भारत ब्रिक्स करेंसी की योजना से सहमत नहीं है, यह बात कुछ समय पहले विदेश मंत्री एस जयशंकर ने स्पष्ट कर दी थी। जयशंकर ने कहा- ब्रिक्स का अपनी मुद्रा शुरू करने का कोई इरादा नहीं है। मुद्राएं निकट भविष्य में राष्ट्रीय दायरे में ही रहेंगी। किसी नई मुद्रा को आगे बढ़ाने के बजाय भारत का इरादा अपनी मुद्रा- रुपये को मजबूत करना है। रुपये को मजबूत करना भारत सरकार का प्राथमिक उद्देश्य है।तो यह भी साफ हो चुका है कि ब्रिक्स समूह के बाकी देश और भारत दक्षिण अफ्रीका में होने वाले शिखर सम्मेलन के दोनों प्रमुख एजेंडे पर समान आधार पर नहीं हैं।
ब्रिक्स (ब्राजील- रूस- भारत- चीन- दक्षिण अफ्रीका) अपनी मुद्रा शुरू करेंगे, यह चर्चा तो काफी समय से है, लेकिन इस बारे में पहली आधिकारिक पुष्टि भी अब हो गई है। रूस के केन्या स्थित दूतवास ने छह जुलाई को कहा कि ब्रिक्स देश अपनी मुद्रा शुरू करने की तैयारी में हैं। इसके बाद चीन के अखबार ग्लोबल टाइम्स के एक विश्लेषण में भी इस बात का उल्लेख किया गया। ग्लोबल टाइम्स में छपी बातों को अक्सर चीन सरकार की सोच के रूप में देखा जाता है।
रूस की इस घोषणा पर पत्रकारों ने अमेरिका की वित्त मंत्री जेनेट येलेन की प्रतिक्रिया मांगी। ध्यान देने की बात यह है कि येलेन ने इस संभावना से इनकार नहीं किया। सिर्फ यह कहा- ‘मैं यह दोहराना चाहती हूं, जैसाकि मैंने पहले भी कहा है, कि आने वाले वर्षों के दौरान अंतरराष्ट्रीय लेन-देन की सुविधा देने और रिजर्व करेंसी के रूप में डॉलर की भूमिका के बारे में अमेरिका आश्वस्त रह सकता है। मुझे नहीं लगता कि किसी विकसित हो रही मुद्रा से, जिनमें आपने जिसका जिक्र किया वह भी शामिल है, डॉलर की भूमिका के लिए कोई खतरा पैदा होगा।’ विश्लेषकों ने इसका अर्थ यह निकाला कि अमेरिका को भी यह सूचना है कि ब्रिक्स अपनी करेंसी शुरू करने की तैयारी में है।
रूस के केन्या दूतावास ने एक अन्य महत्त्वपूर्ण बात यह कही कि ब्रिक्स की करेंसी gold backed यानी स्वर्ण आधारित होगी। अगर ऐसा सचमुच होता है, तो जेनेट येलेन का यह भरोसा जल्द ही डिगता हुआ नजर आ सकता है। क्यों? इसकी चर्चा हम इस लेख में आगे करेंगे। फिलहाल, यह तय है कि 22-24 अगस्त को दक्षिण अफ्रीका में होने जा रहे ब्रिक्स शिखर सम्मेलन में इस समूह के विस्तार के साथ-साथ इस समूह की अपनी करेंसी लॉन्च करने का प्रश्न भी चर्चा का मुख्य एजेंडा होगा। अभी तक जो संकेत है, उससे साफ है कि भारत के अलावा ब्रिक्स के बाकी चार सदस्य देश इन दोनों मुद्दों पर एकमत हैँ।
खबरों के मुताबिक भारत को ब्रिक्स के विस्तार पर आपत्ति रही है। इस आपत्ति के ही कारण इच्छुक देशों को नए सदस्य के रूप में स्वीकार करने का पैमाने तय करने के लिए ब्रिक्स ने एक समिति का गठन किया था। बताया जाता है कि समिति ने अपनी रिपोर्ट तैयार कर ली है। अब देखने की बात होगी कि क्या भारत उस पर सहमत होता है?
बहरहाल, भारत ब्रिक्स करेंसी की योजना से सहमत नहीं है, यह बात कुछ समय पहले विदेश मंत्री एस जयशंकर ने स्पष्ट कर दी थी। जयशंकर ने कहा- ब्रिक्स का अपनी मुद्रा शुरू करने का कोई इरादा नहीं है। मुद्राएं निकट भविष्य में राष्ट्रीय दायरे में ही रहेंगी। किसी नई मुद्रा को आगे बढ़ाने के बजाय भारत का इरादा अपनी मुद्रा- रुपये को मजबूत करना है। रुपये को मजबूत करना भारत सरकार का प्राथमिक उद्देश्य है।
तो यह भी साफ हो चुका है कि ब्रिक्स समूह के बाकी देश और भारत दक्षिण अफ्रीका में होने वाले शिखर सम्मेलन के दोनों प्रमुख एजेंडे पर समान पृष्ठ पर नहीं हैं। यह मतभेद क्या व्यावहारिक रूप लेगा, अभी अनुमान लगाना मुश्किल है। संभव है कि ब्रिक्स की आम सहमति की परंपरा का पालन करते हुए बाकी देश दोनों मुद्दों को अगले शिखर सम्मेलन के लिए टाल दें। लेकिन अधिक संभावना यह है कि वे शंघाई सहयोग संगठन (SCO) की इस महीने हुई शिखर बैठक के मॉडल पर चलेंगे और भारत की असहमति को दर्ज करते हुए दोनों मुद्दों पर आगे बढ़ने का फैसला करेंगे।
चूंकि ब्रिक्स में अब चीन और रूस ने नेतृत्वकारी भूमिका अपना ली है, जिस पर भारत के अलावा किसी अन्य देश को एतराज नहीं है, इसलिए यह मान कर चलना चाहिए अगर इन दोनों देशों में ब्रिक्स मुद्रा को शुरू करने पर रजामंदी बन गई है, तो ऐसा अभी या कुछ देर से जरूर होगा।
अब महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह है कि क्या ब्रिक्स की मुद्रा सचमुच स्वर्ण आधारित होगी? अगर ऐसा हुआ, तो डॉलर सहित अभी प्रचलित तमाम fiat currencies की कीमत और प्रभाव में तेजी से क्षय हो सकता है।
आगे बढ़ने के पहले यह स्पष्ट कर लें कि दुनिया के इतिहास में मुद्राएं दो प्रकार की रही हैं। मध्य काल तक मुद्राएं खुद वैसे ही कीमती धातु की होती थीं, जो बड़ी मांग होने के कारण अपने-आप में कीमती होती थी- मसलन, सोना या चांदी। बाद में जब सरकारें कागज की मुद्रा जारी करने लगीं, तब से मॉडल यह रहा है कि उसकी कीमत को संबंधित देश के भंडार में मौजूद सोने या चांदी जैसी किसी मुद्रा से संबंधित किया जाए। मोटे तौर पर यह धातु सोना ही रहा है।
दूसरा मॉडल fiat मनी का है, जो किसी धातु से जुड़ा नहीं होता। उसका मूल्य सिर्फ इसलिए होता है, क्योंकि संबंधित सरकार उसका वह मूल्य तय कर उतनी कीमत अदा करने का वचन देती है।
दूसरे विश्व युद्ध के बाद ब्रेटन वुड्स करार के तहत दुनिया की जो मौद्रिक व्यवस्था बनी, वह स्वर्ण आधारित थी। तब सिस्टम यह बना कि अपने भंडार में मौजूद प्रति एक औंस सोने पर अमेरिका 35 डॉलरों की छपाई कर सकेगा। दुनिया की बाकी मुद्राओं की कीमत डॉलर से जुड़ी होगी। तब कोई भी व्यक्ति या देश, जिसके पास 35 डॉलर मौजूद था, वह उसके बदले अमेरिका के खजाने से एक औंस सोना मांग सकता था। असल में वियतनाम युद्ध के दौरान अमेरिका के बजट पर बढ़ते दबाव के बीच डॉलर में घटे भरोसे के कारण अनेक देशों ने ऐसा करना शुरू भी कर दिया था। उसी वजह से 1971 में अचानक अमेरिका ने गोल्ड स्टैंडर्ड को भंग करने का फैसला कर लिया। चूंकि उस समय वह दुनिया की सबसे बड़ी उत्पादक शक्ति और अर्थव्यवस्था था इस वजह से उसके इस एलान को बाकी दुनिया ने स्वीकार कर लिया कि अब डॉलर ही स्टैंडर्ड होगा।
अब 52 साल बाद पहली बार यह स्थिति बनी है, जब fiat मनी में तब्दील हुए डॉलर के वर्चस्व को चुनौती मिलने की स्थिति बन रही है। यह शुरुआत रूस ने की है, जिसे पहले स्वर्ण आधारित मुद्रा के संचालन का अनुभव है। 1950 से 1961 तक सोवियत मुद्रा रुबल स्वर्ण आधारित थी। तब सोवियत संघ अपने भंडार में मौजूद हर एक ग्राम सोने पर 4.45 रुबल की छपाई करता था।
विशेषज्ञों के मुताबिक (स्वर्ण जैसे) कॉमोडिटी आधारित मुद्रा और fiat मुद्रा के बीच मुख्य फर्क यह है कि कॉमोडिटी आधारित मुद्रा की कीमत धारणा और sentiments के आधार पर नहीं, बल्कि भंडार में मौजूद ठोस कीमती वस्तु से जुड़ी होती है। असल में डॉलर का वर्चस्व भी इसलिए बना, क्योंकि अमेरिका ने अपने कूटनीतिक और सैन्य प्रभाव से 1972-23 में सऊदी अरब को यह घोषणा करने पर राजी कर लिया कि वह और उसके साथी तेल उत्पादक देश कच्चे तेल की बिक्री सिर्फ डॉलर में भुगतान के बदले करेंगे। इस कारण सभी देशों के लिए अपने भंडार में डॉलर रखना जरूरी हो गया। इसी कारण पेट्रो-डॉलर का कॉन्सेप्ट दुनिया में आया।
लेकिन अब यह सूरत बदल रही है। संकेत हैं कि सऊदी अरब अब खुद चीन को उसकी मुद्रा रेनमिनबी (युआन) में भुगतान के बदले तेल बेचने पर सहमत हो गया है। सऊदी अरब ने बिक्र्स में शामिल होने की इच्छा जताई है, जबकि उसने ब्रिक्स के साथ नए उभरते वैश्विक ढांचे के एक अन्य मंच SCO की सदस्यता के लिए भी आवेदन कर दिया है।
चीन ने यह कहा नहीं है कि लेकिन यह चर्चा जोरों पर है कि चीन भी गोल्ड स्टैंडर्ड को अपनाने की तैयारी में है। इस सिलसिले में अब ये अनुमान लगाए जा रहे हैं कि चीन के पास कुल कितना सोना है। घोषित तौर पर उसके सेंट्रल बैंक के भंडार में लगभग दो हजार टन सोना है। इस तरह वह दुनिया में छठे नंबर पर है। आठ हजार टन से अधिक सोने के साथ अमेरिका पहले और 2200 टन के साथ रूस पांचवें नंबर पर है। मगर विश्लेषकों का अनुमान यह है कि चीन के पास घोषित मात्रा से बहुत ज्यादा सोना है। ऐसे अनुमान 23 हजार टन से लेकर 50 हजार टन तक के लगाए गए हैँ। ऐसे ही अनुमान रूस के बारे में भी हैं। अगर ये दोनों देश सचमुच स्वर्ण आधारित मुद्रा की शुरुआत का फैसला कर लेते हैं, तो इसमे कोई शक नहीं है कि इससे दुनिया की मौद्रिक व्यवस्था में भारी उथल-पुथल मचेगी। अगर इसमें पूरा ब्रिक्स शामिल हो जाता है, तो दुनिया एक अभूतपूर्व स्थिति का अनुभव करेगी।
यहां यह याद कर लेना चाहिए कि स्वर्ण आधारित मुद्रा तक बात कई अन्य पहलुओं पर विचार विमर्श करने के बाद पहुंची है। यूक्रेन युद्ध शुरू होने के बाद जब रूस पर पश्चिमी देशों ने प्रतिबंध लगाए और रूस ने वैकल्पिक मौद्रिक व्यवस्था पर चर्चा शुरू की, तब से वहां यह काम अर्थशास्त्री और राष्ट्रपति व्लादीमीर पुतिन के करीबी समझे जाने वाले सर्गेई ग्लेजयेव के नेतृत्व में आगे बढ़ा है।
ग्लेजयेव ने पहले कॉमोडिटी बास्केट आधारित मुद्रा का विचार सामने रखा था। सोच यह थी कि जिन देशों के पास जो भी कॉमॉडिटी है (मसलन, कच्चा तेल, प्राकृतिक गैस, बहुमूल्य खनिज आदि), उसके आधार पर मुद्रा की कीमत तय करने का सिस्टम बनाया जाए। लेकिन उस वक्त मौद्रिक व्यवस्था के विशेषज्ञ अर्थशास्त्री माइकल हडसन ने कहा था कि ऐसा करना संभव नहीं है। सिर्फ उस वस्तु से मुद्रा की कीमत जोड़ी जा सकती है, जिसे मुद्रा के संचालक बैंक के भंडार में रखना संभव हो। अब यह साफ है कि ग्लेजयेव ने भी यह मान लिया है कि कॉमोडिटी बास्केट आधारित मुद्रा अस्तित्व में नहीं आ सकती। इसलिए गोल्ड स्टैंडर्ड का विचार आगे बढ़ा है।
इस तरह दुनिया में एक नई मौद्रिक व्यवस्था ठोस रूप लेती नजर आ रही है। इसके क्या परिणाम होंगे, इस बारे में दुनिया भर में चर्चा हो रही है।
गोल्डमनी नाम की कंपनी के अनुसंधान प्रमुख एलडायर मैकलियॉड ने लिखा है- ‘एशियाई महाशक्तियों के अपनी मुद्रा को स्वर्ण आधारित करने से आशंका है कि पश्चिमी की fiat मुद्राओं की क्रय शक्ति में गिरावट आएगी। अंतरराष्ट्रीय पूंजी इन मुद्राओं से किनारा कर लेगी और उन मुद्राओं को अपनाएगी, जिनके पास कॉमॉडिटी आधारित वास्तविक मूल्य है।…. नतीजा होगा कि पश्चिमी देशों में उपभोक्ता वस्तुओं के मुल्य में तेज बढ़ोतरी होगी और उनके सेंट्रल बैंकों को मुद्रास्फीति के अपने अनुमान को काफी ऊंचा करना होगा। बॉन्ड्स पर ब्याज दरें बढ़ेंगी, तथा सभी वित्तीय संपत्तियों एवं जायदाद के मूल्य में गिरावट आगी। इस नकारात्मक संभावना से यह स्पष्ट होता है कि स्वर्ण आधारित मुद्राओं की तुलना में fiat मुद्राओं के मूल्य में ठोस गिरावट आएगी।’
वैसे फिलहाल यह अनुमान किसी का नहीं है कि निकट भविष्य में डॉलर या अन्य fiat मुद्राओं का अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा। ठोस संभावना यह है कि ये मुद्राएं भी प्रचलन में रहेंगी, लेकिन उनके प्रचलन का दायरा सिकुड़ जाएगा। फिलहाल, क्या सूरत उभर रही है, इसका अंदाजा लगाते हुए क्रेडिट सुइस के पूर्व अर्थशास्त्री जोलटान पोजसार ने लिखा है कि हम बहुध्रुवीय (multipolar) रिजर्व करेंसी के दौर में प्रवेश कर रहे हैं।
तो कुल सूरत यह उभरती दिख रही हैः
ब्रिक्स देश आपस में प्रस्तावित ब्रिक्स करेंसी में कारोबार करेंगे। इन देशों की संख्या अगले कुछ वर्षों में 40 तक पहुंच सकती है। इसमें भारत का क्या रुख होगा, अभी स्पष्ट नहीं है।
अमेरिका और उसके साथी देशों के बीच डॉलर और यूरो का प्रचलन जारी रहेगा।
ब्रिक्स के बाहर के देशों के साथ चीन का ज्यादातर लेन-देन रेनमिनबी में होगा।
विभिन्न देश अपने मुद्रा भंडार में सोने की मात्रा बढ़ाएंगे, क्योंकि सोने से उनकी अपनी मुद्रा की ताकत तय होगी।
यह स्वरूप ठीक-ठीक कैसा उभरेगा, अभी हम उसका अनुमान ही लगा सकते हैं। इसीलिए सबसे पहला इंतजार तो इसका है कि क्या अगले ब्रिक्स शिखऱ सम्मेलन में नई करेंसी को शुरू करने का एलान होता है। अगर यह हो गया, तो करेंसी का स्वरूप कैसा होगा, उसे किस रूप में संचालित किया जाएगा, उस करेंसी योजना में शामिल देशों की अपनी मुद्राओं की भूमिका उसके बाद क्या बनेगी, ये तमाम सवाल महत्त्वपूर्ण हैं, जिनके उत्तर अभी हमारे पास नहीं है।
लेकिन अभी जो बात साफ है, वो यह कि डॉलर का वर्चस्व अब लंबे समय की कहानी नहीं है। यानी जेनेट येलन का भरोसा ठोस बुनियाद पर नहीं टिका हुआ है। डॉलर से अपने कारोबार को मुक्त करने का रुझान काफी प्रचलित हो चुका है। फिलहाल, ट्रेंड आपसी मुद्राओं में लेन-देन करने या फिर चीन की मुद्रा युआन में भुगतान करने का है। अर्जेंटीना ने तो अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के अपने कर्ज की एक किस्त युआन में चुकाई है। यानी de-dollarization पहले ही एक परिघटना बन चुका है। अब बात इसके ऐसे विकल्प की है, जो ठोस हो और सबको स्वीकार्य हो। उसकी शुरुआत अगले ब्रिक्स शिखर सम्मेलन से हो सकती है।