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विचारधारा की लड़ाई कहां है?

लोकतंत्र और संविधान

कांग्रेस नेता राहुल गांधी और उनकी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे लोकसभा चुनाव 2024 को लेकर दावा कर रहे हैं कि यह लोकतंत्र और संविधान को बचाने का चुनाव है और साथ ही यह विचारधारा की लड़ाई भी है। कई विपक्षी नेता संकेतों में कही जा रही इस बात को विस्तार से समझाते हैं और बताते हैं कि अगर नरेंद्र मोदी फिर से चुनाव जीत गए तो वे आगे से चुनाव नहीं होंगे। वे संविधान को खत्म कर देंगे और देश में तानाशाही स्थापित हो जाएगी।

धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र से भारत हिंदू राष्ट्र बन जाएगा। नफरत फैलाने वाली आरएसएस की विचारधारा हमेशा के लिए स्थापित हो जाएगी। आदि आदि। संविधान बदलने के आरोपों के जवाब में प्रधानमंत्री मोदी इस हद तक गए कि उन्होंने कहा कि संविधान उनके लिए गीता, कुरान और बाइबिल है। उन्होंने यहां तक कहा कि अब बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर भी आ गए तो वे संविधान नहीं बदल पाएंगे।

प्रधानमंत्री की इस बात पर यकीन नहीं करने का कोई कारण नहीं है क्योंकि संविधान किसी को भी कुछ भी करने से नहीं रोक पाता है। डॉक्टर अंबेडकर ने खुद ही कहा था कि संविधान उतना ही अच्छा या बुरा होगा, जितना उसका अनुपालन कराने वाले अच्छे या बुरे होंगे। इंदिरा गांधी को देश में इमरजेंसी लगाने की ताकत संविधान ने ही दी थी। उन्होंने कोई असंवैधानिक काम नहीं किया था। आज अगर कहा जा रहा है कि अघोषित इमरजेंसी है तो उसे भी संविधान के जरिए आप रोक नहीं पा रहे हैं।

अगर संविधान कहीं किसी काम में बाधा बनता है तो सरकार के पास उसमें संशोधन का अधिकार है। नरेंद्र मोदी के पास तो खैर पूर्ण बहुमत है लेकिन अल्पमत की सरकारों ने भी संविधान में संशोधन किए हैं और अपने मनमाफिक काम किया है। प्रधानमंत्री मोदी की सरकार ने अनुच्छेद 370 समाप्त कर दिया या नागरिकता कानून में संशोधन कर दिया और संविधान आड़े नहीं आया तो आगे भी संविधान से किसी तरह की बाधा नहीं पैदा होगी। इसलिए संविधान बदलने का खतरा वास्तविक नहीं है।

जहां तक लोकतंत्र बचाने की बात है तो वह भी एक अतिवादी विचार है, जिसकी उत्पत्ति मुख्य रूप से विपक्षी नेताओं की निजी मुश्किलों से हुई है। गौरतलब है कि इस समय तमाम विपक्षी नेता किसी न किसी तरह की मुश्किल से घिरे हैं। उनके खिलाफ केंद्रीय एजेंसियों की जांच और कार्रवाई चल रही है। उनके यहां से संपत्ति की जब्ती हुई है और गिरफ्तारियां भी हुई हैं। इसमें कोई संदेह नहीं है कि विपक्षी नेताओं को जान बूझकर निशाना बनाया गया है। विपक्ष को कमजोर करने का प्रयास योजनाबद्ध तरीके से किया जा रहा है। लेकिन ऐसा नहीं है कि यह प्रयास पहली बार हो रहा है। किसी भी पार्टी के शासन में केंद्रीय एजेंसियों की कार्रवाई आमतौर पर विपक्षी नेताओं के खिलाफ हो होती है।

अभी केंद्रीय एजेंसियों की 95 फीसदी कार्रवाई विपक्षी नेताओं के खिलाफ हो रही है, जबकि कांग्रेस के नेतृत्व वाले यूपीए के शासन में 65 फीसदी कार्रवाई विपक्षी नेताओं के खिलाफ होती थी। इसका मतलब है शासन का सैद्धांतिक मार्ग एक ही है अंतर सिर्फ तीव्रता का है। अगर विपक्ष के खिलाफ कार्रवाई से लोकतंत्र समाप्त होता तो भारत में लोकतंत्र कई बार समाप्त हो चुका होता। किसी नेता के कल्ट बन जाने से भी लोकतंत्र समाप्त नहीं होता है और न विपक्ष के कमजोर होने से लोकतंत्र समाप्त होता है। मीडिया और संस्थानों का सरकारों के सामने रेंगना भी भारत के लिए कोई नई बात नहीं है।

अब रही बात वैचारिक लड़ाई की तो उसमें भी सिर्फ आंशिक सचाई है। विचारधारा के स्तर पर भाजपा और कांग्रेस कोई अलग अलग पार्टियां नहीं हैं। दोनों की आर्थिक नीतियां एक जैसी हैं। दोनों जनता पर कोड़े बरसा कर टैक्स वसूलने और वोट के लिए उसे एक बड़े तबके में बांटने के सिद्धांत पर काम करती हैं। दोनों की विदेश नीति एक जैसी है, जिसकी वजह से भारत पड़ोस में ही अछूत बन गया है। उद्योग से लेकर वन व पर्यावरण और शिक्षा से लेकर स्वास्थ्य, कृषि तक की किसी भी नीति में दोनों में कोई भेद करना बड़ा मुश्किल काम हो जाएगा।

सामाजिक नीतियों में भी दोनों बिल्कुल एक जैसे हैं। भाजपा के नेताओं को भी जान देकर आरक्षण बचाना है तो कांग्रेस के नेताओं को जान पर खेल कर आरक्षण की सीमा बढ़ानी है। तभी संघ और भाजपा के पुराने कई जानकार भाजपा को ‘भगवा कांग्रेस’ कहते रहे हैं। एक नोटबंदी को छोड़ दें तो भाजपा की सरकार ने कांग्रेस की ही तमाम नीतियों को लागू किया है और इसका दावा कांग्रेस के नेता खुद ही करते हैं।

सो, विचारधारा के स्तर पर लड़ाई की बात में भी सिर्फ आंशिक सचाई है। असल में पिछले कुछ बरसों में पहली बार दक्षिणपंथी राजनीति मुख्यधारा के तौर पर स्थापित हुई है। भारतीय जनता पार्टी लंबे समय तक गांधीवादी समाजवाद की बात करती थी। कम से कम प्रत्यक्ष तौर पर इसी के बारे में बात होती थी। इसके अलावा दीनदयाल उपाध्याय का एकात्म मानववाद और लालकृष्ण आडवाणी का सांस्कृतिक राष्ट्रवाद इतना जटिल और काफी हद तक अस्पष्ट विचार है कि आम लोग इसे समझ नहीं पाते हैं।

भाजपा की जो वास्तविक विचारधारा थी उसे उसके नेता जाहिर नहीं करते थे। वे सही समय आने का इंतजार कर रहे थे। केंद्र में पूर्ण बहुमत मिलने और देश के ज्यादातर राज्यों में सरकार बनने के बाद वह सही समय आ गया। इसलिए अब जटिल व अस्पष्ट वैचारिक बातों को भाजपा ने ठंडे बस्ते में डाल दिया है और अपने वास्तविक एजेंडे पर अमल शुरू कर दिया है। इससे समाज में एक तरह की खलबली पैदा हुई है। देश संक्रमण के दौर में आया है।

अगर आजादी के बाद ही भारतीय जनसंघ ने खुल कर इसी तरह की राजनीति की होती तो देश में दक्षिणपंथी, पूंजीवादी राजनीति की एक धारा उसी समय बहुत मजबूती से स्थापित हो गई होती, जैसी अमेरिका में रिपब्लिकन या ब्रिटेन में कंजरवेटिव पार्टी के तौर पर स्थापित है। उस समय आजादी के बाद वाली कांग्रेस की अपनाई गई विचारधारा से मुकाबले की मजबूरी ने सभी पार्टियों को उसी से मिलती जुलती राजनीति करने के लिए बाध्य किया। स्वतंत्र पार्टी के एक अपवाद को छोड़ दें तो सभी पार्टियां एक जैसी विचारधारा की राजनीति करती थीं। भारतीय जनसंघ और बाद में भारतीय जनता पार्टी भी कांग्रेस जैसी ही राजनीति करती रही।

अब जाकर उसका असली रंग सामने आया है तो सबको हैरानी हो रही है कि यह क्या है? पहले तो भारत में ऐसा कभी नहीं हुआ! पहले नहीं हुआ इसका यह मतलब नहीं है कि कभी नहीं होगा और पहले नहीं हुआ लेकिन अब हो रहा है तो इसका यह भी मतलब नहीं है कि गलत हो रहा है। भाजपा के ताकतवर होने के साथ दक्षिणपंथी, पूंजीवादी राजनीति बिल्कुल भदेस अंदाज में स्थापित हो रही है। इसे सम्भ्रांत रूप में आने में थोड़ा समय लगेगा। लेकिन उससे पहले इसे खतरा बता कर लड़ने का अभियान चलता रहेगा। इसी को राहुल गांधी नफरत फैलाने वाली आरएसएस की विचारधारा बनाम मोहब्बत की दुकान खोलने की लड़ाई बताते हैं।

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By अजीत द्विवेदी

संवाददाता/स्तंभकार/ वरिष्ठ संपादक जनसत्ता’ में प्रशिक्षु पत्रकार से पत्रकारिता शुरू करके अजीत द्विवेदी भास्कर, हिंदी चैनल ‘इंडिया न्यूज’ में सहायक संपादक और टीवी चैनल को लॉंच करने वाली टीम में अंहम दायित्व संभाले। संपादक हरिशंकर व्यास के संसर्ग में पत्रकारिता में उनके हर प्रयोग में शामिल और साक्षी। हिंदी की पहली कंप्यूटर पत्रिका ‘कंप्यूटर संचार सूचना’, टीवी के पहले आर्थिक कार्यक्रम ‘कारोबारनामा’, हिंदी के बहुभाषी पोर्टल ‘नेटजाल डॉटकॉम’, ईटीवी के ‘सेंट्रल हॉल’ और फिर लगातार ‘नया इंडिया’ नियमित राजनैतिक कॉलम और रिपोर्टिंग-लेखन व संपादन की बहुआयामी भूमिका।

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