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15 अगस्त को 15 अगस्त की चिंता!

क्या यह 15 अगस्त रहेगा या आजादी का कोई दूसरा दिन घोषित होगा? और क्या यह देश मुसलमानों का नहीं है?… कंगना रनौत का कहना है कि देश 1947 में नहीं बल्की 2014 में आजाद हुआ। और जाहिर है कि उसकी तारीख वह होगी जिस दिन मोदी जी ने प्रधानमंत्री पद की शपथ ली थी। कुछ भी हो सकता है! 15 अगस्त को गायब करके 2014 के उस दिन को आजादी का दिन घोषित किया जा सकता है।

सोशल मिडिया पर एक कैलेंडर घूम रहा है। यह बताते हुए कि यह आखिरी कैलेंडर है जिसमें 15 अगस्त की छुट्टी नहीं है। और चर्चा में लाया गया यह कैलेंडर 1947 का है। जाहिर है कि तब नवबर, दिसंबर में यह छपा होगा। जब तक किसी को नहीं पता था कि 1947 के 15 अगस्त को भारत आजाद होने वाला है।

इस तरह वह आखिरी कैलेंडर हो गया। लेकिन आज की स्थिति देखकर लगता है कि कहीं वह कैलेंडर भी किसी दिन ऐसे ही नहीं घूमे और वह घूमेगा नहीं वह तो वायरल कर दिया जाएगा जिसका यह कैप्शन दिया जाएगा कि आखिरी कैलेंडर जिसमें 15 अगस्त की छुट्टी है!

15 अगस्त पर सवाल उठाए जाने लगे हैं कि क्या वाकई इस दिन देश स्वतंत्र हुआ था। या अंग्रेजों ने इसे 99 साल के पट्टे पर नेहरू गांधी को सौंपा था? नेहरू गांधी को नीचा दिखाने के लिए यह अफवाह लंबे समय से फैलाई जा रही है। संघ में यह बातें हमेशा से होती रही है। नेहरू गांधी के खिलाफ जो एक पूरा चरित्र हनन अभियान है यह उसका हिस्सा है। लेकिन सत्ता में आने के बाद यह बातें सामने कही जाने लगी हैं। नहीं तो पहले कानों कान एक दूसरे से कहकर देश में अफवाहों का वातावरण निर्मित किया जाता था।

आपको मालूम है आजादी के बाद नेहरू ने सबसे पहला नारा कौन सा दिया था? “ अफवाहें देश की सबसे बड़ी दुश्मन हैं। “ लेकिन सत्ता में आने के बाद यह अफवाहें ऐसे पेश की जाने लगीं जैसे कोई तथ्य हो। आजादी भीख में मिली है। 99 साल के पट्टे पर मिली है। कांग्रेस ने पढ़े लिखे लोगों को राजनीति से दूर करने के लिए एम्स, आईआईटी, सांइस इन्सटिट्यूट खुलवा दिए ताकि लोग उनमें पढ़ने चले जाएं राजनीति में न आएं। ऐसी बहुत सारी अफवाहें संघ ने प्रचारित कर रखी हैं।

और अब अफवाहों से आगे इतिहास बदलने का दौर शुरू कर रहे हैं। जो अब बीजेपी की लोकसभा सदस्य हो गईं है कंगना रनौत, उनका कहना है कि देश 1947 में नहीं बल्की 2014 में आजाद हुआ। और जाहिर है कि उसकी तारीख वह होगी जिस दिन मोदी जी ने प्रधानमंत्री पद की शपथ ली थी।

कुछ भी हो सकता है! 15 अगस्त को गायब करके 2014 के उस दिन को आजादी का दिन घोषित किया जा सकता है। और फिर एक कैलेंडर वह कब का होगा 2024 या उसके बाद का जिस के नीचे यह लिखा जाएगा कि वह आखिरी कैलेंडर जिसमें 15 अगस्त की छुट्टी थी।

राष्ट्रीय ध्वज तिरंगे से लेकर संविधान, 15 अगस्त, 26 जनवरी किसी को भी संघ परिवार ने कभी मान्यता नहीं दी। आरएसएस के मुख्यालय नागपुर पर लंबे समय तक तिरंगा नहीं फहराया गया। जब देश आजाद हुआ और तिरंगे को राष्ट्रीय झंडे का दर्जा दिया जा रहा तो आरएसएस ने कहा था कि हम इसे कभी स्वीकार नहीं करेंगे। 15 अगस्त 1947 को जब पहली बार लाल किले पर तिरंगा फहराने की तैयारी हो रही थी तो आरएसएस के मुखपत्र आर्गनाइजर में संपादकीय लिखा गया कि जो लोग भाग्य से सत्ता में आ गए उन्होंने हमारे हाथ में तिरंगा पकड़ा दिया लेकिन हम न इस स्वीकार कर सकते हैं। न सम्मान। तीन अपने आप में अशुभ है।

संघ के मुख्यालय पर कांग्रेस कार्यकर्ताओं ने 26 जनवरी 2001 को तिरंगा फहरा दिया था। लेकिन उनके खिलाफ पुलिस रिपोर्ट की गई और उन्हें गिरफ्तार करवा दिया गया। मगर 2003 में अदालत ने बाबा मेंढे, रमेश कांबले और दिलीप चट्टानी को बाइज्जत बरी कर दिया।

देश में तिरंगा फहराने के मामले में गिरफ्तारी का यह पहला मामला था। राहुल गांधी ने यह सवाल उठाया है और पूछा कि संघ अपने मुख्यलय पर राष्ट्रीय ध्वज क्यों नहीं फहराता?

दरअसल यह सिर्फ राष्ट्रीय प्रतीकों संविधान, तिरंगा, 15 अगस्त का मामला नहीं है। यह देश के मूल ढांचे को बदलने या वापस अपने पुराने शेप में लाने का मामला है। अभी दिल्ली यूनिवर्सिटी में मनुस्मृति पढ़ाने की कोशिश हुई थी। लेकिन विरोध को देखते हुए यह प्रस्ताव वापस ले लिया गया। लोकसभा के इस चुनाव में दलित, आदिवासी और पिछड़े का वोट भाजपा के साथ नहीं गया। मोदी जो चार सौ पार की बात कर रहे थे वे 240 पर अटक गए। ऐसे में मनुस्मृति का विवाद वे अफोर्ड नहीं कर सकते थे। जिन डा. आम्बेडकर का नाम बारबार लेकर वे दलितों का वोट लेना चाहते हैं उन आम्बेडकर ने मनुस्मृति को दलित आदिवासी पिछड़ों के खिलाफ बताते हुए जलाई थी। संघ का आदर्श वही है। जैसे जब तिरंगा 15 अगस्त 1947 को फहराने से पहले

संघ ने अपने अख़बार आर्गनाइजर में लिखकर उसे अशुभ बताया था। ऐसे 1950 में संविधान को अंगीकार करने से पहले 1949 में आर्गनाइजर में लिखा कि हम इस संविधान को स्वीकार नहीं कर सकते। इसमें कुछ भी भारतीय नहीं है। और जो सबसे खास बात कही वह यह कि मनुस्मृति दुनिया भर में प्रशंसित है।

इसलिए झगड़ा बाबा साहब अंबेडकर के संविधान और मनु की संहिता के बीच का है। हिन्दू मुसलमान तो बहाना है। मुसलमान की आड़ लेकर दलितों पिछड़ों आदिवासियों को दबाना है।

मुसलमान से क्या झगड़ा है? नौकरी में हिस्सा वह नहीं मांग रहा। सामाजिक सम्मान की उसे जरूरत नहीं। उसके पास है। जाति गणना वह नहीं मांग रहा उसकी संख्या ज्ञात है। वह अलग से कोई चीज नहीं मांग रहा। न उसे सवर्णों से हिस्सा चाहिए न दलित आदिवासी पिछड़ों से। वह तो बांग्ला देश में भी धार्मिक अल्पसंख्यक हिन्दुओं पर हमलों का विरोध करता है और पाकिस्तान में भी।

लेकिन फिर भी उसका नाम उपयोग किया जाता है। हर चुनाव में। लेकिन इस बार नहीं चला। खुद प्रधानमंत्री का यह कहना भी बेअसर हुआ कि तुम से छिनेंगे और उन्हें दे देंगे। सबकी समझ में आ गया कि हमारी बेरोजगारी, मंहगाई और दूसरी समस्याओं को दूर करने के बदले यह हमें मुसलमानों के खिलाफ भड़काने के अलावा कुछ नहीं करते।

सबक तो बहुत कड़ा सिखाया। मगर सीखे क्या? फिर उसी हिन्दू-मुसलमान के एजेंडे को चलाने के लिए वक्फ संशोधन बिल ले आए। मगर इस बार जनता ने नहीं सहयोगी दलों ने सबक सिखाया। खुद के 240 ही हैं लोकसभा में। साधारण बहुमत 272 से काफी दूर। टीडीपी जेडीयू लोजपा और लोकदल के सहारे है बहुमत। मगर

यह चारों दल हिन्दू मुसलमान की राजनीति नहीं करते हैं। मेल-मिलाप की राजनीति है इनकी। मुसलमानों के वोट भी मिलते हैं। वे वक्फ बिल का समर्थन नहीं कर सकते।

वोट तो बीजेपी को भी मिलते थे। आज भी मिलते हैं। भाजपा के तमाम प्रत्याशी ऐसे हैं लोकसभा विधानसभाओं में जो मुस्लिम वोट लेते हैं। मगर ध्रुवीकरण के लिए हिन्दू वोट किसी और को न जाएं इस सोच के तहत वे कहते हैं कि मुसलमान हमें वोट नहीं देता है। पार्टी के तौर पर मुसलमान विरोधी माहौल बनाने के लिए भाजपा यह प्रचार करती है। मगर कई प्रत्याशी अपने तौर पर कोशिश करते हैं और वोट भी पाते हैं।

इतना हिन्दू मुसलमान का जहर फैलाने के बाद भी आज हम ऐसे कई भाजपा नेताओं लोकसभा विधानसभा क्षेत्रों के नाम बता सकते हैं जहां मुसलमान वोट भाजपा को मिलता है। आरएसएस ने जो राष्ट्रीय मुस्लिम मंच बना रखा है इसमें मुसलमान आते ही हैं। इंडिया इस्लामिक कल्चर सेंटर में हिन्दू मेम्बर होते ही हैं। अभी उसके चुनाव हुए दो दशक बाद वहां से आरएसएस का वर्चस्व टूटा।

आरएसएस समर्थक सिराज कुरैशी 20 साल से ज्यादा वहां अध्यक्ष रहे। मुसलमान ही वोट देते थे। एक बार तो मामला आरएसएस वर्सेंस बीजेपी हो गया था। आरएसएस समर्थक सिराज कुरैशी के खिलाफ बीजेपी के आरिफ मोहम्मद खान ( केरल के राज्यपाल) लड़ लिए थे। हारे। अभी जीते कांग्रेस के सलमान खुर्शीद इससे पहले कुरैशी से हार चुके हैं।

मतलब देश हिन्दू बनाम मुसलमान की राजनीति का नहीं है। कितना ही चलाओ यह नरेटिव ( कहानी ) चलने वाली नहीं है। मगर बीजेपी के समस्या यह है कि इसके अलावा कोई चारा नहीं है। दलित आदिवासी पिछड़े की तरफ उनके अधिकारों की बात करती हुई जा नहीं सकती। उन्हें अधिकार संविधान से मिले हैं। भाजपा समाज की बात करती है। समाज ने तो उन्हें अस्पृश्य बना कर रखा था।

इसलिए बीजेपी संघ की लड़ाई मुश्किल है। सत्ता तो वह हासिल कर लेती है। मगर बिना सबका साथ लिए और वास्तविक समस्याओं को एड्रेस किए बनाए नहीं रखसकती। इसलिए वह 15 अगस्त नकली, तिरंगा अशुभ और संविधान से मनुस्मृति जैसे प्रतीकात्मक मुद्दों पर भटकती रहती है।

By शकील अख़्तर

स्वतंत्र पत्रकार। नया इंडिया में नियमित कन्ट्रिब्यटर। नवभारत टाइम्स के पूर्व राजनीतिक संपादक और ब्यूरो चीफ। कोई 45 वर्षों का पत्रकारिता अनुभव। सन् 1990 से 2000 के कश्मीर के मुश्किल भरे दस वर्षों में कश्मीर के रहते हुए घाटी को कवर किया।

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