भारतीय जनता पार्टी की स्थापना के बाद पिछले चार दशक में जितने भी चुनाव हुए हैं उनमें तीन वादे कॉमन रहे। जम्मू कश्मीर में अनुच्छेद 370 समाप्त करना, अयोध्या में राममंदिर का निर्माण और समान नागरिक संहिता लागू करना। पिछली बार यानी 2019 में चुनाव जीतने के बाद भाजपा के दो वादे पूरे हो गए। चुनाव जीतने के तुरंत बाद सरकार ने न सिर्फ अनुच्छेद 370 को समाप्त करके जम्मू कश्मीर का विशेष दर्जा समाप्त किया, बल्कि उसका विभाजन भी कर दिया। लद्दाख उससे अलग हो गया और अभी तक जम्मू कश्मीर केंद्र शासित प्रदेश बना हुआ है। इसी तरह अयोध्या में राममंदिर निर्माण का रास्ता सुप्रीम कोर्ट के फैसले से साफ हुआ और पांच अगस्त 2020 को कोरोना वायरस की महामारी के बीच प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसका शिलान्यास किया। रामलला का भव्य मंदिर बन रहा है, जिसका पहला तल अगले साल जनवरी में पूरा हो जाएगा और संभवतः 22 जनवरी 2024 को रामलला की प्राण प्रतिष्ठा होगी। इस तरह भाजपा के दो वादे पूरे हो गए। अब तीसरे वादे की बारी है।
सवाल है कि क्या भाजपा अगले साल लोकसभा चुनाव में जाने से पहले इस वादे को भी पूरा कर देगी? भाजपा का तीसरा वादा समान नागरिक संहिता का है। कई कारणों से दशकों से इसका विरोध होता आया है। भारत जैसे सामाजिक और सांस्कृतिक विविधता वाले देश में सभी नागरिकों के लिए एक किस्म का निजी कानून बनाना कभी भी आसान काम नहीं हो सकता है। संभवतः इसी वजह से आज तक यह मामला लंबित है। सैद्धांतिक रूप से भाजपा भले चाहे जिस कारण से समान नागरिक संहिता का समर्थन करती हो लेकिन व्यावहारिक रूप से वह राजनीतिक कारण से इसके पक्ष में है। उसके समर्थक और बड़े नेता भी सार्वजनिक रूप से कहते रहे हैं कि मुस्लिम समाज में बहुविवाह प्रचलित है, तलाक के अलग नियम हैं और इस वजह से उनकी जनसंख्या बढ़ती जा रही है, जबकि हिंदू आबादी घट रही है। हालांकि यह प्रस्थापना कई तरह के मिथकों के ईर्द-गिर्द गढ़ी गई है, जिस पर अलग से बात होनी चाहिए।
बहरहाल, भाजपा की केंद्र सरकार ने भले समान नागरिक संहिता लागू नहीं की है लेकिन केंद्र में लगातार दूसरी बार उसकी पूर्ण बहुमत की सरकार बनने के बाद से मुस्लिम समाज में प्रचलित अलग अलग प्रथाओं को कानूनी और सरकारी तौर पर बदलने की प्रक्रिया तेज हो गई है। बरसों की सुनवाई के बाद सुप्रीम कोर्ट ने तीन तलाक के नियम को अवैध घोषित कर दिया। बाद में केंद्र सरकार ने कानून बना कर इसको अपराध बनाया, जिसका मुस्लिम समाज विरोध करता है। इसी तरह बहुविवाह और हलाला का मुद्दा भी कानूनी समीक्षा के दायरे में है और इससे जुड़े मुकदमों की सुनवाई हो रही है। इस तरह एक स्तर पर हिंदू व मुस्लिम समाज की विवाह और तलाक की प्रथाओं में एकरूपता लाने का प्रयास हो रहा है। किसी भी समुदाय की सामाजिक, धार्मिक व सांस्कृतिक भावनाओं को आहत किए बगैर और आम सहमति से ऐसी कोई एकरूपता बनती है तो उसका स्वागत होना चाहिए। भारत में हर समुदाय के अंदर कई कुरीतियां हैं और कई ऐसी अमानवीय प्रथाएं प्रचलित हैं, जिन्हें दूर किया जाना चाहिए। महिलाओं की गरिमा को कम करने वाली कई परंपराएं चलन में हैं, जिन्हें समाप्त करना जरूरी है और यह विवाह, तलाक, संपत्ति पर अधिकार, बच्चा गोद लेने जैसे मामलों में जो कमियां हैं उन्हें दूर करके ही किया जा सकता है।
लेकिन सवाल है कि क्या समान नागरिक संहिता लाकर ऐसा करना संभव है? यहां बात सिर्फ मुस्लिम समाज की नहीं है। अलग अलग धार्मिक समूहों में अलग प्रथाएं चलन में हैं। हिंदुओं में ही अलग अलग राज्यों में आदिवासी पारंपरिक हिंदू रीति रिवाज का पालन नहीं करते हैं। उनकी अपनी परंपरा और संस्कृति है। कई राज्यों में दलित समुदाय की अलग परंपराएं हैं। हिंदू समाज के अंदर ही उत्तर और दक्षिण भारत के रीति रिवाज बिल्कुल भिन्न हैं। क्या कानून बना कर इन सबको एक जैसा बनाया जा सकता है? ध्यान रहे यह अनुच्छेद 370 या अयोध्या में राममंदिर की तरह राजनीतिक मामला नहीं है। यह विशुद्ध रूप से सामाजिक मामला है और हर परिवार, जाति व धर्म से जुड़ा है। यह भी ध्यान रखने की बात है कि सामाजिक बदलाव हमेशा मुश्किल और समय लेने वाला काम होता है। कई बार बेहद अमानवीय परंपरा के समर्थन में भी लोग खड़े हो जाते हैं। इसलिए इसमें बहुत सोच समझ कर आगे बढ़ना होगा। यह अच्छी बात है कि भाजपा ने इसे पहले राज्यों में शुरू करने का फैसला किया है। कई भाजपा शासित राज्यों में समान नागरिक संहिता पर विचार हो रहा है। राष्ट्रीय स्तर पर एक संहिता बनाने की बजाय राज्यों में प्रचलित परंपराओं को ध्यान में रख कर कानून बनाया जाए तो ज्यादा बेहतर होगा।
ध्यान रहे भारत में विधि आयोग कई बरसों से इस पर विचार कर रहा है। 21वें विधि आयोग का कार्यकाल 2018 में खत्म हुआ था। उसने उससे पहले इस पर विचार किया था। उसके बाद 22वें विधि आयोग ने इस भी इस पर विचार किया है। इस आयोग को तीन साल का सेवा विस्तार मिला है। इसने समान नागरिक संहिता के मसौदे पर गंभीरता से विचार करने के बाद इस पर आम लोगों के सुझाव मांगे हैं। विधि आयोग ने 14 जून को कहा कि अगले एक महीने में आम लोग इस पर अपनी राय दे सकते हैं। विधि आयोग की यह सक्रियता उत्तराखंड सरकार की बनाई कमेटी का मसौदा सामने आने के बाद तेज हुई है। सुप्रीम कोर्ट की रिटायर जज जस्टिस रंजना प्रकाश देसाई की अध्यक्षता में उत्तराखंड सरकार ने कमेटी बनाई थी। इस कमेटी ने अपनी रिपोर्ट तैयार की है, जिसे लेकर कमेटी के सदस्यों ने विधि आयोग के सदस्यों से मुलाकात की थी। उसके बाद ही विधि आयोग ने लोगों की राय मंगाने का फैसला किया।
सो, उत्तराखंड सरकार की रिपोर्ट और विधि आयोग की सक्रियता से ऐसा संकेत मिल रहा है कि केंद्र सरकार इस दिशा में आगे बढ़ सकती है। संभव है कि जस्टिस रंजना प्रकाश देसाई कमेटी की रिपोर्ट को ही राष्ट्रीय स्तर पर लागू करने के लिए स्वीकार किया जाए। लेकिन उससे पहले एक महीने में लोगों की राय मंगाने की औपचारिकता पर्याप्त नहीं है। इसके लिए सरकार को लोगों तक पहुंचना चाहिए। मसौदा लेकर राज्यों में जाना चाहिए। मुस्लिम समुदाय के धर्मगुरुओं से लेकर सामाजिक समूहों के लोगों से बात करनी चाहिए। हिंदुओं के धर्मगुरुओं और सामाजिक समूहों से भी मिलना चाहिए। आदिवासी समुदाय के बीच जाकर इस बारे में बताया जाना चाहिए। पूर्वोत्तर के राज्यों में अलग से इस पर बात होनी चाहिए। ध्यान रखना चाहिए कि भारत दुनिया के किसी भी दूसरे देश के मुकाबले ज्यादा विविधता वाला देश है। यहां एक तरह का कानून सबके लिए स्वीकार्य कराना आसान नहीं होगा। अपना वादा पूरा करने की हड़बड़ी में या राजनीतिक फायदे के लिए ऐसे संवेदनशील मुद्दे पर जल्दबाजी करना ठीक नहीं होगा। इससे यह संदेश तो कतई नहीं जाना चाहिए कि एक समुदाय को खुश करने के लिए सरकार दूसरे समुदाय पर नकेल कस रही है। किसी तरह के पक्षपात या पूर्वाग्रह का संदेश पूरे मामले को ज्यादा जटिल बना देगा।