भाजपा ने क्यों पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में इतनी ताकत झोंकी? लोकसभा चुनाव से ठीक पहले क्यों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने को इस तरह दांव पर लगाया? क्यों मोदी और अमित शाह दोनों ने इन चुनावों को प्रतिष्ठा का सवाल बनाया है? क्यों ऐन केन प्रकारेण चुनाव जीतने की कोशिश हो रही है? आखिर पांच साल पहले भी तो इन राज्यों के चुनाव हुए थे और उनमें भी भाजपा हार गई थी, लेकिन उसके बाद लोकसभा चुनाव में पहले से ज्यादा सीटों के साथ जीती फिर इस बार इतनी चिंता करने की क्या जरूरत है?
क्या भाजपा को लग रहा है कि इस बार 2018 और 2019 का इतिहास नहीं दोहराया जाएगा? क्या भाजपा को लग रहा है कि अगर पिछली बार की तरह इस बार कांग्रेस जीती तो 2024 की तस्वीर बदली हुई होगी? या यह माना जाए कि भाजपा के लिए यह रूटीन का मामला है, मोदी और शाह जिस तरह से सारे चुनाव लड़ते हैं वैसे ही ये चुनाव भी लड़ रहे हैं?
चार महीने पहले अगस्त में मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के उम्मीदवारों की पहली सूची की घोषणा के साथ जिस तरह से इस बार के विधानसभा चुनावों का भाजपा ने आगाज किया उसे देख कर साफ लग रहा है कि यह रूटिन का चुनाव नहीं है। पिछली बार से उलट इस बार भाजपा ने किसी राज्य में मुख्यमंत्री पद का दावेदार घोषित नहीं किया। पिछली बार भाजपा ने राजस्थान में वसुंधरा राजे, मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान और छत्तीसगढ़ में रमन सिंह के चेहरे पर चुनाव लड़ा था।
इस बार भी ये तीनों नेता चुनाव लड़ रहे हैं लेकिन चुनाव उनके चेहरे पर नहीं, बल्कि नरेंद्र मोदी के चेहरे पर लड़ा जा रहा है। यह सही है कि प्रादेशिक नेताओं के मुकाबले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का चेहरा ज्यादा लोकप्रिय है और भाजपा को वोट दिलाने वाला है लेकिन क्या लोकसभा चुनाव से पहले प्रधानमंत्री का इस तरह अपनी साख दांव पर लगाना सही रणनीति है?
असल में पूर्वोत्तर के मिजोरम को छोड़ कर चार राज्यों- राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और तेलंगाना का विधानसभा चुनाव भाजपा सिर्फ जीत कर अपनी सरकार बनाने के लिए नहीं लड़ रही है, बल्कि कांग्रेस को हरा कर अगले साल के लोकसभा चुनाव में उसको चुनौती बनने से रोकने के लिए लड़ रही है। इन चार में से तीन राज्यों में कांग्रेस और भाजपा के बीच सीधी लड़ाई है।
अगर आमने सामने की इस लड़ाई में भाजपा को हरा कर कांग्रेस जीतती है तो इसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करिश्मे, उनकी सरकार के कामकाज और उनके बनाए नैरेटिव और हिंदुत्व, राष्ट्रवाद और उनके मजबूत नेतृत्व के ऊपर राहुल गांधी के करिश्मे और मोहब्बत की दुकान के उनके नैरेटिव की जीत माना जाएगा। इससे स्वाभाविक रूप से यह मैसेज बनेगा कि भाजपा को कांग्रेस अपने नैरेटिव, नेतृत्व और एजेंडे के दम पर हरा सकती है।
सीधे मुकाबले में भाजपा को हरा कर कांग्रेस अगले लोकसभा चुनाव में मुख्य चैलेंजर के तौर पर उभरेगी। प्रादेशिक पार्टियां भी मान लेंगी कि कांग्रेस ही भाजपा को हरा सकती है। यह धारणा बनने के बाद विपक्षी पार्टियां अपने आप उसके ईर्द-गिर्द इकट्ठा होंगी। पार्टियों के स्वाभाविक रूप से कांग्रेस के साथ गठबंधन में इकट्ठा होने के साथ साथ पूरे देश के भाजपा विरोधी मतदाता भी उसके पीछे खड़े होंगे।
भाजपा विरोधी मतदाताओं की पहली पसंद कांग्रेस बनेगी। वे प्रादेशिक पार्टियां का साथ छोड़ कर भी कांग्रेस के पीछे एकजुट होंगे। इससे हिंदी पट्टी का पूरा चुनावी परिदृश्य बदल जाएगा। अब यह सवाल उठेगा कि पिछली बार भाजपा इन तीनों राज्यों में हार गई थी फिर क्यों नहीं चुनावी परिदृश्य बदला था? इसका पहला कारण यह था कि दो राज्यों- मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में भाजपा की सरकार 15 साल से चल रही थी और लोग उबे हुए थे तो राजस्थान में हर पांच साल में राज बदलने का रिवाज रहा है।
दूसरा कारण यह था कि ऐसा कुछ केंद्र सरकार के मामले में नहीं था। लोग नरेंद्र मोदी की सरकार से न नाराज थे और न उबे हुए थे। यह भी ध्यान रखने की जरूरत है कि मोदी से पहले भी देश के मतदाताओं ने मनमोहन सिंह को दूसरी बार सरकार चलाने का मौका दिया था। यह आम धारणा थी कि किसी भी सरकार के लिए एक कार्यकाल पर्याप्त नहीं होता है।
लोगों ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के एजेंडे पर भरोसा किया था और उनकी सरकार द्वारा शुरू की गई दर्जनों योजनाओ को पूरा करने के लिए एक कार्यकाल और दिया था। तीसरा कारण यह था कि कांग्रेस बहुत बिखरी हुई और कमजोर थी। लोगों ने भाजपा और नरेंद्र मोदी के प्रचार से प्रभावित होकर ही सही लेकिन 2014 में कांग्रेस को जिस अंदाज में सजा दी थी उससे लोगों का जी नहीं भरा था। इसलिए कांग्रेस को लेकर भाजपा के मन में ज्यादा चिंता नहीं थी।
इस बार हालात बदले हैं। 2019 के बाद पांच साल में कांग्रेस ने अपने को संभाला है। राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा और दक्षिण भारत के दलित नेता मल्लिकार्जुन खड़गे को अध्यक्ष चुनने के बाद कांग्रेस अपने पैरों पर खड़ी हुई है। उसके बाद कांग्रेस ने हिमाचल प्रदेश और कर्नाटक का चुनाव जीता है। तभी हिंदी पट्टी के तीन राज्यों के अलावा दक्षिण में तेलंगाना के चुनाव को भी भाजपा ने प्रतिष्ठा का सवाल बनाया है।
वहां भी प्रधानमंत्री मोदी और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने अपने को झोंका और सारे दांव आजमाए। दलित समूहों के वर्गीकरण के जरिए आरक्षण के भीतर आरक्षण का वादा हो या बाबर, औरंगजेब के नाम पर वोट मांगना हो या प्रवासी भारतीयों के लिए मंत्रालय बनाने का वादा हो, भाजपा ने चुनावी जंग छेड़ी है। वहां भाजपा किसी तरह से कांग्रेस को रोकने की कोशिश में है, चाहे के चंद्रशेखर राव की भारत राष्ट्र समिति चुनाव जीत जाए।
इसका कारण यह है कि कर्नाटक के बाद अगर तेलंगाना में कांग्रेस की सरकार बनती है तो उसका कांग्रेस को दो फायदा है। पहला, संसाधनों से सक्षम दो राज्यों में कांग्रेस की सरकार बनी तो लोकसभा चुनाव लड़ने के लिए कांग्रेस के पास संसाधनों की कमी नहीं रहेगी। दूसरे, लोकसभा चुनाव में दक्षिण भारत के राज्यों में कांग्रेस बिग बैंग के साथ वापसी करेगी। ध्यान रहे कांग्रेस हर बार केंद्र में हारने के बाद दक्षिण से ही वापसी करती रही है। तेलंगाना की जीत कांग्रेस के लिए इसलिए भी अहम होगी क्योंकि कर्नाटक के बाद वह दूसरा राज्य होगा, जहां से यह मैसेज बनेगा कि देश का मुसलमान और दलित कांग्रेस के साथ लौट रहा है।
राहुल और प्रियंका के साथ साथ खड़गे का नेतृत्व भी मजबूत होगा, जिसका फायदा कांग्रेस को पूरे देश में मिल सकता है। इसलिए वहां भी कांग्रेस को रोकने का प्रयास हो रहा है। पांच राज्यों में 679 विधानसभा सीटों पर चुनाव हो रहे हैं अगर इसमें से कांग्रेस को भाजपा से ज्यादा सीटें मिलती हैं तो उसका बड़ा लाउड एंड क्लीयर मैसेज देश भर में जाएगा। अब तक भाजपा यह धारणा बना रही थी कि कांग्रेस से लड़ना उसके लिए आसान है और मोदी बनाम राहुल का चुनाव तो वह आसानी से जीतेगी लेकिन अब वही भाजपा चाहती है कि किसी तरह से कांग्रेस और राहुल से सीधा मुकाबला न बने।
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