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राज कपूर: हम तुम्हारे रहेंगे सदा

100 Years Of Raj KapoorImage Source: ANI

100 Years Of Raj Kapoor: व्यावसायिकता के सामानांतर उन्होंने कथ्य की गंभीरता को दर्ज करने का मुहावरा फिल्मों में विकसित किया। उनकी लगभग सभी फिल्में विषय केंद्रित हैं। भारतीय सिनेमा के इतिहास में एक अभिनेता की जगह से बड़ी जगह एक निर्देशक के रूप में सदैव राज साहब की रहेगी। राज साहब की फिल्में हों या व्यक्तिगत जिंदगी दोनों में उत्साह, उमंग और उत्सवधर्मिता का बाहुल्य दिखता है।

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राज कपूर की सौवीं जयंती (14 दिसंबर) के मौके पर

डॉ. मनीष चौधरी

राज कपूर हिंदी सिनेमा के एक ऐसे सितारा हैं, जिसका व्यक्तित्व बहुआयामी एवं बहुवचनात्मकता का पर्याय है।

अप्रतिम अभिनय प्रतिभा, कलात्मक निर्देशकीय कौशल, संगीत की बारीक़ समझ, विषय की जटिलता को परदे पर उतनी ही सजीवता से उतारने वाला दक्ष और स्वर्णयुगीन फ़िल्मकार राज कपूर का यह शताब्दी वर्ष है।

राज कपूर को प्रेम और सम्मान से फिल्म जगत के लोग राज साहब के नाम से सम्बोधित करते थे। राज साहब के सम्पूर्ण सिनेमाई यात्रा में मनुष्य होने का भरोसा, मनुष्य होने का संतोष और मनुष्य होने का सम्मान दृष्टिगोचर होता है।

आधुनिक सभ्यता की जो सबसे बुनियादी चुनौती है वह साधारणता में मनुष्य के भरोसे की सुरक्षा है।

यह सभ्यतागत संकट है कि साधारणता के अस्तित्व के प्रति जो मनुष्य की चेतना का भरोसा है, उसको कैसे बहाल रखा जाए। राज साहब की फिल्मों का एक गंभीर मुद्दा मनुष्य की साधारणता में निहित मनुष्यता की पहचान है।

इसलिए ‘आवारा’ हो या ‘श्री 420’ हो, जितनी भी फिल्में हैं। उनके केंद्र में साधारण मनुष्य है। इसलिए राज साहब की फिल्मों की जो आधार भूमि है, वह मनुष्य की साधारणता की रक्षा है।

जीवन की एक सशक्त चेतना प्रेम

प्रेम जीवन की एक सशक्त चेतना है, एक स्वस्थ भावना है, एक सामाजिक विश्वास है। राज साहब की फिल्में प्रेम के आयतन को विस्तृत और व्यापक सन्दर्भ देती है।

प्रेम को लेकर एक जिद की जगह समर्पण और त्याग, बलिदान या फिर प्रेम की पीड़ा को बरदाश्त करने की क्षमता का दर्शन उनकी फिल्मों में दर्ज होता है।

वहां एक दैहिक वासना की पूर्ति का माध्यम नहीं बल्कि उस प्रेम के भीतर भावनाओं और सम्बन्धों की एक बहती नदी है। राज साहब बार-बार उस नदी के तल का स्पर्श करते हैं।

समय को केंद्र में रख कर जीवन की कथासूत्र बुनते हैं। कोई रिश्ता हो विचार हो या धारणा वह अपने आप में पूर्ण नहीं होती, बल्कि वह निरंतर परिवर्तनशील होती है।

‘मेरा नाम जोकर’ में समय और जीवन के बेहद जटिल रिश्ते और दार्शनिक भावों को एक फ़िल्मी सेटअप में विकसित किया है। वह अपने आप में अद्भुत है।

समय के भीतर जो जिंदगी के बहुत सारे चेहरे हैं, उन चेहरों की रेखाओं को, उनकी बारीकियों को पहचानने और उसके फिल्म रूपांतरण में राज साहब बेमिसाल हैं।

सौंदर्य में, सत्य में और सुंदर में एक सम्बन्ध

राज साहब प्रेम, देह और सौंदर्य के उलझे रिश्तों के प्रश्नों को भी बड़ी गंभीरता से ‘सत्यम शिवम् सुंदरम’ फिल्म के द्वारा उद्घाटित करते हैं।

सौंदर्य में, सत्य में और सुंदर में एक सम्बन्ध है। जो इस फिल्म की अंतर्ध्वनि है। एक पूरी बाजार व्यवस्था द्वारा जो सौंदर्य का मायाजाल बुना गया उसे ‘सत्यम शिवम् सुंदरम’ तोड़ देती है।

सौंदर्य सत्य, शिव और सुंदर के त्रिकोण पर टिकी है। फिल्म के अनुशासन में जीवन के इतने बड़े गहरे प्रश्न को एक ग्लैमरस अभिनेत्री के द्वारा सेलुलाइड पर संभव कर दिखाना राज साहब की निर्देशकीय प्रतिभा का नायब उदाहरण है।

जीवन के बेहद गहरे और दार्शनिक प्रश्नों को अपने समय के दर्शकों तक पहुंचाने में महारत हासिल थी।

राज साहब के अभिनय में भोलापन

अभिनय में एक खास तरह की अनासक्तता और साधारणता का दर्शन होता है। जो उनकी विशिष्ट अभिनय शैली में परिवर्तित हो जाता है।

उनके अभिनय में एक भोलापन, एक साधारण और पराजित मनुष्य की सम्पूर्ण जिजीविषा दिखाई देती है। मनुष्यता की मूल्यों की रक्षा करते हुए हार जाना ही राज साहब की जीत है। ‘तीसरी कसम’ में हीराबाई को खोते हैं।

यहां हार जाने की शर्त पर भी मनुष्य की अच्छाई की रक्षा करते हुए दिखलाई देते हैं। आधुनिक सभ्यता के अंधेरे से कलात्मक स्तर पर, सौंदर्य के स्तर पर और मानवीय मूल्य के स्तर पर जो संघर्ष की चेतना थी, उस चेतना के एक फ़िल्मी संस्करण का नाम राज कपूर है।

राज साहब के सदाबहार गाने

राज साहब के फिल्मों के गाने दृश्यों से बाहर निकलकर आम बोलचाल एवं जीवन में घुलमिल गए हैं।

‘सजन रे झूठ मत बोलो खुदा के पास जाना है’, ‘सब कुछ सीखा हमने न सीखी होशियारी’, ‘किसी की मुस्कुराहटों पे हो निसार’, ‘आवारा हूं’ ,’जिस देश में गंगा बहती है’, ‘मेरा जूता है जापानी’, ‘ये भाई जरा देख के चलो’, ‘एक दिन बिक जाएगा’। चेतना और संगीत की लयात्मकता के साथ इतने गहरे स्तर पर संदेश देने की कला राज साहब की विशेषता है।

तुलसी, कबीर, ग़ालिब को अपनी भाषा में हम लगातार याद करते हैं। वह सिर्फ हमारे कथन में नहीं, बल्कि सोचने में मौजूद हैं।

फिल्मों में जब भी मनुष्यता, प्रेम, भरोसा, उम्मीद, और दुख से लड़ने की बात होगी, निःसंदेह राज कपूर के गीतों को याद किया जाएगा।

उनका संगीत उत्तेजना पैदा नहीं करता, बल्कि विचार में ढल कर हमारी चेतना का परिष्कार करता है।

एक ही काल खंड में राज कपूर, देवानंद और दिलीप कुमार का त्रयी होना भी तीनों की सर्व स्वीकृति और भारतीय समाज की बहुलता और बहुवचनात्मकता को व्यंजित करती है।

यह वह दौर है जहां एक रूचि का, एक धरा का, एक शैली का वर्चस्व नहीं है। वैविध्य की लोकतांत्रिक स्वीकृति है। यह बहुलतावादी हिंदुस्तान का प्रमाण है।

राज कपूर और नरगिस का रिश्ता

राज कपूर और नरगिस का रिश्ता बेहद खास और चर्चित रहा। राज साहब और नरगिस का अभनय सिर्फ एक प्रोफेशनलिज्म पर आधारित नहीं था एक गहरा आत्मीय सम्बन्ध था।

उस गहरे सम्बन्ध की की सामाजिक स्वीकृति कभी संभव नहीं हुई। इससे उपजी पीड़ा राज कपूर में मुखर नहीं दिखती लेकिन उनकी आंखों में और अभिनय में वह वैयक्तिक पीड़ा बार-बार झलकती है। दर्द बयां करती है।

वह पीड़ा जीवन की परिस्थितियों की उपज थी। अभिनय की दुनिया के बाहर भी उन दोनों के रिश्तों की अधूरी जमीन है।

यह जोड़ी भारतीय सिनेमा में एक भावनात्मक अध्याय बनकर रह गई है। ‘कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता’ यह राज साहब पर भी लागू होता है। यह नियति की त्रासदी है।

राज साहब एक निर्देशक के रूप में गंभीर विषयों को परदे पर उतारने का साहस करने में अकीरा कुरोसावा के नजदीक दिखते हैं।

देह की उपस्थिति का लालित्य राज साहब में अप्रतिम स्तर पर उद्घाटित होता है। राज साहब की फिल्मों की लगभग सभी नायिका देह के स्तर पर एक लचकती हुई भाषा में मोहक कविता की प्रस्तुति है।

भारतीय सिनेमा के इतिहास

राज साहब राजश्री बैनर की तरह शिष्ट, मर्यादित, पवित्रता केंद्रित नहीं थे। दर्शकों की आंखों में स्त्री के देह की भूख को वे अस्वीकार न करके, उसकी उपेक्षा न करके, इस भूख को मिटाने की प्रक्रिया में अपनी बात कह देने के कलात्मक कौशल का प्रदर्शन करते हैं।

व्यावसायिकता के सामानांतर उन्होंने कथ्य की गंभीरता को दर्ज करने का मुहावरा फिल्मों में विकसित किया।

उनकी लगभग सभी फिल्में विषय केंद्रित हैं। भारतीय सिनेमा के इतिहास में एक अभिनेता की जगह से बड़ी जगह एक निर्देशक के रूप में सदैव राज साहब की रहेगी।

राज साहब की फिल्में हों या व्यक्तिगत जिंदगी दोनों में उत्साह, उमंग और उत्सवधर्मिता का बाहुल्य दिखता है। अपने शानदार पार्टियों और संबंधों की दुनिया के लिए आज भी राज साहब याद किए जाते हैं।

शंकर जयकिशन, मुकेश, लता मंगेशकर, शैलेंद्र, हसरत जयपुरी, मन्ना डे राज साहब की हस्ती का अनिवार्य अंग थे। क्लास और मास दोनों में राज साहब की सामान स्वीकृति थी।

उनकी लोकप्रियता सिर्फ इस उपमहाद्वीप तक सीमित न होकर रूस, चीन, तुर्की और लगभग मिडिल ईस्ट तक आज भी जीवंत है।

देवताओं सा पवित्र ह्रदय और आनंद, उल्लास की अनवरत यात्रा करने वाले राज साहब को सौवां जन्मदिन मुबारक।

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के दौलत राम कॉलेज में सहायक प्राध्यापक हैं। और नई दिल्ली में राज कपूर शताब्दी वर्ष समारोह के आयोजन के संयोजक हैं।)

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