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गठबंधन मिटाएं विरोधाभास नहीं तो…

रणनीतिक विरोधाभास

विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ की अभी सबसे बड़ी कमजोरी क्या है? इसका जवाब है- रणनीतिक विरोधाभास। ध्यान रहे गठबंधन की ज्यादातर पार्टियों में कोई वैचारिक विरोधाभास नहीं है। अगर एक उद्धव ठाकरे गुट के शिव सेना को छोड़ दें तो लगभग सभी पार्टियां अपनी स्थापना के समय से धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी राजनीति करने वाली रही हैं। सो, वैचारिक टकराव नहीं है। लेकिन रणनीतिक विरोधाभास इतना बड़ा है कि गठबंधन में एकजुटता नहीं दिख रही है। पार्टियों के साथ होने के बावजूद साथ होने का मैसेज नहीं बन रहा है।

ऐसा लग रहा है कि सभी पार्टियां अपनी अपनी ओर गठबंधन को खींच रही हैं। सब एक दिशा में साथ मिल कर चलते हुए नहीं दिख रहे हैं। कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी है और उसकी अखिल भारतीय उपस्थिति है लेकिन बाकी पार्टियां उसको गठबंधन का इंजन मान कर उसके साथ बोगी की तरह जुड़ नहीं रही हैं। सब इंजन बनना चाहते हैं। इस वजह से कहीं गठबंधन तो कहीं टकराव दिख रहा है।

इसका नतीजा यह हुआ है कि पार्टियों की इस प्रतिबद्धता पर किसी को यकीन नहीं हो रहा है कि वे भाजपा को हराना चाहती हैं। ध्यान रहे देश में भाजपा विरोधी वोट करीब 60 फीसदी है। भाजपा को 2019 में अपने सबसे अच्छे प्रदर्शन के समय भी 38 फीसदी वोट मिले हैं। बचे हुए 62 फीसदी वोट में से थोड़े से वोट उसकी सहयोगी पार्टियों को मिले हैं लेकिन ज्यादातर या करीब 60 फीसदी वोट भाजपा के विरोध में पड़े हैं।

इसका मतलब है कि विपक्षी पार्टियां भले बिखरी हुईं या कमजोर दिख रही हैं लेकिन भाजपा का विरोध कमजोर नही है। अगर विपक्षी पार्टियां एक साथ आती हैं, ईमानदारी से एकजुटता दिखाती हैं और भाजपा को हराने की वास्तविक प्रतिबद्धता दिखाती हैं तो भाजपा विरोधी वोट को साथ ला सकती हैं। इसमें भी भाजपा विरोधी सारे वोट हासिल करने की जरुरत नहीं है। अगर भाजपा विरोधी 60 फीसदी वोट का 60 या 70 फीसदी वोट विपक्षी गठबंधन को मिल जाए तो उसका वोट भी भाजपा के बराबर यानी 38 फीसदी के करीब हो जाएगा। फिर वह भाजपा को टक्कर देने की स्थिति में होगी। लेकिन यह वोट तभी उसके साथ आएगा, जब भाजपा को हराने की उनकी प्रतिबद्धता पर लोगों को यकीन होगा। अगर यकीन नहीं हुआ तो यह वोट बिखर जाएगा और विपक्षी गठबंधन को कोई फायदा नहीं होगा।

तभी वैचारिक समानता दिखाने के साथ साथ पार्टियों को रणनीतिक एकजुटता भी दिखानी होगी। यह नहीं हो सकता है कि ममता बनर्जी कहें कि वे पश्चिम बंगाल में तो अकेले लड़ेंगी लेकिन पूरे देश में विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ के साथ रहेंगी। इससे विपक्षी गठबंधन पर लोगों का भरोसा नहीं बनेगा। अगर वे अपने असर वाले राज्य में किसी दूसरी विपक्षी पार्टी को स्पेस नहीं देंगी तो इससे यह जाहिर होगा कि उनकी प्रतिबद्धता भाजपा को हराने की नहीं, बल्कि अपना स्वार्थ पूरा करने की है।

वोट के बिखराव के साथ साथ उनकी इस सोच का असर धारणा के स्तर पर भी होगा। मतदाताओं का एक बड़ा समूह, जो भाजपा के खिलाफ वोट करता है या इस बार खिलाफ वोट करने की सोच रहा है, उसकी धारणा प्रभावित होगी। भाजपा को भी मौका मिलेगा यह बताने का कि गठबंधन में एकजुटता नहीं है। अगर ममता बनर्जी बंगाल में कांग्रेस को स्पेस नहीं देती हैं तो फिर कांग्रेस कैसे उनको असम, मेघालय या त्रिपुरा में सीट देगी?

यही स्थिति वामपंथी पार्टियों के साथ हैं। उनको बिहार में 10 सीटें चाहिएं। उत्तर प्रदेश से लेकर तेलंगाना और तमिलनाडु से लेकर महाराष्ट्र, राजस्थान, झारखंड हर जगह वामपंथी पार्टियों को सीटें चाहिएं। लेकिन वे अपने असर वाले राज्य केरल और त्रिपुरा में तालमेल नहीं करेंगे। यह सही है कि केरल में अगर लेफ्ट मोर्चा और कांग्रेस के नेतृत्व में यूडीएफ के बीच तालमेल होगा है तो वह बड़ा बेमेल होगा और राजनीतिक स्तर पर भाजपा को बहुत बड़ा फायदा पहुंचाने वाला होगा। क्योंकि इन दोनों गठबंधनों के पास अभी राज्य का 85 फीसदी वोट है और भाजपा 11 फीसदी वोट की पार्टी है। अगर दोनों गठबंधन साथ हो जाएं तो भाजपा का वोट प्रतिशत बढ़ जाएगा।

सीट तो वह एक भी नहीं जीत पाएगी लेकिन उसका आधार मजबूत हो जाएगा। लंबे समय में इसका नुकसान हो सकता है। लेकिन अगर कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टियां केरल में एक दूसरे के खिलाफ लड़ती हैं और एक दूसरे पर हमले करती हैं तो उसका असर दूसरे राज्यों में पड़ेगा, जहां वे साथ मिल कर लड़ रही होंगी। इसके एक बड़ा रणनीतिक विरोधाभास जाहिर होगा, जिसका धारणा के स्तर पर पूरे देश में नुकसान होगा। निश्चित रूप से केरल में दोनों के साथ आने में जोखिम है लेकिन एकजुटता और प्रतिबद्धता दिखाने के लिए किसी न किसी तरह से यह जोखिम उठाना होगा।

इसी तरह का जोखिम पंजाब में कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के बीच तालमेल को लेकर है। सत्तारूढ़ और मुख्य विपक्षी पार्टी के साथ मिल कर लड़ने का फायदा तीसरे नंबर की पार्टी अकाली दल और चौथे नंबर की पार्टी भाजपा को होगा। लेकिन अगर कांग्रेस और आप दिल्ली में  मिल कर लड़ते हैं और पंजाब में अलग अलग लड़ते हैं तो वह विरोधाभास दोनों जगह भारी पड़ेगा। धारणा के स्तर पर पूरे देश में यह मैसेज जाएगा कि गठबंधन की पार्टियां लोगों को बेवकूफ बना रही हैं। भाजपा इस धारणा का और प्रचार करेगी।

अगर कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस कहीं मिल कर लड़ रहे हैं और कहीं एक दूसरे पर वार कर रहे हैं, कांग्रेस और लेफ्ट कहीं साथ हैं तो कहीं एक दूसरे के खून के प्यासे हो रहे हैं, कांग्रेस और आप कहीं साथ हैं और कहीं एक दूसरे को नाकारा साबित करने में लगे हैं तो उससे मतदाता कंफ्यूज होंगे। उनके बीच यह धारणा नहीं बनेगी कि ये पार्टियां साथ हैं और भाजपा को हराना चाहती हैं। उनके बीच यह धारणा भी नहीं बनेगी कि चुनाव के बाद ये पार्टियां एकजुट रह पाएंगी। इससे भाजपा की ओर से मजबूत सरकार के नैरेटिव की ओर उनका आकर्षण बढ़ेगा। तभी पार्टियों को किसी न किसी तरह से विरोधाभासों को दूर करना होगा। यह मैसेज बनवाना होगा कि वे पूरे देश में एकजुट होकर लड़ रही हैं और उनके अंदर किसी बात पर मतभेद नहीं है।

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By अजीत द्विवेदी

संवाददाता/स्तंभकार/ वरिष्ठ संपादक जनसत्ता’ में प्रशिक्षु पत्रकार से पत्रकारिता शुरू करके अजीत द्विवेदी भास्कर, हिंदी चैनल ‘इंडिया न्यूज’ में सहायक संपादक और टीवी चैनल को लॉंच करने वाली टीम में अंहम दायित्व संभाले। संपादक हरिशंकर व्यास के संसर्ग में पत्रकारिता में उनके हर प्रयोग में शामिल और साक्षी। हिंदी की पहली कंप्यूटर पत्रिका ‘कंप्यूटर संचार सूचना’, टीवी के पहले आर्थिक कार्यक्रम ‘कारोबारनामा’, हिंदी के बहुभाषी पोर्टल ‘नेटजाल डॉटकॉम’, ईटीवी के ‘सेंट्रल हॉल’ और फिर लगातार ‘नया इंडिया’ नियमित राजनैतिक कॉलम और रिपोर्टिंग-लेखन व संपादन की बहुआयामी भूमिका।

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