इतिहास गवाह है कि सख्त से सख्त कानून भी अपराध नहीं रोक सका है। जितने कानून बनते हैं उतने ही रास्ते उन कानूनों से बचने के भी बनते हैं। दुनिया भर में कानूनों को लेकर जितनी कहावतें, मुहावरे हैं उतनी शायद ही किसी और चीज को लेकर बनी हों। उनमें भी सबसे अच्छी कहावत यह है कि ‘शो मी अ मैन, आई विल शो यू द लॉ’। इसी से मिलती जुलती हिंदी कहावत यह है कि ‘कानून के समक्ष सब समान होते हैं लेकिन कुछ लोग ज्यादा समान होते हैं’। यानी कानून पर अमल व्यक्ति को देख कर होता है।
गौरतलब है कि अभी देश में लोकसभा के चुनाव चल रहे हैं और लगभग हर दिन किसी न किसी नेता के खिलाफ आचार संहिता के उल्लंघन की शिकायत चुनाव आयोग को भेजी जा रही है। प्रधानमंत्री के खिलाफ भी आयोग से शिकायत की गई। कांग्रेस नेता राहुल गांधी के भी खिलाफ भी शिकायत हुई। लेकिन तीन हफ्ते के बाद भी कार्रवाई का अता पता नहीं है।
हर चुनाव में प्रधानमंत्री के भाषण को लेकर शिकायतें मिलती हैं लेकिन आयोग या तो चुप्पी साध लेता है या शिकायतों को रफा दफा कर देता है। अब तो चुनाव आयोग ने कार्रवाई करने से बचने का एक रास्ता यह निकाल लिया है कि अगर कोई स्टार प्रचारक आचार संहिता का उल्लंघन करता है तो उस पर पार्टी अध्यक्ष से जवाब मांगा जाएगा। इस नए नियम के तहत प्रधानमंत्री के खिलाफ मिली शिकायत पर भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा को और राहुल गांधी के खिलाफ मिली शिकायत पर मल्लिकार्जुन खड़गे को नोटिस भेजा गया है।
हालांकि यह तय नहीं है कि कार्रवाई किस पर होगी? क्या प्रधानमंत्री के खिलाफ शिकायत सही मिलती है तो जेपी नड्डा को 24 घंटे या 48 घंटे के लिए भाषण देने से रोका जाएगा? और राहुल के मामले में कार्रवाई खड़गे पर होगी? बहरहाल, खड़गे की ओर से जवाब दाखिल किया जा चुका है लेकिन भाजपा ने जवाब देने के लिए और समय मांग लिया है। इस बीच तीन चरण का मतदान संपन्न हो चुका है।
वैसे भी चुनाव आयोग के पास ज्यादा कुछ अधिकार होता नहीं है और यही कारण है कि उसकी आचार संहिता का पालन करने की जरुरत कोई नहीं समझता। उनको पता है कि चुनाव आयोग कुछ नहीं कर सकता है। ज्यादा से ज्यादा किसी नेता को एक दो दिन चुनाव प्रचार से रोक देगा। तभी सवाल है कि क्या आचार संहिता को खत्म कर दिया जाना चाहिए? यह सवाल इसलिए है क्योंकि चुनाव की आचार संहिता का खुलेआम उल्लंघन होता है लेकिन जो आधिकारिक दस्तावेज होंगे उनमें दिखाया जाएगा कि सब कुछ नियम के मुताबिक हुआ है। यही से हिप्पोक्रेसी और राजनीति के भ्रष्ट होने की शुरुआत होती है।
चुनाव आयोग कहता है कि तीन से ज्यादा गाड़ियां लेकर कोई नामांकन करने नहीं जाएगा। उम्मीदवार आधिकारिक रूप से तीन गाड़ियों की अनुमति लेगा लेकिन उसके जुलूस में सैकड़ों गाड़ियां होंगी। इसी तरह पांच हजार लोगों की रैली करने की जहां अनुमति होगी वहां 50 हजार लोग जुटेंगे तब भी कहा जाएगा कि सब नियम के मुताबिक हुआ।
लोकसभा चुनाव में एक क्षेत्र में 95 लाख रुपए खर्च करने की अनुमति है। उम्मीदवार चुनाव के बाद जब आयोग को ब्योरा देगा तो बताएगा कि उसने 10 ही लाख रुपए में चुनाव लड़ लिया, जबकि उसका वास्तविक खर्च करोड़ों में होगा। महाराष्ट्र के एक बड़े नेता ने तो सिर्फ 11 हजार रुपए में चुनाव लड़ लेने के दस्तावेज आयोग को दिए थे। आयोग को भी पता होता है कि उसके सामने झूठे हलफनामे दिए जा रहे हैं लेकिन उसे भी खानापूर्ति करनी होती है। तभी साफ सुथरे, स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव की शुरुआत यहां से हो सकती है कि आचार संहिता खत्म कर दी जाए और खर्च की सीमा हटा दी जाए ताकि नेताओं को झूठ बोलने या झूठे हलफनामे देने की जरुरत न पड़े।
तर्क दिया जाता है कि खर्च की सीमा हटा दी जाएगी तो साधारण आदमी कैसे चुनाव लड़ेगा? यह फालतू का तर्क है। किस साधारण आदमी की हैसियत 95 लाख रुपए खर्च करके चुनाव लड़ने की होती है? दूसरे, सीमा होने के बावजूद लोग बचने का रास्ता निकाल लेते हैं। साथ ही इस हकीकत का भी ध्यान रखने की जरुरत है कि लगातार करोड़पति सांसदों की संख्या बढ़ती जा रही है। यानी साधारण लोग पहले ही चुनाव से बाहर होते जा रहे हैं।
बहरहाल, सवाल है कि अगर आचार संहिता न हो तो चुनाव कैसे संचालित होगा? या आचार संहिता के रहते क्या उपाय किए जाएं, जिससे स्वच्छ और पारदर्शी चुनाव संभव हो? इसके लिए दूसरे रास्ते खोजने की जरुरत है। जिस तरह से समाज को साफ सुथरा और बेहतर बनाने के लिए सख्त कानून से ज्यादा अच्छे नागरिक बनाने की जरुरत है उसी तरह से स्वतंत्र और निष्पक्ष व साथ सुथरे चुनाव के लिए आचार संहिता से ज्यादा जरुरत अच्छे आचरण वाले नेताओं की है। अगर अच्छे नेता होंगे, ईमानदार नेता होंगे, लोकतंत्र और संविधान में भरोसा करने वाले होंगे तो उन्हें आचार संहिता की जरुरत नहीं है। लेकिन दुर्भाग्य से इस देश में जितनी कमी अच्छे नागरिक की है उतनी ही कमी अच्छे नेता की है।
चुनाव प्रचार में नेता कुछ भी बोलते हैं। किसी पर कुछ भी आरोप लगाते हैं। जनता को बरगलाने के लिए कुछ भी वादे करते हैं। और जब चुनाव की प्रक्रिया समाप्त हो जाती है तो सब भूल जाते हैं। जिस पार्टी को देश विरोधी और जिस नेता को भ्रष्ट व परिवारवादी ठहराया होता है, उसके साथ जरुरत पड़ने पर गठबंधन कर लेते हैं। जनता से जो वादे किए गए होते हैं उन्हें लागू करने में कुछ शर्तें लगा दी जाती हैं, जिससे उनका लाभ चुनिंदा वर्गों को मिल पाता है। फिर चुनाव जीतने वाली पार्टी सभी वादे पूरे करने का ऐलान भी कर देती हैं। मतदाताओं को मजबूरी में स्वीकार करना होता है कि वादे पूरे हो गए।
लोकतंत्र के लिए एक बड़े राजनीतिक विचारक ने कहा था कि इसमें अधिकतम भ्रम दिया जाता है और न्यूनतम सत्ता दी जाती है। जनता के हाथ में कुछ नहीं होता है। नेता उसे छलते हैं। और यही कारण है कि लोगों का राजनीति से मोहभंग हो रहा है। उनमें उदासीनता बढ़ती जा रही है। नेताओं का आचरण उन्हें राजनीतिक प्रक्रिया से दूर होने के लिए मजबूर कर रहा है। इस बार के चुनाव में सत्तारूढ़ और विपक्षी गठबंधन की ओर से लगातार झूठे या आधे अधूरे तथ्यों पर आधारित नैरेटिव गढ़े जा रहे हैं। मतदाताओं से झूठ बोला जा रहा है। जनता से बड़े बड़े वादे किए जा रहे हैं। दूसरी पार्टियो से लाकर नेताओं को चुनाव लड़ाया जा रहा है, जिससे पार्टियों के बीच की विभाजन रेखा मिट गई है या धुंधली हो गई है। इसका अनिवार्य नतीजा यह है कि तीन चरण के मतदान में जनता का उत्साह देखने को नहीं मिला है और मतदान प्रतिशत पिछली बार के बराबर भी नहीं पहुंच पाया है।