मणिपुर में जातीय हिंसा शुरू हुए 56 दिन हो गए हैं। इतने दिन के बाद राज्य की सरकार और सुरक्षा बलों की ओर से दावा किया जा सकता है कि मोटे तौर पर शांति बहाल हो गई है और हिंसा की घटनाएं कम हो गईं। इसमें कोई संदेह नहीं है कि ऐसी हिंसा, जिसमें किसी की जान जा रही हो, उसमें कमी आई है। लेकिन सरकारी इमारतों व लोगों के घरों पर हमले, तोड़-फोड़, आगजनी आदि की घटनाएं कम नहीं हुईं, बल्कि इनमें बढ़ोतरी हो गई है। केंद्र और राज्य सरकार ने मणिपुर के हालात संभालने में जितनी देरी की उससे हिंसा ने एक नया रूप ले लिया है।
इसकी जड़ें गहरी हो गईं और दशकों पुराने घाव हरे हो गए हैं। कुकी और मैती समुदाय के बीच दशकों के प्रयास से जो भरोसा बना था वह समाप्त हो गया है। पिछले 56 दिन में जो घटनाएं हुई हैं उनसे दोनों के बीच ऐसी दूरी बनी है, जिसे फिर से भर पाना निकट भविष्य में मुश्किल दिख रहा है।
मणिपुर संकट में कुछ नए आयाम भी जुड़ गए हैं, जिनकी ओर सुरक्षा बलों ने ध्यान दिलाया है। शांति बनाए रखने और उग्रवादियों पर काबू पाने के लिए तैनात सेना व अर्धसैनिक बलों को उग्रवादियों के साथ साथ जन प्रतिरोध का सामना भी करना पड़ रहा है। इसका वीडियो सुरक्षा बलों ने जारी किया है। ये वीडियो हाल की दो घटनाओं के हैं। एक घटना पूर्वी इंफाल की है, जहां इथम गांव में खुफिया सूचना के आधार पर सुरक्षा बलों ने कार्रवाई करके प्रतिबंधित संगठन कांगलेई यावोल कन्ना लुप यानी केवाईकेएल के 12 कैडर्स को पकड़ा था।
इनके पकड़े जाने की सूचना के बाद करीब डेढ़ हजार लोग इकट्ठा हो गए, जिनमें ज्यादातर महिलाएं थीं। उन्होंने पकड़े गए उग्रवादियों के आसपास घेरा बना लिया और मजबूरी में सुरक्षा बलों को उन्हें छोड़ना पड़ा। दूसरी घटना भी इथम गांव की ही है, जहां बड़ी संख्या में महिलाओं ने घेरा बनाया हुआ था और भारी मशीन से सड़क की खुदाई हो रही थी ताकि असम राइफल्स और दूसरे सुरक्षा बलों को उस इलाके में घुसने से रोका जा सके।
सोचें, जो हिंसा मुट्ठीभर उग्रवादी तत्वों के द्वारा शुरू की गई थी वह स्पष्ट रूप से दोनों समुदायों के बीच की व्यापक जातीय हिंसा में तब्दील हो गई है, जिसमें आम लोग अपनी अपनी जाति के उग्रवादियों का समर्थन कर रहे हैं और उनकी रक्षा कर रहे हैं। मणिपुर के लिए यह नया घटनाक्रम है। ध्यान रहे पिछले कुछ बरसों से उग्रवादियों को आम लोगों का समर्थन मिलना बंद हो गया था। उनका आधार सिमट कर बहुत छोटा हो गया था और ज्यादातर उग्रवादी संगठनों को मणिपुर के अंदर अपना बेस बनाने की जगह नहीं मिली थी। उनको मजबूरी में म्यांमार और बांग्लादेश की सीमा में अपना बेस बनाना पड़ा था।
कई बार भारतीय सुरक्षा बलों ने म्यांमार की सीमा में घुस कर भी उग्रवादियों के शिविर नष्ट किए। सुरक्षा बलों के दबाव और आम लोगों की उदासीनता की वजह से ज्यादातर उग्रवादी संगठनों के काडर सरेंडर करने लगे थे और मुख्यधारा में लौटने लगे थे। लेकिन तीन मई को शुरू हुई हिंसा ने उनको जीवनदान दे दिया है। उनके पास बड़ी संख्या में नए हथियार पहुंच गए हैं और आम लोगों का समर्थन भी मिलने लगा है। सेना, अर्धसैनिक बलों और पुलिस के लिए इससे नई चुनौती पैदा हुई है, जिससे निपटने का रास्ता अभी नहीं दिख रहा है।
भारत की सीमा के अंदर किसी भी किस्म की अस्थिरता या जातीय तनाव का फायदा उठाने के लिए तैयार बैठे चीन को इससे अलग मौका मिल गया है। ऐसी खबरें भी आ रही हैं कि चीन उग्रवादी तत्वों को मदद दे रहा है। चीन में बनी मोटरबाइक के इस्तेमाल के पुख्ता सबूत सुरक्षा बलों को मिला है। बताया जा रहा है कि चीन में बनी मोटरबाइक्स की कीमत 25 हजार रुपए के आसपास है, जो आसानी से उग्रवादियों को उपलब्ध हो जा रही है। वे इनके जरिए गांवों में पहुंच जा रहे हैं और हिंसा, आगजनी को अंजाम दे रहे हैं।
इन पर उनको रजिस्ट्रेशन नंबर लेने की जरूरत नहीं है और पकड़े जाने पर उनका कोई नुकसान नहीं हो रहा है। यह उग्रवादियों को मिल रही बाहरी मदद का एक संकेत है। इस तरह की और कितनी मदद किस रूप में मिल रही है, इसका अंदाजा लगाना मुश्किल है। ध्यान रहे दो साल पहले म्यांमार में हुए तख्तापलट के बाद वहां जो हालात बने और जिस अनुपात में विस्थापन हुआ उसका भी असर भी मणिपुर की राजनीति, सामाजिक स्थिति पर पड़ी है।
बहरहाल, यह स्थिति इस वजह से आई है क्योंकि सरकार ने हालात सुधारने के प्रयासों में देरी कर दी या प्रयास किए तो वो आधे अधूरे थे। मिसाल के तौर पर गृह मंत्रालय की ओर से एक शांति समिति बनाई गई थी। वह प्रयास इतना आधा अधूरा और बेमन से किया गया था आज करीब एक महीने बाद किसी को अंदाजा नहीं है कि वह शांति समिति कहां है। हिंसा शुरू होने के 27 दिन के बाद केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह मणिपुर के दौरे पर पहुंचे थे।
उसके बाद यह शांति समिति बनी थी। लेकिन इसके बनते ही कुकी और मैती दोनों समुदायों ने इसकी बैठकों में शामिल होने से इनकार कर दिया। कई तटस्थ और निरपेक्ष लोगों ने भी अपने को इससे अलग कर लिया। सो, इसका काम शुरू ही नहीं हो पाया, जबकि राज्यपाल की अध्यक्षता में इसका गठन हुआ था। सरकार सुरक्षा बलों के सहारे बैठी रही कि वे हालात संभाल लेंगे या इस तरह के आधे अधूरे पहल करती रही और इस बीच हालात हाथ से निकल गए।
अब सस्पेंनसन ऑफ ऑपरेशंस एग्रीमेंट हुआ है, जिसमें कुकी और मैती दोनों समुदायों के उग्रवादी संगठन शामिल हैं। लेकिन इसके बारे में भी माना जा रहा है कि यह समय हासिल करने, अपना समर्थन बढ़ाने और सुरक्षा बलों की कार्रवाई में देरी कराने की रणनीति है। क्योंकि इस करार में शामिल कई संगठनों के बारे में सूचना है कि उनके काडर हिंसा में शामिल हैं। कुकी उग्रवादी समूह इस करार में शामिल हैं लेकिन उनका काडर मैती इलाकों में हमला कर रहा है। इसी तरह कई मैती उग्रवादी संगठन हैं, जिनके लोग इंफाल घाटी के किनारे के इलाकों में कुकी इलाकों में हमला कर रहे हैं। इनमें यूनाइटेड नेशनल लिबरेशन फ्रंट, पीपुल्स लिबरेशन आर्मी ऑफ मणिपुर, पीपुल्स रिवोल्यूशनरी पार्टी ऑफ कांगलेपक, कांगलेई यावोल कन्ना लुप आदि शामिल हैं। ये सब हाशिए पर पहुंच गए संगठन हैं, जिनको कुकी और मैती समुदाय की जातीय हिंसा में जीवनदान मिला है।
सो, मणिपुर का मामला अब जन प्रतिरोध का मामला बन गया है। यह अब उग्रवादी समूहों की हिंसा का नहीं, बल्कि व्यापक जातीय हिंसा का रूप ले चुका है। कुकी और मैती दोनों समुदायों के बीच अविश्वास इतना गहरा हो गया है कि आम लोग भी उग्रवादी संगठनों में अपनी सुरक्षा देखने लगे हैं। किसी ठोस और गंभीर राजनीतिक या सामाजिक पहल की कमी की वजह से ऐसा हुआ है। अगर हिंसा शुरू होते ही सरकार ने सख्ती से उग्रवादी संगठनों पर कार्रवाई की होती और दोनों समुदायों के आम लोगों को भरोसा दिलाया होता तो शायद यह नौबत नहीं आती। अब इस हिंसा को रोकने और दोनों समुदायों के लोगों के बीच सरकार के प्रति भरोसा बढ़ाने और आपस में विश्वास पैदा करने के लिए व्यापक और दीर्घकालिक योजना की जरूरत है।
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