क्या अद्भुत विडम्बना है कि जिस दिन ‘एक देश, एक चुनाव’ पर विचार के लिए बनी पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता वाली उच्चस्तरीय समिति ने अपनी सिफारिशें राष्ट्रपति को सौंपी उसके अगले दिन चुनाव आयोग ने लोकसभा चुनाव 2024 सात चरणों में कराने का ऐलान किया! एक तरफ लोकसभा और देश के सभी राज्यों की विधानसभाओं का चुनाव एक साथ कराने का हुंकारा था तो दूसरी ओर लोकसभा और चार राज्यों का विधानसभा चुनाव सात चरणों में और 81 दिन में कराने की घोषणा थी! कुछ और तथ्यों को इसमें जोड़ें तो विडम्बना और बड़ी हो जाती है। One Nation one election
जैसे सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद चुनाव आयोग जम्मू कश्मीर के विधानसभा चुनाव नहीं करा सका। चुनाव आयोग की प्रेस कांफ्रेंस में मुख्य चुनाव आयुक्त ने सुरक्ष कारणों का हवाला दिया और कहा कि पार्टियां तो चाहती थीं कि एक साथ चुनाव हो लेकिन अर्धसैनिक बलों की तैनाती और दूसरे सुरक्षा सरोकारों की वजह से इसे टाल दिया गया। सोचें, राज्य में आखिरी बार 2014 में विधानसभा का चुनाव हुआ था और वहां पिछले साढ़े पांच साल से विधानसभा नहीं है। One Nation one election
एक विडम्बना यह भी है कि जून में लोकसभा चुनाव की प्रक्रिया समाप्त होने के तीन से चार महीने के भीतर महाराष्ट्र का विधानसभा चुनाव होना है। उसके एक महीने के बाद हरियाणा का और उसके एक महीने के बाद झारखंड का चुनाव होना है। सोचें, बरसों से इन राज्यों में इसी तरह चुनाव होता आया है। चुनाव आयोग को कभी समझ में ही नहीं आया कि इन तीनों राज्यों के विधानसभा चुनाव लोकसभा के साथ करा दिए जाएं। कम से कम इतना ही किया जाए कि इन तीनों राज्यों का चुनाव एक साथ हो जाए। One Nation one election
अब तक इन तीनों राज्यों में अलग अलग चुनाव होते रहे हैं। इस बार भी ऐसा लग रहा है कि अगर चुनाव आयोग सुप्रीम कोर्ट के आदेश का पालन करता है तो सितंबर से पहले जम्मू कश्मीर के चुनाव होंगे और उसके बाद तीन राज्यों के चुनाव होंगे। यानी 2024 में पहले लोकसभा और चार राज्यों का चुनाव, फिर जम्मू कश्मीर का चुनाव और उसके बाद तीन और राज्यों के चुनाव होंगे। यह देखना दिलचस्प होगा कि तीनों राज्यों- महाराष्ट्र, हरियाणा और झारखंड के चुनाव एक साथ होते हैं या अलग अलग? One Nation one election
पूरे देश में एक साथ चुनाव कराने के दावे के बीच यह भारत के चुनाव आयोग की हकीकत है। अगर सरकार और चुनाव आयोग की मंशा ठीक होती या सचमुच आयोग की स्थिति सारे चुनाव एक साथ कराने की होती तो वह लोकसभा के साथ ही जम्मू कश्मीर, महाराष्ट्र, हरियाणा और झारखंड के चुनाव भी करा लेता। इस तरह लोकसभा के साथ सात राज्यों के चुनाव हो जाते। इससे 2029 में लोकसभा के साथ ही सभी राज्यों के चुनाव कराने में आयोग को भी सुविधा होती। कम ही राज्यों में उलटफेर की जरुरत पड़ती।
बहरहाल, एक साथ चुनाव कराने के दावे और असलियत का आईना दिखाने वाला यह एकमात्र पहलू नहीं है। चुनाव आयोग इस बार भी लोकसभा का चुनाव सात चरणों में करा रहा है। पूरे 81 दिन तक देश में आचार संहिता लगी रहेगी। उत्तर प्रदेश की 80 सीटों पर सात चरण में चुनाव होगा तो बिहार की 40 सीटों पर भी सात चरणों में चुनाव होंगे।
सोचें, झारखंड की 14 सीटों पर चार चरणों में और जम्मू कश्मीर की पांच लोकसभा सीटों पर पांच चरणों में चुनाव होंगे। यानी हर चरण में सिर्फ एक सीट पर चुनाव होगा। सोचें, जब राज्य की 90 विधानसभा सीटों के लिए चुनाव होगा तब क्या होगा? क्या 90 सीटों पर पांच या छह या उससे भी ज्यादा चरणों में चुनाव होंगे? One Nation one election
ध्यान रहे देश के लगभग सभी राज्यों में चुनावी हिंसा या तो खत्म हो गई या नाममात्र की रह गई है। आधुनिक तकनीक, अर्धसैनिक बलों की तैनाती, लोगों की जागरूकता, राजनीतिक दलों की सक्रियता और चुनाव आयोग की ओर से किए जाने वाले वीडियोग्राफी जैसे उपायों की वजह से चुनावी हिंसा और बोगस वोटिंग पर काफी हद तक काबू पाया जा चुका है।
दूसरी ओर केंद्र सरकार का दावा है कि उसकी कथित नीतियों के कारण देश में वामपंथी उग्रवाद यानी नक्सलवाद का लगभग सफाया हो चुका है। फिर सवाल है कि किस चिंता में चुनाव आयोग लोकसभा चुनाव को तीन महीने में पूरा करा रहा है? अगर नक्सलवाद खत्म हो गया है तो झारखंड की 14 सीटों पर चार चरण में चुनाव क्यों होगा और पश्चिम बंगाल की 42 सीटों पर सात चरण में मतदान क्यों होगा? महाराष्ट्र जैसे अपेक्षाकृत चुनावी हिंसा से मुक्त प्रदेश में पांच चरण और मध्य प्रदेश में चार चरण में मतदान कराने की क्या तुक है?
क्या पूरे देश में दो या तीन चरण में चुनाव नहीं कराए जा सकते हैं? अगर चुनाव आयोग चाहे तो दक्षिण के सभी राज्यों में एक चरण में चुनाव हो सकते हैं। तमिलनाडु की 39, केरल की 20, आंध्र प्रदेश की 25 और तेलंगाना की 17 सीटों पर एक-एक चरण में ही मतदान हो रहा है लेकिन चुनाव आयोग ने पता नहीं किस कारण से कर्नाटक की 28 सीटों पर दो चरण में मतदान कराने का फैसला किया है। इस तरह के विरोधाभास उत्तर और पूर्वी व पश्चिमी भारत के राज्यों में ज्यादा दिख रहे हैं।
कर्नाटक का जो पैटर्न है वह दूसरे राज्यों में भी दिख रहा है। ऐसा लग रहा है कि जिन राज्यों में भाजपा मजबूत है और उसका बहुत कुछ दांव पर लगा हुआ है वहां बिना किसी ठोस कारण के भी चुनाव कई चरणों में कराए जा रहे हैं। ऐसे राज्य, जहां भाजपा का बहुत कुछ दांव पर नहीं है या जहां भाजपा अपनी चुनावी जीत को लेकर बहुत आश्वस्त है वहां एक चरण में चुनाव होने जा रहे हैं। इसे संयोग भी कह सकते हैं लेकिन चुनाव आयोग की ओर से जारी शिड्यूल में यह संयोग कुछ ज्यादा दिख रहा है।
चुनाव आयोग की ओर से जारी कार्यक्रम में यह साफ दिख रहा है कि इसके ऊपर राजनीति की छाया है। ऐसे राज्य, जहां विपक्षी गठबंधन मजबूत है और चुनाव में भाजपा को कड़ी टक्कर मिल रही है उन सभी राज्यों में कई चरणों में चुनाव हो रहे हैं। झारखंड में कांग्रेस, जेएमएम और राजद का मजबूत गठबंधन है। बिहार में राजद, कांग्रेस और लेफ्ट का मजबूत गठबंधन है तो महाराष्ट्र में कांग्रेस, उद्धव ठाकरे और शरद पवार ने मजबूत गठबंधन बनाया है। पश्चिम बंगाल में गठबंधन नहीं हुआ है लेकिन ममता बनर्जी अकेले भाजपा को कड़ी टक्कर दे रही हैं। उत्तर प्रदेश में 80 सीटें हैं और भाजपा की अपनी 62 सीटें दांव पर हैं।
यह कमाल का संयोग है कि इन सभी राज्यों में कई कई चरणों में चुनाव होने वाले हैं। कहने की जरुरत नहीं है कि ज्यादा लंबे समय तक चुनाव प्रक्रिया चलने का फायदा साधन सम्पन्न पार्टी को होता है और कमजोर पार्टियों को नुकसान होता है। इतनी लंबी चुनावी प्रक्रिया से चुनाव का मैदान सबके लिए समान या बराबरी का नहीं रह जाता है। स्वतंत्र व निष्पक्ष चुनाव आयोग को इस पर भी विचार करना चाहिए कि वह कुछ पार्टियों को नुकसान की स्थिति में क्यों डालती है? अगर पांच साल के बाद उसे पूरे देश में एक साथ चुनाव कराना है तो इस बार उसे 40 से 45 दिन में दो या तीन चरण में चुनाव करा कर दिखाना चाहिए था। उसने एक मौका गंवाया है।
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