संस्कृत भाषा के विश्ववन्द्य कवि और महान नाटककार कालिदास का जन्म देवभूमि नाम से प्रसिद्ध उत्तराखण्ड के रुद्रप्रयाग जिले में कविल्ठा गांव में हुआ था। कालिदास ने यहीं अपनी प्रारंभिक शिक्षा ग्रहण की थी औऱ यहीं पर उन्होंने मेघदूत, कुमारसंभव औऱ रघुवंश जैसे महाकाव्यों की रचना की थी। कालिदास के जन्म तिथि, जन्म काल, जन्म स्थान, माता-पिता, मृत्यु तिथि आदि के संबंध में स्पष्ट जानकारी का अभाव होने के कारण विद्वानों में मतभेद है। कालिदास रचित मेघदूत नामक ग्रंथ में उज्जैन का बहुत सुंदर वर्णन अंकित होने के कारण कुछ विद्वान अनुमान लगते हैं कि उनका जन्म उज्जैन में हुआ था। विद्वान उन्हें बिहार के मधुबनी जिला के उच्चैठ नामक स्थान के साथ ही उन्हें बंगाल, उड़ीसा सहित अन्य कई स्थानों का भी सिद्ध करने का प्रयत्न किया करते हैं।
जन्म की तरह ही कालिदास की मृत्यु का भी कोई प्रमाण नहीं है। कुछ लोगों का कहना है कि कालिदास की श्रीलंका में हत्या कर दी गई थी, लेकिन कई विद्वान इसे भी कपोलकल्पित मानते हैं। मान्यता यह भी है कि अपनी पत्नी विद्योतमा से अपमान व दुत्कार के बाद कालिदास बिहार के मधुबनी जिला के उच्चैठ में स्थित गुरुकुल में रुके। कालिदास को यहीं उच्चैठ में भगवती से ज्ञान का वरदान मिला और वह महाज्ञानी बने। कुछ विद्वान यह कहते हैं की महाकवि कालिदास का जन्म उच्चैठ में हुआ था। उसके बाद में वह उज्जैन गए थे।
कालिदास शब्द का अर्थ होता है -काली का दास, काली का सेवक। परंतु कालिदास शिव के परम भक्त भी थे। कहा जाता है कि कालिदास की छवि अति सुंदर और मनमोहक थी। और वे एक मजबूत शरीर के स्वामी थे। वे हर किसी को अपनी तरफ आकर्षित कर लेते थे। वे ईसा संवत से 57 वर्ष पूर्व प्रारंभ हुए विक्रम संवत प्रवर्तक महाराजा विक्रमादित्य के दरबार में नवरत्नों में से एक थे। मान्यता यह भी है कि बचपन में अनपढ़, मूर्ख और चीजों की समझ नहीं रखने वाले कालिदास कालांतर में संस्कृत साहित्य के विद्वान बन गए।
एक प्रसिद्ध संस्कृत कवि और रचनाकार बनने के पूर्व शुरुआती जीवन में लोग उन्हें बहुत ही मूर्ख और अनपढ़ मानते थे। यह भी कहा जाता है कि 18 वर्ष की आयु तक वे अज्ञानी थे, और कोई भी कार्य करते समय उसमें वे अपनी मूर्खता का परिचय देते थे। लेकिन संयोग से उनका विवाह परम विदुषी राजकुमारी विद्योतमा से हुआ, जिसके अपमान से दुखित हो वे घर से निकले और कठिन तपस्या से विद्वान बन कर ही विद्योतमा के पास वापस आए।
प्रचलित मान्यतानुसार विदुषी राजकुमारी विद्योतमा (विद्योत्मा) ने प्रतिज्ञा की थी कि उसे शास्त्रार्थ में हराने वाले से ही वह विवाह रचाएंगी। इस प्रतिज्ञा को सुन कई विद्वान शास्त्रार्थ हेतु आए। लेकिन जब शास्त्रार्थ में विद्योतमा ने सभी विद्वानों को हरा दिया तो अपमान से दुखी होकर इसका बदला लेने के लिए छल से कुछ धूर्त विद्धानों ने कालिदास से राजकुमारी विद्योतमा का शास्त्रार्थ करवाया और उसमें कालिदास को विजयी घोषित कर कालिदास का विवाह राजकुमारी विद्योतमा से करवा दिया। शादी के कुछ दिनों बाद जब राजकुमारी विद्योतमा को कालिदास की मंद बुद्धि का पता चला तो वे अत्यंत दुखी हुईं और कालिदास को धिक्कारा। और यह कह कर घर से निकाल दिया और कहा कि अगर वे विद्या और प्रसिद्धि अर्जित कर लौटते हैं, तो वह उन्हें स्वीकार कर लेगी।
पत्नी से अपमानित हुए कालिदास ने विद्या प्राप्त करने का संकल्प लेकर सत्य हृदय से विद्वान बनने की ठानी और इस संकल्प के साथ वे घर से निकल प़ड़े। और माता काली की सच्चे मन से उपासना करने लगे। शीघ्र ही माता काली के आशीर्वाद से वे परम ज्ञानी और साहित्य के विद्धान बन गए। ज्ञान प्राप्ति के बाद जब वे घर लौटे तो उन्होंने दरवाजा खटखटा कर कहा – कपाटम् उद्घाट्य सुन्दरि! अर्थात- दरवाजा खोलो, सुन्दरी। विद्योत्तमा ने चकित होकर कहा – अस्ति कश्चिद् वाग्विशेषः अर्थात कोई विद्वान लगता है। विद्योत्मा दरवाजे पर सुनकर ही समझ गईं कि कोई विद्धान व्यक्ति आया है। दरवाजे पर अपने पति कालिदास को देकहकर वह अत्यंत आश्चर्यचकित हुई। इस तरह उन्हें अपनी पत्नी के धिक्कारने के बाद परम ज्ञान की प्राप्ति हुई और वे महान कवि बन गए।
इसीलिए विद्या और प्रसिद्धि अर्जित कर लौटे कालिदास ने विद्योत्तमा को अपना पथप्रदर्शक गुरु माना है और घर आने के समय के अपनी पत्नी के वाक्य को अपने काव्यों में भी जगह दी है। कालांतर में महाकवि कालिदास ने नाट्य, महाकाव्य और गीतिकाव्य के क्षेत्र में अपनी अदभुत रचनाशक्ति का प्रदर्शन कर अपनी एक अलग ही पहचान बनाई। कालिदास के द्वारा अपनी दूरदर्शी सोच और विलक्षण बुद्धि से लिखी गई रचनाओं के कारण ही आज भी उनकी गणना दुनिया के सर्वश्रेष्ठ कवियों और नाटककारों में की जाती है। और कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि को उनकी जन्म होने की मान्यता होने के कारण कार्तिक शुक्ल एकादशी को कालिदास जयंती मनाया जाता है।
कालिदास की रचनाओं का साहित्य के साथ ही ऐतिहासिक महत्त्व भी है। उनके रचनाओं की लंबी सूची है, लेकिन कालिदास को उनकी सात रचनाओं के कारण सबसे ज्यादा लोकख्याति प्राप्त हुई है, जिसमें चार काव्य ग्रंथ- रघुवंश, कुमारसंभव (महाकाव्य) और मेघदूत, ऋतुसंहार (खंडकाव्य) तथा तीन नाटक -अभिज्ञान शाकुंतलम्, मालविकाग्निमित्र, विक्रमोर्वशीय शामिल हैं। इन रचनाओं की मुग्ध और भावविभोर कर देने वाली सुन्दर सरस भाषा, प्रेम और विरह की अभिव्यक्ति तथा प्रकृति चित्रण के कारण वे दुनिया के सर्वश्रेष्ठ और महान कवि कहलाए। कालिदास के द्वारा भारत की पौराणिक कथाओं और दर्शन को आधार बनाकर की गई रचनाओं में भारतीय जीवन और दर्शन के विविध रूप और मूल तत्त्व निरूपित हैं। उनकी कविता के स्वर देशकाल की परिधि को लांघकर सार्वभौमिक हो गए।
कालिदास अपनी इन्हीं विशेषताओं के कारण राष्ट्र की समग्र राष्ट्रीय चेतना को स्वर देने वाले कवि माने जाते हैं। कालिदास विशेष रूप से अपनी अलंकार युक्त किन्तु सरल और मधुर भाषा के लिए जाने जाते हैं। कालिदास के काव्यगत विशिष्टताओं से अभिभूत होकर ही उनको कविकुलगुरु, कनिष्ठिकाधिष्ठित और कविताकामिनीविलास जैसी प्रशंसात्मक उपाधियां प्रदान की गयी हैं। कालिदास वैदर्भी रीति के कवि माने जाते हैं, जिन्होंने अपनी रचनाओं में प्रसाद गुण से पूर्ण ललित शब्द योजना का प्रयोग किया है। सूखी ईंधन की लकड़ी में सहसा प्रज्वलित हो उठने वाली अग्नि की भांति ही मन में आने वाली गुण को, बात को तत्क्षण अपनी भाषा में उतार देना प्रसाद गुण का लक्षण माना जाता है। और कालिदास की भाषा की यही विशेषता है। मधुर नाद सुंदरी से युक्त कालिदास की भाषा में समासों का अल्पप्रयोग, पदों का समुचित स्थान पर निवेश, शब्दालंकारों का स्वाभाविक प्रयोग आदि गुणों के कारण उसमें प्रवाह और प्रांजलता विद्यमान है। कालिदास ने शब्दालंकारों का स्वाभाविक प्रयोग किया है। यही कारण है कि उन्हें उपमा अलंकार के प्रयोग में सिद्धहस्त और उनकी उपमाओं को श्रेष्ठ माना जाता है।
नाटककार और कवि के अतिरिक्त कालिदास ज्योतिष के भी विशेषज्ञ माने जाते हैं। उत्तर कालामृतम् नामक ज्योतिष पुस्तिका की रचना का श्रेय कालिदास को दिया जाता है। ऐसा माना जाता है कि काली देवी की पूजा से उन्हें ज्योतिष का ज्ञान मिला। इस पुस्तिका में की गई भविष्यवाणी सत्य साबित हुईं। कालिदास को ज्योतिष से संबंधित – श्रुतबोधम्, शृंगार तिलकम्, शृंगार रसाशतम्, सेतुकाव्यम्, पुष्पबाण विलासम्, श्यामा दंडकम्, ज्योतिर्विद्याभरणम् आदि छोटी ग्रंथों का रचना करने के भी श्रेय प्राप्त है। लेकिन इस पर भी विद्वानों में मतभेद है। कालिदास रचित ग्रंथों की तालिका बहुत लंबी होने के कारण विद्वानों का मत है कि इस नाम के और भी कवि हुए हैं जिनकी ये रचनाएं हो सकती हैं।