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अभिनय इसी का नाम है

भोपाल। नाटक खत्म होते ही दर्शकाें के तालियों की गड़गड़हट थमने का नाम नहीं ले रही थी। पूरा अडिटोरियम खचाखच भरा हुआ था। इस नाटक से दर्शकाें को जितनी उम्मीदें रहीं होंगी उससे कहीं बहुत-बहुत ज्यादा उन्हें मिला। यह मौका था विवेचना रंगमंडल जबलपुर के तीसवें राष्ट्रीय नाट्य समारोह ”रंग परसाई“, का जहंा ”जीना इसी का नाम है“ नाटक का मंचन हुआ। दर्शकाें के लिये इस नाटक का आकर्षण इसलिये भी अधिक था क्योंकि इस दो पात्रों वाले नाटक में भूमिकायें निभा रहे थे टी.वी. और फिल्मों के जाने माने कलाकार राजेन्द्र गुप्ता और हिमानी शिवपुरी। ”ओल्ड वल्र्ड“ एक रूसी भाषा का पुराना नाटक है जिसका अंग्रेजी व हिन्दी में अनुवाद हो चुका है। इसी का नाट्य रूपांतर ”जीना इसी का नाम है“ नाम से इप्टा के रंग निर्देषक राकेष वेदा ने किया। काफी पहले लखनऊ के वरिष्ठ रंग निदेषक राज बिसारिया ने राकेष जी से यह नाट्य रूपांतर कराया और नाटक खेला भी।

राजेन्द्र गुप्ता को यह नाटक पसंद आया और उन्होंने रंग निर्देशक सुरेष भारद्वाज से इसे निर्देशित कराने का आग्रह किया जो अब दिल्ली से आकर मुम्बई में बस गये हैं। हिमानी शिवपुरी को प्रमुख भूमिका में लेकर यह दो पात्रों वाला नाटक तैयार हुआ जिसका प्रदर्शन इन दिनों देश के कई शहरों में हो रहा है। मजे की बात यह है कि राजेन्द्र गुप्ता ने निर्देशन में एनएसडी से उपाधि ली और इस उपाधि के लिये एक साल अतिरिक्त अध्ययन किया। इतना ही नहीं अपने रंगकर्म के शुरूआती सालों में उन्होंने दर्जनों नाटक निर्देशित किया लेकिन अब वे निर्देशन नहीं, सिर्फ अभिनय करते हैं।

राजेन्द्र गुप्ता और हिमानी शिवपुरी सिनेमा, वेवसीरिज व टीवी सीरियल के बेहद मशहूर और मसरूफ कलाकार हैं। बावजूद इन दोनों का मन थियेटर में ही लगा रहता है और फिल्मों में काम करते हुए भी थियेटर में काम करने के जुगाड़ में रहते हैं। दोनों एनएसडी पास आउट हैं। राजेन्द्र गुप्ता अमृता प्रीतम वाले इमरोज पर कोई नाटक करना चाह रहे हैं, लम्बे समय से, लेकिन उन्हें कोई स्क्रिप्ट नहीं मिल रही है। इस बीच वरिष्ठ रंग निदेशक विजय कुमार के निर्देशन में जिन्ना पर लिखे नाटक की मुख्य भूमिका में वे रहे। कुछ कारणों से नाटक तैयार होने के बाद भी उसका प्रदर्शन अभी नहीं हो पाया है। उनके रंगमंच के जुनुन के चलते ’जीना इसी का नाम है’ नाटक तैयार हुआ।

इस नाटक में राजेन्द्र गुप्ता और हिमानी शिवपुरी की केमेस्ट्री इस तरह उभरी कि बस जादू बन गया। दोनों के अभिनय ने दर्शकों को मंत्र मुग्ध कर दिया। नाटक शुरू होने के चंद मिनटों में ही दर्षक इनके अभिनय के जादू में कैद हो जाते है और इस कैद से बाहर होने का उनका मन शायद नहीं करता। कम से कम मैं तो इस जादू से अभी तक बाहर नहीं हो पाया हूँ। इन दोनों कलाकारों को मंच पर अभिनय करते हुए मैं पहली बार देख रहा था।

हालांकि टी.वी. सीरियल और फिल्मों में इन्हें बरसों से देख रहे हैं लेकिन मंच पर अभिनय करते देखने का अनुभव फिल्मों के अनुभव से एकदम अलग था। ऐसा लगा कि जो कुछ उन्होंने मंच पर आज किया, वैसा वे फिल्मों या टी.वी. शो में नहीं कर पाये हैं। इसके पीछे उनकी अभिनय क्षमता से परे कई सीमायें हो सकती हैं। इतना अफर्टलेस अभिनय देखना दुर्लभ है। कहीं लगा ही नहीं कि वे अभिनय कर रहे हैं। उनके अभिनय की गति इतनी स्मूथ थी, मानों कल कल करती नदी की धारा। टाइमिंग का परफेक्षन इस धारा को अविरल बना रहा था।

यह नाटक दो बुजुर्गो के अकेलेपन और उससे उबरने की कहानी है, यानी घर-घर की कहानी। रिता शर्मा (हिमानी शिवपुरी) और डाक्टर भुुल्लर (राजेन्द्र गुप्ता) की मुलाकात टकराहट के साथ शुरू होती है। हर अगली मुलाकात में वे एक दूसरे को जानने की सीढ़ियां चढ़ते हुए उनकी टकराहट कम होती जाती है। दोनों अपने अकेलेपन को छुपाने की नाकाम कोशिश करते है और दोनों इतने करीब आ जाते हैं कि दोनों की जिंदगी में मस्ती के साथ जीने की शुरूआत हो जाती है और दोनों यह समझने लगते हैं कि जीना इसी का नाम है।

इस नाटक के कुछ और रूपांतर हो चुके हैं तथा पहले भी कुछ समूहों द्वारा यह नाटक खेला गया है। राजेन्द्र गुप्ता व हिमानी शिवपुरी को राकेष वेदा द्वारा तैयार किया गया नाट्य आलेख अधिक अनुकुल लगा और उनका निर्णय सही साबित हुआ। इतनी कसावट वाली स्क्रिप्ट बहुत कम देखने में मिलती है। राकेष वेदा के रंग निर्देशक के रूप में लम्बें अनुभव का यह प्रतिफल दिखता है। मुझे लगता है कि छोटे-छोटे चुटीले लेकिन बेहद अर्थपूर्ण संवादों ने कलाकारों को रवानगी भरे अभिनय करने में मदद की। स्क्रिप्ट में खुले तौर पर कुछ भी भावनात्मकता नहीं है लेकिन भावना की अंर्तधारा चुपचाप बहते चलती है जिसे दोनों कलाकारों ने इतनी खूबसूरती के साथ अपने अभिनय में अभिव्यक्त किया कि हर दर्शक एक मैसेज लेकर आडिटोरियम से निकलता है। एक होता है खुषी के आंसू और एक आंसू उमंग और आश्वस्ति की होती है। नाटक देखते हुए दर्शक यह दूसरे आंसूओं को रोक नहीं पाता।

यहां मैं स्पष्ट कर दूं कि मैं सभी दर्षकों का प्रतिनिधित्व नहीं कर रहा है, एक दर्शक के नाते अपनी बात कह रहा हूँ। बुढ़ापा और अकेलापन से अधिक दुखदायी होता है बेटी या पति के होने या उनके आने का बनावटी आवरण ओढ़कर अकेलेपन को छुपाने को दबाने की मजबूरी। इस मजबूरी से मुक्त होकर नाचते गाते बुजुर्ग को देखते ही दर्षक चहक उठता है। वैसे राजेन्द्र गुप्ता जैसे बुजुर्ग और गंभीर चरित्र अभिनेता को मंच पर डांस करते हुए देखना किसी के लिये भी विस्मयकारी अनुभव से गुजरना हीं है। ऐसे दुर्लभ अभिनय से शायद ही कोई पहले रुबरू हुआ होगा। हिमानी शिवपुरी की बात करें तो मुझे लगता है उन्होंने अपने अभिनय का सर्वश्रेष्ठ इस नाटक में प्रस्तुत किया है। उनकी खिलखिलाहट ने दर्षकों को मानों दीवाना ही बना दिया। दोनों कलाकारों की एनर्जी उनके अभिनय को नई ऊचाइयों तक ले जाता है। नाटक के आगे बढ़ते हुए दोनों पात्रों के चरित्रों में क्रमशः बदलाव आता है। खसूट या धीर गंभीर पात्र अल्हड और मदमस्त होते जाते हैं।

चरित्रों के इस बदलाव को दोनों कलाकारों ने बड़ी सहजता से आत्मसात किया और दर्शकों को एक लोक से दूसरे लोक की यात्रा कराई। यह नाटक दर्शकों के लिये आल्हादकारी और अविस्मरणीय होने के साथ ही रंग कर्मियों के लिये अभिनय की क्लास से कम नहीं है। मेरा हमेशा से मानना रहा है कि कसावट वाली अच्छी स्क्रिप्ट और अच्छा अभिनय तो नाटक के अन्य उपादान अप्रासंगिक हो जाते हैं। दर्शक की निगाहे कलाकारों के अभिनय पर ऐसी ठहर जाती है कि उसे मंच पर कुछ ओर नहीं दिखता। यह दोनों ताकत इस नाटक में है।

इस नाटक की एक और खूबी रिपीट वेल्यू है, यानी दर्शक इसे बार-बार देखना चाहेगा। यानी यह पूरी तरह पेशेवर रंगमंच है। एक बात जो मेरी समझ से परे है कि ऐसी सहज कथावस्तु के लिये किसी विदेशी नाटक के रूपांतरण या उस पर आधरित होने की क्या जरूरत है। ऐसे नाट्य पाठ मौलिक रूप से तैयार किया जाना अधिक प्रासंगिक होता। ऐसा केवल इस नाटक के साथ ही नहीं हिन्दी के अधिकांश नाटकों के साथ होता रहा है जब नाट्यपाठ तैयार करने के लिये विदेशी नाटकों का सहारा लिया गया हो। वैसे यह नाटक अपने घरेलु किस्म के संवादों के चलते रूपांतरित कम मौलिक अधिक लगता है।

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