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लोकतंत्र के लिए अहम नया साल

विधानसभा चुनावों की घोषणा

नए साल की शुरुआत बांग्लादेश के चुनाव से हो रही है। सात जनवरी को बांग्लादेश में वोट डाले जाएंगे। उसके एक महीने बाद आठ फरवरी को पाकिस्तान में आम चुनाव होंगे और अप्रैल-मई में दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र यानी भारत में लोकसभा चुनाव होना निर्धारित है। दक्षिण एशिया में गर्भनाल से जुड़े रहे ये तीनों देश भले आज अलग अलग हैं लेकिन इनमें बहुत कुछ एक जैसा है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि भारत का लोकतंत्र दुनिया के किसी भी सभ्य और लोकतांत्रिक देश की तरह जीवंत है, जहां मतदाताओं की संख्या एक सौ करोड़ के करीब है और अगले चुनाव में मोटे तौर पर 70 करोड़ लोग मतदान में करेंगे।

दूसरी ओर पाकिस्तान में लोकतंत्र एक तमाशा है। पूर्व प्रधानमंत्री जेल में बंद हैं और चुनाव आयोग ने उनका नामांकन खारिज कर दिया है। दूसरी ओर भ्रष्टाचार के आरोप में सजा पाए और देश छोड़ कर भाग गए नवाज शरीफ की वापसी हो गई है और उनका नामांकन स्वीकार हो गया है। तो समझा जा सकता है कि वहां चुनाव किस तरह से होंगे। बांग्लादेश में भी लोकतंत्र जैसे तैसे जिंदा है। प्रधानमंत्री शेख हसीना ने समूचे विपक्ष को या तो जेल में डाल रखा है या देश निकाला दिया हुआ है।

बहरहाल, भारत में भी लोकतंत्र के लिए 2024 का साल परीक्षा वाला है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लगातार तीसरी बार चुनाव जीत कर देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के रिकॉर्ड की बराबरी करने के लिए चुनाव में उतरेंगे। दूसरी ओर विपक्ष की ओर से यह आशंका जताई जा रही है कि अगर मोदी तीसरी बार जीतते हैं तो लोकतंत्र खत्म हो जाएगा और फिर कभी चुनाव नहीं होंगे। कई विपक्षी पार्टियों के नेता दबी जुबान में यह बात कह रहे हैं और विपक्ष की एक मुखर आवाज बन कर उभरे पूर्व राज्यपाल सत्यपाल मलिक खुल कर कह रहे हैं।

हालांकि उनकी यह आशंका निराधार है कि मोदी तीसरी बार जीते तो लोकतंत्र खत्म हो जाएगा या चुनाव नहीं होगा। मोदी चुनाव क्यों नहीं कराएंगे? चुनाव से तो उनको वैधता मिलती है। उनके एजेंडे को स्वीकार्यता मिलती है। उनको और ताकत मिलती है। वे दुनिया भर में सबसे बड़े लोकतंत्र के लोकप्रिय नेता के तौर पर सम्मान पाते हैं। सो, चुनाव नहीं होने की बातों का कोई मतलब नहीं है। चुनाव तो होते रहेंगे।

असली सवाल चुनाव की प्रक्रिया का है। उसकी विश्वसनीयता का है और लोगों के भरोसे का है। अगर देश की मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस और अन्य पार्टियां चुनाव प्रक्रिया पर सवाल उठा रही हैं तो उसे सिर्फ विपक्ष की बेबुनियाद आशंका, उसकी हार का भय या मोदीफोबिया बता कर खारिज करने की बजाय विश्वसनीय तरीके से उसका निराकरण किया जाना चाहिए। विपक्ष इलेक्ट्रोनिक वोटिंग मशीन को लेकर आशंकित है। उसमें छेड़छाड़ की संभावना देख रहा है। तो चुनाव आयोग को इस आशंका का जवाब देना चाहिए। यह कह देना पर्याप्त नहीं होगा कि चुनाव आयोग ने खुली चुनौती दी थी कि कोई मशीन हैक करके दिखाए लेकिन कोई हैक नहीं कर सका। चुनाव आयोग का यह मानना कि मशीन हैक नहीं हो सकती है, उसकी जिद है।

उसे इस मामले को प्रतिष्ठा का सवाल नहीं बनाना चाहिए क्योंकि उसने न तो ईवीएम का आविष्कार किया है और न उसके कहने से चुनाव में ईवीएम का इस्तेमाल शुरू हुआ था और न ईवीएम ने उसे अपनी ब्रांडिंग के लिए मैनेजर नियुक्त किया है। ईवीएम बनाने का काम भी चुनाव आयोग का नहीं है। यह काम सरकार का है। और यह लोकतंत्र का सबसे पवित्र सिद्धांत है कि चुनाव आयोग के लिए जैसे सरकार यानी सत्तारूढ़ दल है वैसे ही विपक्ष है। उसे दोनों के प्रति समान भाव दिखाना चाहिए और जरुरत पड़ने पर सरकार के खिलाफ भी स्टैंड लेना चाहिए।

लेकिन जब चुनाव आयोग जैसी संवैधानिक संस्था विपक्ष के हर आरोप को खारिज करने लगे और सरकार की हर बात स्वीकार करने लगे तो उसमें गड़बड़ी भले कुछ न हो लेकिन आशंका पैदा होती है। तभी यह साल चुनाव आयोग की छवि बदलने वाला होना चाहिए क्योंकि लोकसभा के साथ इस साल जम्मू कश्मीर सहित आठ राज्यों में विधानसभा के चुनाव भी होने वाले हैं।सो, चुनाव आयोग को ईवीएम से जुड़ी आशंकाओं को दूर करने का प्रयास करना चाहिए। विपक्षी पार्टियों का यह प्रस्ताव है कि चुनाव भले ईवीएम से कराया जाए लेकिन वीवीपैट मशीनों से निकलने वाली पर्ची को मतदाता के देखने के बाद एक अलग बॉक्स में रखने की व्यवस्था हो, जिसे सबके सामने ईवीएम की तरह ही सील किया जाए और मतगणना में सारी पर्चियों को गिना जाए। इसमें नतीजे आने में निश्चित रूप से समय ज्यादा लगेगा लेकिन वह बड़ी बात नहीं होगी।

आखिर पांच साल पर चुनाव होते हैं और चुनाव आयोग भी दो महीने में मतदान की प्रक्रिया पूरी करता है। कई क्षेत्रों में मतदान के बाद नतीजों के लिए लोगों को एक एक महीने तक इंतजार करना होता है। इसलिए मतदान समाप्त होने के बाद अगर नतीजे आने में दो-तीन दिन का समय लग जाता है तो उससे कोई आफत नहीं आ जाएगी। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में चुनाव प्रक्रिया की शुचिता और चुनाव नतीजों के प्रति आम नागरिक का भरोसा बनाए रखने की यह कोई बड़ी कीमत नहीं होगी।

दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के लिए 2024 का साल इसलिए भी अहम है क्योंकि आम चुनावों के साथ साथ जम्मू कश्मीर में चुनाव होने वाले हैं और उसका पूर्ण राज्य का दर्जा बहाल होना है। सोचें, केंद्र सरकार और सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी दोनों दावा करते हैं कि जम्मू कश्मीर में सब सामान्य हो गया है। शांति बहाल हो गई है। आतंकवादी घटनाओं में बहुत कमी आ गई है। विकास की गंगा बह रही है। इसके बावजूद पांच साल से राज्य में विधानसभा नहीं है। जम्मू कश्मीर विधानसभा नवंबर 2018 में भंग कर दी गई थी। उसके एक साल बाद अनुच्छेद 370 खत्म करके राज्य का विशेष दर्जा समाप्त कर दिया गया था।

साथ ही जम्मू कश्मीर को विभाजित करके लद्दाख को अलग केंद्र शासित प्रदेश बना दिया गया था। इस तरह नवंबर 2018 से राज्य में विधानसभा नहीं है और अगस्त 2019 से जम्मू कश्मीर केंद्र शासित प्रदेश है। अब सुप्रीम कोर्ट ने सितंबर तक चुनाव कराने को कहा है और जल्दी से जल्दी पूर्ण राज्य का दर्जा बहाल करने का आदेश दिया है। एक राज्य में पांच साल से जनता की चुनी हुई सरकार नहीं है। यह दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के लिए, जिसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मदर ऑफ डेमोक्रेसी कहते हैं, अच्छी बात नहीं है। राज्य में आखिरी बार 2014 में चुनाव हुए थे। लोकतंत्र के लिए इससे जरूरी क्या हो सकता है कि 10 साल बाद राज्य में चुनाव हो!

लोकतंत्र में चुनाव अच्छी बात है। आम चुनाव होंगे। कई राज्यों में चुनाव होंगे। उससे पहले आस्था के केंद्र के तौर पर अयोध्या में रामलला की प्रतिमा की प्राण प्रतिष्ठा होगी। करोड़ों लोग रामलला विराजमान के दर्शन करने जाएंगे। लेकिन इसके साथ ही लोकतंत्र के लिए अच्छी बात यह होगी की जनगणना कराई जाए। भारत में आखिरी बार 2011 में जनगणना हुई थी। उसके बाद 2021 में जनगणना होनी थी लेकिन 2020 में कोरोना की महामारी की वजह से इसे टाल दिया गया और तब से यह टला हुआ है।

इस अवधि में चीन को पीछे छोड़ कर भारत दुनिया की सबसे बड़ी आबादी वाला देश बन गया है। परंतु उस आबादी की गिनती नहीं हुई है। 2011 के आंकड़ों के आधार पर सरकार की योजनाएं बन रही हैं। न आबादी का वास्तविक आंकड़ा है और न सामाजिक-आर्थिक स्थिति का वास्तविक आंकड़ा है। लोकतंत्र की मजबूती के लिए यह भी जरूरी है कि उन बंदों को गिना जाए, जो लोकतंत्र की मजबूती के लिए मतदान करते हैं। उनकी आर्थिक-सामाजिक स्थिति की भी जानकारी होनी चाहिए ताकि यह पता चले कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के नागरिकों के हालात क्या हैं।

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By अजीत द्विवेदी

संवाददाता/स्तंभकार/ वरिष्ठ संपादक जनसत्ता’ में प्रशिक्षु पत्रकार से पत्रकारिता शुरू करके अजीत द्विवेदी भास्कर, हिंदी चैनल ‘इंडिया न्यूज’ में सहायक संपादक और टीवी चैनल को लॉंच करने वाली टीम में अंहम दायित्व संभाले। संपादक हरिशंकर व्यास के संसर्ग में पत्रकारिता में उनके हर प्रयोग में शामिल और साक्षी। हिंदी की पहली कंप्यूटर पत्रिका ‘कंप्यूटर संचार सूचना’, टीवी के पहले आर्थिक कार्यक्रम ‘कारोबारनामा’, हिंदी के बहुभाषी पोर्टल ‘नेटजाल डॉटकॉम’, ईटीवी के ‘सेंट्रल हॉल’ और फिर लगातार ‘नया इंडिया’ नियमित राजनैतिक कॉलम और रिपोर्टिंग-लेखन व संपादन की बहुआयामी भूमिका।

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