जैन त्यौहार पर्यूषण पर्व के अंतिम दिन होता है। भविष्य पुराण के अनुसार भाद्रपद के अंत की चतुर्दशी तिथि में पौर्णमासी के योग में अनंत व्रत करना चाहिए। स्कंद पुराण में भी कहा गया है कि भाद्रपद मास की पूर्णिमा तिथि में मुहूर्त मात्र की चतुर्दशी हो, तो उसको संपूर्ण तिथि जानना चाहिए और उसमें अविनाशी विष्णु का पूजन करना चाहिए। इस वर्ष 2023 में इस व्रत का पालन 27 सितम्बर दिन बुधवार को किया जाएगा। भाद्रपद मास की शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी भगवान अनन्त का व्रत रखकर मनायी जाती है। इस व्रत के नाम से लक्षित होता है, कि यह दिन उस अंत न होने वाली सृष्टि के कर्ता विष्णु की भक्ति का दिन है। इस दिन विष्णु की पूजा, प्रार्थना- अनन्त सर्व नागानामधिपः सर्वकामदः, सदा भूयात् प्रसन्नोमे यक्तानाभयंकरः – मंत्र से करनी चाहिए। यह विष्णु कृष्ण रूप हैं, और शेषनाग काल रूप में विद्यमान हैं। इसलिए इस व्रत में दोनों की सम्मिलित पूजा हो जाती है।
अनन्त चतुर्दशी के संबंध में अनेक पौराणिक कथाएं व मान्यताएं प्रचलित है। एक कथा के अनुसार द्युतक्रीड़ा में दुर्योधन से अपना सम्पूर्ण राज्य पाट गंवा कर वन में कष्ट भोग रहे पांडवों को भगवान श्रीकृष्ण ने अनन्त चतुर्दशी का व्रत करने की सलाह दी थी। इस संदर्भ में एक दिव्य प्रसंग भी श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर को श्रवण कराया। कथा के अनुसार प्राचीन काल में सुमन्तु (सुमन्त) नाम का एक नेक तपस्वी ब्राह्मण था। उसकी पत्नी का नाम दीक्षा था। उसके एक परम सुंदरी धर्मपरायण तथा ज्योतिर्मयी कन्या थी, जिसका नाम सुशीला था। सुशीला जब बड़ी हुई तो उसकी माता दीक्षा की मृत्यु हो गई। पत्नी के मरने के बाद सुमन्त ने कर्कशा नामक स्त्री से दूसरा विवाह कर लिया। सुशीला का विवाह उस ब्राह्मण ने कौडिन्य ऋषि के साथ कर दिया। विदाई में कुछ देने की बात पर कर्कशा ने दामाद को कुछ ईंटें और पत्थरों के टुकड़े बांधकर दे दिए।
कौण्डिन्य ऋषि दु:खी हो अपनी पत्नी को लेकर अपने आश्रम की ओर चल दिए। परन्तु रास्ते में ही रात हो गई। वे नदी तट पर सन्ध्या करने लगे। सुशीला ने देखा वहाँ पर बहुत-सी स्त्रियाँ सुंदर वस्त्र धारण कर अनन्त भगवान की पूजा कर रही थीं। सुशीला ने अनन्त भगवान और उनके पूजा विधि के संबंध में पूछा, तो स्त्रियों ने उसे समुचित जानकारी देकर अनन्त माहात्म्य कह सुनाया। सुशीला ने अनन्त व्रत का माहात्म्य जानकर उन स्त्रियों के साथ अनन्त भगवान का पूजन करके अनन्त सूत्र बांध लिया। इसके फलस्वरूप थोड़े ही दिनों में उसका घर धन-धान्य से पूर्ण हो गया। एक दिन कौण्डिन्य मुनि की दृष्टि अपनी पत्नी के बाएं हाथ में बंधे अनन्त सूत्र पर पडी, जिसे देखकर वह भ्रमित हो गए और उन्होंने पूछा-क्या तुमने मुझे वश में करने के लिए यह सूत्र बांधा है? शीला ने विनम्रतापूर्वक इंकार करते हुए उत्तर दिया कि नहीं, यह अनन्त भगवान का पवित्र सूत्र है। परंतु ऐश्वर्य के मद में चूर कौण्डिन्य ने अपनी पत्नी की सत्य बात को भी असत्य समझा और अनन्त सूत्र को जादू-मंतर वाला वशीकरण करने का धागा समझकर तोड़कर उसे आग में डालकर जला दिया। इस जघन्य कर्म का परिणाम भी शीघ्र ही सामने आ गया। उनकी सारी संपत्ति नष्ट हो गई। दीन-हीन स्थिति में जीवन-यापन करने को विवश हो जाने पर कौण्डिन्य ऋषि ने अपने अपराध का प्रायश्चित करने का निर्णय लिया। वे अनन्त भगवान से क्षमा मांगने हेतु वन में चले गए। उन्हें मार्ग में जो भी मिलता, वे उससे अनन्तदेव का पता पूछते जाते थे।
बहुत खोजने पर भी कौण्डिन्य को जब अनन्त भगवान का साक्षात्कार नहीं हुआ, तब वे निराश होकर प्राण त्यागने को उद्यत हुए। तभी एक वृद्ध ब्राह्मण ने आकर उन्हें आत्महत्या करने से रोक दिया और एक गुफा में ले जाकर चतुर्भुज अनन्तदेव का दर्शन कराया। कौण्डिन्य के द्वारा अपनी दीन -हीन अवस्था के संबंध में पूछे जाने पर भगवान ने मुनि से कहा कि तुमने जो अनन्त सूत्र का तिरस्कार किया है, यह सब उसी का फल है। इसके प्रायश्चित हेतु तुम चौदह वर्ष तक निरंतर अनन्त व्रत का पालन करो। इस व्रत का अनुष्ठान पूर्ण होने पर तुम्हारी नष्ट हुई सम्पत्ति तुम्हें पुन:प्राप्त हो जाएगी और तुम पूर्ववत सुखी-समृद्ध हो जाओगे। जीव अपने पूर्ववत दुष्कर्मो का फल ही दुर्गति के रूप में भोगता है। मनुष्य जन्म-जन्मांतर के पातकों के कारण अनेक कष्ट पाता है। अनन्त व्रत के सविधि पालन से पाप नष्ट होते हैं तथा सुख-शांति प्राप्त होती है।
कौण्डिन्य मुनि ने इस आज्ञा को सहर्ष स्वीकार कर लिया। कौण्डिन्य मुनि ने चौदह वर्ष तक अनन्त-व्रत का नियमपूर्वक पालन करके खोई हुई समृद्धि को पुन:प्राप्त कर लिया। श्रीकृष्ण की सलाह और इस कथा से प्रेरित होकर धर्मराज युधिष्ठिर ने अपने भाइयों तथा द्रौपदी के साथ पूरे विधि-विधान से यह व्रत किया तथा अनन्त सूत्र धारण किया। अनन्त चतुर्दशी व्रत के प्रभाव से पाण्डव सब संकटों से मुक्त हो गए। यही कारण है कि लोग आज भी पांडवों की भांति अनन्त चतुर्दशी का व्रत कर अनन्त रूप वाले वासुदेव को नमस्कार करते हुए वासुदेव से इस अनन्त संसार रूपी महासमुद्र में डूबे हुए लोगों की रक्षा करने तथा उन्हें अनन्त के रूप का ध्यान करने में संलग्न करने के लिए प्रार्थना करते हैं।