मान्यता है कि चातुर्मास की अवधि के दौरान किसी भी जीवन रूप को मारने से संतों को नुकसान हो सकता है। तदनुसार वे अपने आंदोलनों को प्रतिबंधित करते हैं। इस काल में भूमि शयन, ब्रह्म बेला में उठकर स्नानादि कार्य से निवृत हो ईश्वरभक्ति, वेदपाठ, भजन- कीर्तन, मौन व्रत पालन, एक समय भोजन आदि कार्य शुभ माने गये हैं। विवाह संस्कार, जातकर्म संस्कार, गृह प्रवेश आदि सभी मंगल कार्य पूर्णतः निषेध माने गये हैं। पौराणिक मान्यतानुसार चौमासा में किये गये शुभ कार्य का फल प्राप्त नहीं होता है।
30 जून- चातुर्मास प्रारम्भ
भारतीय पंचांग के अनुसार आषाढ़ शुक्ल एकादशी से प्रारंभ होकर कार्तिक शुक्ल एकादशी तक चलने वाली चार माह की अवधि चातुर्मास कहलाती है। चातुर्मास को चौमासा भी कहा जाता है। वर्ष के चार मास मुख्यतः अर्द्ध आषाढ़, श्रावण, भाद्रपद, आश्विन और अर्द्ध कार्तिक चातुर्मास कहलाते हैं। भारतीय संस्कृति में व्रत, भक्ति और शुभ कर्म के लिए प्रसिद्ध व पवित्र इन चार महीनों को चातुर्मास कहा गया है। चातुर्मास का प्रारंभ आषाढ़ शुक्ल एकादशी अर्थात देवशयनी एकादशी से होता है और अंत कार्तिक शुक्ल एकादशी को देवोत्थान एकादशी से। ध्यान और साधना करने वाले लोगों के लिए महत्वपूर्ण चातुर्मास काल में मनुष्य की शारीरिक और मानसिक स्थिति तो स्वस्थ, सबल होती ही है, वातावरण भी अच्छा रहता है। लेकिन इन चार माह के समय जहां मनुष्य की पाचनशक्ति कमजोर पड़ने लगती है, वहीं भोजन और जल में बैक्टीरिया की तादाद भी बढ़ जाती है। इसलिए चातुर्मास के आरम्भ के पहले सम्पूर्ण मास में व्यक्ति के लिए व्रत का पालन करना सबसे महत्वपूर्ण माना गया है। चातुर्मास काल में विवाह संबंधी कार्य, मुंडन विधि, नाम करण आदि शुभ, मांगलिक कार्य वर्जित हैं, लेकिन इन दिनों भागवत कथा, रामायण, सुंदरकांड पाठ, भजन संध्या एवं सत्य नारायण की पूजा आदि धार्मिक अनुष्ठान सम्पन्न किये जाते हैं।
चातुर्मास का हिन्दू के साथ ही अन्य धर्मों में भी महत्वपूर्ण स्थान है। हिन्दू धर्म में चौमासे में आने वाले अनेक महत्वपूर्ण पर्व -त्यौहार व अनुष्ठान विधिपूर्वक सम्पन्न किये जाते हैं। जैन धर्म में चौमासे के महत्व का पता इसी से चल जाता है कि आबाल, वृद्ध स्त्री- पुरुष सभी जैनी चातुर्मास काल में मंदिर जाकर विविध प्रकार के धार्मिक अनुष्ठान करते हैं, सत्संग में भाग लेते हैं। गुरुवरों एवं आचार्यों द्वारा सत्संग किये जाते हैं। एवं मनुष्यों को सन्मार्ग की ओर चलने के लिए प्रेरित किया जाता हैं। बौद्ध धर्म में भी चातुर्मास का विशेष महत्व है। गौतम बुद्ध के चौमासा की अवधि में राजगीर के राजा बिम्बिसार के शाही उद्यान में ठहरने की कथा अत्यंत प्रसिद्ध है। बौद्धों में अहिंसा का बहुत महत्व है। उष्ण कटिबंधीय जलवायु में बड़ी संख्या में कीट उत्पन्न होते हैं, जो यात्रा करने वाले भिक्षुकों द्वारा कुचल जाते हैं। यही कारण है कि साधु व बौद्ध गुरु बरसात में किसी एक स्थान पर रूक जाते हैं, और आमजन को सदुपदेश दिया करते हैं। साधु- संत चातुर्मास की अवधि में हिंसा करने से बचने की कोशिश करते हैं। ऐसा वे जीवन के किसी भी रूप को नुकसान पहुंचाने से बचने के लिए करते हैं। बरसात के मौसम को कीड़ों के प्रजनन का समय माना जाता है।
मान्यता है कि चातुर्मास की अवधि के दौरान किसी भी जीवन रूप को मारने से संतों को नुकसान हो सकता है। तदनुसार वे अपने आंदोलनों को प्रतिबंधित करते हैं। इस काल में भूमि शयन, ब्रह्म बेला में उठकर स्नानादि कार्य से निवृत हो ईश्वरभक्ति, वेदपाठ, भजन- कीर्तन, मौन व्रत पालन, एक समय भोजन आदि कार्य शुभ माने गये हैं। विवाह संस्कार, जातकर्म संस्कार, गृह प्रवेश आदि सभी मंगल कार्य पूर्णतः निषेध माने गये हैं। पौराणिक मान्यतानुसार चौमासा में किये गये शुभ कार्य का फल प्राप्त नहीं होता है। इसलिए इस काल में कोई भी शुभ कार्य नहीं करना चाहिए। सनातन समाज में पालन किये जाने वाले कुछ नियम के कारण भी इसमें कोई शुभ कार्य नहीं किया जाता है। इस काल में किसी प्रकार के कोई भी मुहूर्त नहीं निकाले जाते है। यहां तक कि समाज के पुरोहित भी इस काल में कोई भी शुभ कार्य करने के लिए मुहूर्त निकालने से मना कर देते हैं। इस काल में नशीले पदार्थों का सेवन भी वर्जित है।
चातुर्मास की शुरूआत देवशयनी एकादशी से होती है, जो इस वर्ष 2023 में 29 जून को पड़ रही है, और इसकी समाप्ति 23 नवंबर को कार्तिक मास की एकादशी पर खत्म होगी। इस बीच सभी शुभ कार्य जैसे शादी समारोह आदि कार्य नहीं किये जाते हैं। क्योंकि उस समय विष्णु भगवान अपनी निद्रा में होते हैं। इसलिए चातुर्मास शुरू होने पर इनकी पूजा की जाती है, और उनके निद्रा से उठने पर ही शादी आदि मांगलिक कार्य शुरू हो जाते हैं। चौमासा के सभी माह त्योहारों से भरे होते हैं। चौमासा के समाप्त होते ही शादी, मुंडन आदि धार्मिक कार्य शुरू हो जाते हैं। देव उठनी एकादशी से ही विवाह कार्य प्रारंभ हो जाते हैं। इस दिन देवी तुलसी का विवाह होता है। कहीं- कहीं इसे छोटी दीवाली भी कहा जाता है।
चातुर्मास के सम्बन्ध में प्रचलित पौराणिक कथा के अनुसार एक बार योगनिद्रा ने भगवान विष्णु की कठोर साधना की, और विष्णु को प्रसन्न कर लिया। प्रसन्नतापूर्वक मंद- मंद मुस्कुराते भगवान विष्णु से वह बोली- आपने सभी को अपने अंदर स्थान दिया है। मुझे भी अपने अंगों में स्थान देने की कृपा करें। लेकिन विष्णु के शरीर में कोई भी ऐसा स्थान नहीं था जहां वह योगनिद्रा को स्थान दे सकें। उनके शरीर में शंख, चक्र, शांर्गधनुष व असि बाहुओं में अधिष्ठित हैं, सिर पर मुकुट है, कानों में मकराकृत कुण्डल हैं, कन्धों पर पीताम्बर है, नाभि के नीचे के अंग वैनतेय (गरुड़) से सुशोभित है। ऐसे में विष्णु के पास सिर्फ नेत्र ही बचे थे, जिसमें वे किसी को स्थान दे सकते थे। इसलिए विष्णु ने योगनिद्रा को अपने नेत्रों में रहने का स्थान दे दिया और कहा कि तुम चातुर्मास के चार मास तक मेरे नेत्रों में ही वास करोगी। उसी दिन से भगवान विष्णु देवशयनी एकादशी से लेकर देवउठनी एकादशी तक निद्रा अवस्था में रहते हैं। और इन चार मासों को चातुर्मास्य कहा जाता है। जिसमें सभी देवता प्रसुप्त अवस्था में रहते हैं। इसलिए इस काल को देवताओं के शयन का काल भी कहा जाता है। इसी कारण इन चार महीनों में कोई भी शुभ कार्य नहीं किया जाता।
एक अन्य पौराणिक मान्यतानुसार चातुर्मास की अवधि में ही आषाढ़ के महीने में भगवान विष्णु ने वामन रूप में अवतार लिया था, और राजा बलि से तीन पग में सारी सृष्टि ही दान में ले ली थी। उन्होंने राजा बलि को उसके पाताल लोक की रक्षा करने का वचन दिया था। इसीलिए श्रीविष्णु अपने समस्त स्वरूपों से राजा बलि के राज्य की पहरेदारी करते हैं। मान्यता है कि इस अवस्था में भगवान विष्णु निद्रा में चले जाते हैं। एक अन्य मान्यता के अनुसार चातुर्मास के इन चार महीनों में भगवान शिव धरती का कार्य भार संभालते हैं। इसीलिए चार्तुमास में भगवान शिव की विशेष पूजा अर्चना किये जाने की परिपाटी है। इन चार महीनों मे भगवान शिव पृथ्वीं का भ्रमण करते हैं। इन चार महीनों में भगवान शिव की पूजा – अर्चना करने वाले व्यक्तियों को शिव का विशेष आर्शीवाद प्राप्त होता है। देवशयनी एकादशी से विष्णु योग निद्रा में चले जाते हैं। इसके बाद भगवान विष्णु कार्तिक मास की एकादशी पर जाग्रत अवस्था में आते हैं। भगवान शिव के भक्तों का प्रिय मास श्रावण भी चातुर्मास की अवधि में ही आता है।
मान्यतानुसार सावन के महीने में भगवान शिव की उपासना होने से उनकी कृपा सरलता से मिलती रहती है। श्रावण मास के सोमवार को भक्तों द्वारा शुभ माना जाता है। इसलिए शिवभक्त इस अवधि के दौरान उपवास के लिए विशेष तैयारी करते हैं। इस वर्ष 2023 में चातुर्मास की अवधि में ही श्रावण मास में अधिकमास भी पड़ रहा है। श्रावण मास अधिकमास होने के कारण इस वर्ष दो महीने के बराबर सावन मास होगा और तिथि के अनुसार उनसठ दिनों का यह सावन होगा। अधिकमास को पुरुषोतम मास भी कहा जाता है। अधिकमास तीन वर्ष में एक बार आता हैं, एवं गणना में अनुसार वह किसी भी महीने में आ जाता हैं। इस अधिक मास का भी चौमासा के समान ही महत्व है। इस वर्ष 2023 में कई वर्षों के बाद श्रावण मास में अधिकमास पड़ रहा है। इसलिए इस सावन का महत्व और अधिक बढ़ गया हैं।