भारतीय दंड संहिता की जगह अब भारतीय न्याय संहिता लागू की जाएगी। अपराध प्रक्रिया संहिता की जगह अब भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता लागू होगी और साक्ष्य कानून की जगह भारतीय साक्ष्य कानून लागू होगा। केंद्र सरकार ने इसके लिए मॉनसून सत्र में तीन विधेयक पेश किए और तीनों विधेयकों को गृह मामलों की संसदीय समिति के पास विचार के लिए भेज दिया गया है। संसदीय समिति को तीन महीने का समय दिया गया है। इसका मतलब है कि नवंबर में जब संसद का शीतकालीन सत्र शुरू होगा तब तक संसदीय समिति की रिपोर्ट आ चुकी होगी और उसके हिसाब से सुझावों-संशोधनों को इसमें शामिल करके बिल को पास कराने के लिए संसद में रखा जा सकता है। अगर ये तीनों बिल पास हो जाते हैं, जिसकी पूरी संभावना है तो यह देश की न्यायिक व्यवस्था में एक नए दौर की शुरुआत होगी।
ध्यान रहे भारतीय दंड संहिता 1861 में लागू की गई थी, जिसे थोड़े बहुत बदलाव के साथ अभी तक जारी रखा गया है। अपराध प्रक्रिया संहिता को 1973 में लागू किया गया था और साक्ष्य कानून 1872 में अस्तित्व में आया था। इनमें समय समय पर बदलाव किया गया और देश, समाज की बदलती जरूरतों के हिसाब से इन्हें नया रूप देने की कोशिश की गई। लेकिन कभी भी इसे पूरी तरह से बदलने का प्रयास नहीं हुआ या मौजूदा समय की जरूरत के हिसाब से व्यापक बदलाव नहीं किया गया। इस लिहाज से कह सकते हैं कि सरकार का प्रयास गंभीर है, जरूरी है और व्यापक भी है। लंबे विचार विमर्श के बाद इन तीनों कानूनों में बदलाव का मसौदा बना है और उसे संसद में रखा गया है।
इन तीनों कानूनों में बदलाव के लिए पेश किए गए मसौदे पर कानूनी जानकारों ने बहुत बारीकी से विचार किया है और इसकी कमियों, खूबियों को उजागर किया है। हालांकि देश के अनेक जाने-माने कानूनी जानकार दलगत निष्ठा से बंधे हुए हैं या वैचारिक आधार पर मुख्तलिफ राय रखते हैं। इसलिए उनकी समीक्षा बुनियादी रूप से एकतरफा है। ऐसा नहीं है कि इन तीनों कानूनों में सब कुछ खराब है।
इसमें कुछ अच्छी और जरूरी चीजें भी हैं लेकिन इसकी जो खामी है वह बहुत बड़ी है और उम्मीद करनी चाहिए कि संसदीय समिति उस पर गंभीरता से विचार करेगी और सरकार को उसे बदलने की सिफारिश करेगी। अपराध प्रक्रिया संहिता की जगह सरकार भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता का जो मसौदा लेकर आई है उसमें सबसे बड़ी खामी किसी नागरिक को बिना आरोप लगाए तीन महीने तक पुलिस हिरासत में रखने का प्रावधान है। इसे बदला जाना चाहिए।
मौजूदा अपराध प्रक्रिया संहिता में किसी भी नागरिक को बिना आरोप लगाए 60 दिन तक पुलिस हिरासत में रखा जा सकता है। तभी गिरफ्तारी के 24 घंटे के अंदर पुलिस किसी आरोपी को अदालत में पेश करती है और अदालत उसे दो बार या तीन बार पुलिस हिरासत में भेजती है उसके बाद आरोपी को न्यायिक हिरासत में भेज दिया जाता है। नए कानून में प्रावधान है कि गिरफ्तारी के बाद आरोपी को 60 दिन तक हिरासत में रखा जा सकता है और फिर 90 दिन तक बढ़ाया जा सकता है। यह बहुत कठोर और बर्बर प्रावधान है।
किसी भी व्यक्ति को बगैर न्यायिक अभिरक्षा के इतने लंबे समय तक अगर पुलिस की हिरासत में रखा जाता है तो यह उसके साथ बहुत बड़ी ज्यादती होगी। इतनी लंबी अवधि में उसके ऊपर दबाव बनाने और उससे जोर जबरदस्ती गुनाह कबूल कराने की संभावना रहेगी। पुलिस हिरासत की इतनी लंबी अवधि किसी को भी तोड़ सकती है। इसमें गुनाहगार और बेगुनाह दोनों के साथ ज्यादती की संभावना है।
इस तरह का प्रावधान करते समय मसौदा तैयार करने वाले जानकारों को दुनिया की बेस्ट प्रैक्टिस के बारे में जानकारी लेनी चाहिए थी। दुनिया में सबसे बेस्ट प्रैक्टिस स्कॉटलैंड में है, जहां बिना आरोप लगाए किसी भी व्यक्ति को सिर्फ छह घंटे तक पुलिस हिरासत में रखा जा सकता है। अगर छह घंटे की अवधि बहुत कम है तो इसे छह दिन किया जा सकता है लेकिन 90 दिन की पुलिस हिरासत का प्रावधान इस पूरी कवायद पर एक दाग है, जिसे हटाना सबसे जरूरी है। इसी तरह से एक कठोर प्रावधान हथकड़ी लगाने का है।
भारत में इसका प्रावधान नहीं है लेकिन नए कानून में पुलिस को अपने विवेक से हथकड़ी लगाने का अधिकार दिया जाएगा। इसी तरह विशेष स्थितियों में रात में महिलाओं की गिरफ्तारी का अधिकार दिया जा रहा है और किसी भी गिरफ्तारी के समय हर तरह के उपायों का इस्तेमाल करने का अधिकार भी पुलिस को दिया जा रहा है। अगर यह कानून बनता है तो गिरफ्तारी के समय हिंसा और यहां तक की इनकाउंटर तक को वैधता मिल जाएगी।
भारतीय न्याय संहिता में सरकार ने देशद्रोह की धारा हटा दी है लेकिन राज्य के प्रति अपराध को शामिल कर लिया है, जो पहले वाले कानून से ही मिलता जुलता है। राज्य के खिलाफ बोलने या किसी भी माध्यम से की जाने वाली अभिव्यक्ति या वित्तीय लेन-देन को लेकर यह कानून लागू किया जा सकता है। इसमें सात साल से उम्रकैद तक की सजा है। इसलिए कुछ ज्यादा बदलाव होते नहीं दिख रहे हैं, बल्कि पुलिस को पहले के मुकाबले स्वविवेक से ज्यादा फैसले करने का अधिकार दिया जा रहा है।
इसके अलावा वकीलों से लेकर आम लोगों तक के लिए एक मुश्किल कानून की धाराओं के नंबर बदले जाने से होगी। नए कानून में हत्या के लिए 302 की जगह धारा 101 लगेगी और धोखाधड़ी के लिए धारा 420 की जगह 316 होगी। पिछले 163 साल में लोगों की जुबान पर ये धाराएं हैं। पुराने मामलों में मुकदमे इन्हीं धाराओं में चल रहे हैं और दस्तावेजों में पुरानी धाराएं ही लिखी हुई हैं। सो, एक ही अपराध के लिए दो-दो धाराएं कानूनी प्रक्रिया में इस्तेमाल होंगी, इससे कंफ्यूजन बनेगा।
बहरहाल, इस कानून में कुछ अच्छे प्रावधान हैं, जैसे इसमें कहा गया है कि किसी भी व्यक्ति या संस्था के खिलाफ शिकायत मिलने से लेकर जांच और अदालत में सुनवाई तक का पूरा रिकॉर्ड डिजिटल रखा जाएगा। इसका फायदा यह होगा कि सभी पक्षों के लिए सारी जानकारी को एक्सेस करना बहुत आसान हो जाएगा। इसे लंबे समय तक सुरक्षित रखा जा सकेगा और बहुत आसानी से एक्सेस किया जा सकेगा। एक दूसरा प्रावधान यह है कि पुलिस किसी व्यक्ति के यहां छापा मारती है या उसे गिरफ्तार करने जाती है तो पूरी प्रक्रिया की वीडियोग्राफी होगी। इससे गिरफ्तारी या छापे के समय होने वाली ज्यादतियों में कमी आएगी और किसी को गलत तरीके से फंसाने के लिए सबूत प्लांट करने की घटनाएं बंद होंगी या कम होंगी।
तीनों नए कानूनों में ढेर सारे प्रावधान हैं, जिन पर बारीकी से विचार करने की जरूरत है। लेकिन इन कानूनों पर विचार के बीच एक बड़ा सवाल यह भी है कि सिर्फ कानून बदलने से क्या होगा? कानून को लागू करने वाला सिस्टम जब वही है तो कानून या उसकी धाराओं में बदलाव कर देने से क्या बदलेगा? देश का पुलिस सिस्टम नहीं बदला जा रहा है। दुनिया के विकसित देशों में लॉ एंड ऑर्डर, इन्वेस्टिगेशन और प्रॉसीक्यूशन के लिए अलग अलग पुलिस होती है। भारत में एक ही पुलिस सारे काम करती है।
अगर पुलिस सिस्टम को नहीं बदला जाता है, पुलिस का बेहतर प्रशिक्षण नहीं होता है तब तक कानून बदलने का कोई खास फायदा नहीं होगा। न्यायिक व्यवस्था भी पहले वाली ही रहनी है। बुनियादी ढांचे की कमी की वजह से नीचे से लेकर ऊपर तक जजों की संख्या नहीं बढ़ाई जा रही है, जिसका नतीजा यह है कि मुकदमों का अंबार और बढ़ता जा रहा है। कानून में बदलाव के साथ साथ अगर इसमें भी सुधार किया जाता तो ज्यादा बेहतर होता।
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