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भारतीय राजनीति का अंतिम मोर्चा

भारतीय राजनीति

क्या यह माना जाए कि भारतीय राजनीति बदलाव के उस मोड़ पर है, जहां वह आधुनिक इतिहास में पहले कभी नहीं पहुंची और उस मोड़ पर जो मुकाबला होना है वह फाइनल फ्रंटियर यानी अंतिम मोर्चे की तरह है? अयोध्या में श्रीराम जन्मभूमि मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा के भव्य आयोजन के बाद अगले तीन-चार महीने में लोकसभा का चुनाव होना है। इस चुनाव में एक तरफ हिंदू धर्म की ध्वजा उठाए नरेंद्र मोदी और उनकी अक्षौहिणी सेना होगी तो दूसरी ओर भारत की विविधता, बहुलता और न्याय की दुहाई देते हुए देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस होगी, जिसके साथ या पीछे पीछे जातीय विभाजन की फॉल्टलाइन को बढ़ा कर राजनीति करने वाली मंडल की पार्टियां और भाषायी अस्मिता की राजनीति करने वाली पार्टियां होंगी।

पूरब से पश्चिम और दक्षिण तक ऐसी कई पार्टियां हैं। इस लिहाज से अगले चुनाव को मंडल और कमंडल की लड़ाई का फाइनल फ्रंटियर कह सकते हैं तो साथ ही उत्तर और दक्षिण की लड़ाई का भी अंतिम मोर्चा मान सकते हैं। जो यह चुनाव जीतेगा उसकी हर मोर्चे पर फतह मानी जाएगी और लंबे समय तक देश की राजनीति पर उसका और उसकी विचारधारा का वर्चस्व कायम होगा।

अभी तक भाजपा की राजनीति के बरक्स दो तरह की राजनीति सफल होती रही है। एक मंडल की यानी जातियों की और दूसरी भाषायी अस्मिता की राजनीति। विपक्ष की जो पार्टी भाजपा के मुकाबले सफल रही या जिसने भाजपा को टक्कर दिया उसकी राजनीति इन दो में से किसी मुद्दे पर आधारित रही। कह सकते हैं कि कांग्रेस इन दोनों में से कोई राजनीति नहीं करती है फिर भी वह मुख्य प्रतिद्वंद्वी के तौर पर बनी हुई है।

यह बात तर्क के लिए सही है लेकिन असल में भाजपा की मुख्य प्रतिद्वंद्वी दल की हैसियत मुस्लिम वोटों की वजह से बनी है। कुछ राज्यों में भाजपा विरोधी वोट के साथ मुस्लिम वोट जुड़ जाने से कांग्रेस को सीटें मिलीं या जातीय व भाषायी अस्मिता की राजनीति करने वाली पार्टियों के साथ तालमेल का फायदा उसे मिला। यह किसी पहलू से नहीं कहा जा सकता है कि कांग्रेस या दूसरी भाजपा विरोधी पार्टियों ने किसी वैकल्पिक सिद्धांत या विचार को लेकर राजनीति की। हां, भाजपा से उनके विरोध को वैचारिक विरोध कह सकते हैं लेकिन उन दलों की राजनीति किसी वैकल्पिक विचार पर आधारित नहीं रही है। यह बहुत बारीक फर्क है, जिसे समझने की जरुरत है।

इस बार उसी फर्क को चुनौती मिल रही है। एक फर्क मंडल और कमंडल की राजनीति का रहा है। भाजपा ने कमंडल यानी मंदिर की राजनीति शुरू की थी। 1989 में पालमपुर प्रस्ताव से मंदिर को राजनीतिक मुद्दा बनाया गया था और दो सांसदों वाली पार्टी उसी साल के चुनाव में 81 सीट पर पहुंच गई थी। इसलिए यह नहीं कहा जा सकता है कि मंडल की राजनीति के जवाब में कमंडल की राजनीति शुरू हुई। भाजपा ने मंदिर की राजनीति पहले शुरू की थी और एक चुनाव में उसका फायदा लिया था।

उसके बाद वीपी सिंह की सरकार ने 1990 में मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू की थी और पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण का पंडोरा बॉक्स खोला था। उसके बाद कई बरसों तक ऐसा लगता रहा कि ये दोनों विचार एक दूसरे के विरोधी हैं। हालांकि भाजपा ने तब भी सोशल इंजीनियरिंग जारी रखी थी। उत्तर प्रदेश पहले उसकी प्रयोगशाला थी, जहां गोविंदाचार्य ने सोशल इंजीनियरिंग का प्रयोग किया और उसके बाद मध्य प्रदेश प्रयोगशाला बनी, जहां उमा भारती से शुरू करके मोहन यादव तक पिछले 21 साल में सिर्फ पिछड़ी जाति के सीएम बने हैं।

बिहार मंडल राजनीति की धरती रही लेकिन नीतीश कुमार ने बहुत होशियारी से बिहार में भाजपा को सोशल इंजीनियरिंग नहीं करने दी और न पिछड़ी या अत्यंत पिछड़ी जाति का कोई नेता तैयार होने दिया। इसलिए बिहार थोड़ा पीछे रह गया। अब वहां भी भाजपा की सोशल इंजीनियरिंग चल रही है। 24 जनवरी को भाजपा भी पटना में कर्पूरी ठाकुर की जयंती बड़े पैमाने पर मना रही है।

नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद धीरे धीरे मंडल और कमंडल की राजनीति का फर्क मिटता गया है। दोनों के बीच की दूरी कम होती गई है। उन्होंने बहुत सुनियोजित तरीके से दोनों को मिला दिया। इसका नतीजा यह है कि आज अत्यंत पिछड़ी जातियों का 48 फीसदी और अन्य पिछड़ी जातियों का 40 फीसदी वोट भाजपा को मिलता है। कुल मिला कर 44 फीसदी पिछड़ा वोट भाजपा को जाता है। अयोध्या के भव्य कार्यक्रम के बाद यह दूरी और कम होगी। इसका कारण यह है कि मंडल के मसीहा जाति की राजनीति में उलझे रहे उन्होंने मंडल प्लस कुछ नहीं किया। कोई नई चीज नहीं जोड़ी, जबकि नरेंद्र मोदी ने कमंडल में प्लस किया। उन्होंने कमंडल में मंडल को जोड़ा और साथ ही विकास, बुनियादी ढांचा, राष्ट्रवाद, लाभार्थी, विश्व गुरू, मजबूत नेतृत्व जैसी कई चीजें जोड़ दीं।

इसके बाद बचता है कि भाषायी अस्मिता का मामला, जिस पर भाजपा थोड़ा बैकफुट पर होती है। हालांकि ऐसे तीन राज्यों-महाराष्ट्र, गुजरात और कर्नाटक में भाजपा पहले से मजबूत स्थिति में थी। पिछले 10 साल में इन तीन राज्यों के अलावा दूसरे राज्यों में भी भाजपा मजबूती से पहुंची है और वह हिंदुत्व के अपने एजेंडे के साथ पहुंची है। उसने राज्यों की आबादी के फॉल्टलाइन की पहचान की है और उसका फायदा उठाया है।

जैसे पश्चिम बंगाल में 30 फीसदी मुस्लिम आबादी है। भाजपा ने प्रचार के दम पर यह नैरेटिव बनवाया कि सारी पार्टियां इस 30 फीसदी आबादी का ध्यान रखती हैं और 70 फीसदी आबादी की अनदेखी करती हैं। इसका फायदा उसे पिछले चुनाव में मिला, जब वह 18 लोकसभा सीट वाली पार्टी बन गई और विधानसभा चुनाव में भी अस्मिता की राजनीति को चुनौती देते हुए 38 फीसदी वोट के साथ 77 सीट की पार्टी बनी। इसी तरह तेलंगाना में असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी और पुराने हैदराबाद की आबादी संरचना को ही आधार बना कर भाजपा ने जो राजनीति की उसका नतीजा यह हुआ कि उसे पिछले लोकसभा चुनाव में चार सीटें मिलीं। वह अब वहां 13 फीसदी वोट की पार्टी है।

कुल मिला कर तीन राज्य- आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु और केरल ऐसे हैं, जहां भाजपा की कमंडल की राजनीति या सोशल इंजीनियरिंग कामयाब नहीं हुई है। लेकिन भारत जैसे विशाल देश में यह कोई बड़ी बात नहीं है। अपने सबसे अच्छे दिनों में भी कांग्रेस सभी राज्यों में एक समान रूप से मजबूत पार्टी नहीं थी। इस बार के लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की नजर इन तीन राज्यों पर है, जिनका उन्होंने नए साल में दौरा शुरू किया है। उन्होंने अयोध्या में प्राण प्रतिष्ठा के कार्यक्रम से पहले 11 दिन का अनुष्ठान किया और उसे इन तीन राज्यों की आध्यात्मिक यात्रा से जोड़ दिया। वे उस दौरान इन तीनों राज्यों में गए और रामायण के चरित्रों व स्थानों से जुड़ी जगहों पर जाकर पूजा की। भाषायी अस्मिता वाले इन तीनों राज्यों में मोदी की कमंडल प्लस मंडल राजनीति की परीक्षा होनी है।

सो, कह सकते हैं कि इस बार का चुनाव इस बात की परीक्षा है कि भाजपा की राजनीति के मुकाबले विपक्ष के मंडल और भाषायी अस्मिता यानी जाति और उत्तर-दक्षिण की राजनीति का क्या भविष्य होगा। अगर भाजपा लगातार तीसरी बार जीतती है तो फिर भारतीय राजनीति को देखने की तमाम पारंपरिक अवधारणाएं टूटेंगी और पार्टियों को नए सिरे से अपने सिद्धांतों व राजनीतिक एजेंडे पर विचार करना होगा। बड़ा सवाल यह है कि क्या उसके बाद भाजपा को टक्कर देने के लिए कोई नई दक्षिणपंथी पार्टी उभरेगी? क्या अरविंद केजरीवाल के लिए अवसर बनेगा? या मौजूदा धर्मनिरपेक्ष पार्टियां अपना स्वरूप बदलेंगी?

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By अजीत द्विवेदी

संवाददाता/स्तंभकार/ वरिष्ठ संपादक जनसत्ता’ में प्रशिक्षु पत्रकार से पत्रकारिता शुरू करके अजीत द्विवेदी भास्कर, हिंदी चैनल ‘इंडिया न्यूज’ में सहायक संपादक और टीवी चैनल को लॉंच करने वाली टीम में अंहम दायित्व संभाले। संपादक हरिशंकर व्यास के संसर्ग में पत्रकारिता में उनके हर प्रयोग में शामिल और साक्षी। हिंदी की पहली कंप्यूटर पत्रिका ‘कंप्यूटर संचार सूचना’, टीवी के पहले आर्थिक कार्यक्रम ‘कारोबारनामा’, हिंदी के बहुभाषी पोर्टल ‘नेटजाल डॉटकॉम’, ईटीवी के ‘सेंट्रल हॉल’ और फिर लगातार ‘नया इंडिया’ नियमित राजनैतिक कॉलम और रिपोर्टिंग-लेखन व संपादन की बहुआयामी भूमिका।

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