इलेक्ट्रोनिक वोटिंग मशीन यानी ईवीएम एक बार फिर सवालों के घेरे में हैं। पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के बाद कांग्रेस के कई नेता अलग अलग तथ्यों और तर्कों के आधार पर ईवीएम से छेड़छाड़ के आरोप लगा रहे हैं। कांग्रेस और उसके समर्थकों की ओर से प्रसारित व्हाट्सऐप फॉरवर्ड भी घूम रहे हैं, जिनमें दावा किया जा रहा है कि गुजरात के वडोदरा की पादरा नगरपालिका चुनाव में ईवीएम की मदद से जनादेश लूटने की शुरुआत हुई थी। बताया जा रहा है कि निगम चुनाव में एक बूथ पर 44 वोट पड़े थे, लेकिन ईवीएम में 111 यानी उससे ढाई गुना ज्यादा वोट दर्ज हुए। उसी व्हाट्सऐप फॉरवर्ड में यह भी बताया जा रहा है कि कांग्रेस की शिकायत पर अमुक नंबर की ईवीएम की जांच हुई तो पाया गया कि किसी भी उम्मीदवार के नाम के सामने बटन दबाने पर भाजपा को वोट जाता था।
एक अन्य व्हाट्सऐप फॉरवर्ड में दावा किया जा रहा है कि मध्य प्रदेश में मतगणना के समय कितने ईवीएम की बैटरी 99 फीसदी चार्ज थी। इस आधार पर दावा किया जा रहा है कि 10 घंटे वोटिंग के बाद बैटरी इतना चार्ज नहीं रह सकती थी। इसका मतलब है कि मशीन बदली गई। एक दूसरे व्हाट्सऐप फॉरवर्ड में ईवीएम का समर्थन करने वालों का मजाक उड़ाते हुए तंज किया जा रहा है कि एपल का फोन हैक हो सकता है, सुरक्षा संस्थानों-बैंकों के कंप्यूटर हैक हो सकते हैं, गाड़ियां हैक की जा सकती हैं लेकिन ईवीएम हैक नहीं किया जा सकता है। 19 लाख ईवीएम गायब होने की बात बरसों से चल रही है। व्हाट्सऐप फॉरवर्ड में किए गए दावे सही हो सकते हैं और गलत भी हो सकते हैं लेकिन ऐसा लग रहा है कि इनको कांग्रेस के नेता अपनी हार के जख्म पर मल्हम की तरह लगा रहे हैं।
व्हाट्सऐप फॉरवर्ड के अलावा कांग्रेस की ओर से आधिकारिक रूप से ईवीएम पर सवाल उठाए जा रहे हैं। मध्य प्रदेश कांग्रेस की ओर से सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म ‘एक्स’ पर एक के बाद एक कई पोस्ट डाली गई, जिसमें लिखा गया, ‘लोकतंत्र फेल हुआ, ईवीएम में खेल हुआ’, ‘ईवीएम की बात करो तो बीजेपी तड़प उठती है, आखिर ये कौन सा रिश्ता है?’ ‘भरोसा टूट रहा है, कोई जनमत लूट रहा है’, ‘ईवीएम जीत गया, आपका मत हार गया’ आदि। पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने चुनाव के तुरंत बाद पोस्टल बैलेट में कांग्रेस की बढ़त के आधार पर यह सवाल उठाया कि पोस्टल बैलेट में भाजपा से इतना आगे होने के बावजूद ईवीएम के वोट में कांग्रेस इतने बड़े अंतर से कैसे हारी?
एक व्हाट्सऐप फॉरवर्ड में यह भी दावा किया गया है कि पोस्टल बैलेट में कांग्रेस मध्य प्रदेश की 230 में से 190 सीटों पर आगे थी। हालांकि ऐसा कोई भी दावा राजस्थान, छत्तीसगढ़ या दूसरे राज्य को लेकर नहीं किया जा रहा है। अगर मध्य प्रदेश के नेताओं खास कर दिग्विजय सिंह, कमलनाथ के सोशल मीडिया हैंडल को देखें तो उस पर बड़ी संख्या में ईवीएम से जुड़ी खबरें शेयर की जा रही हैं। उसमें बताया जा रहा है कि क्यों नीदरलैंड ने ईवीएम पर पाबंदी लगा दी या कहां कहां ईवीएम से क्या गड़बड़ी हुई है। कोई भाजपा के राज्यसभा सांसद जीवीएल नरसिम्हा की ईवीएम पर लिखी किताब पढ़ने की सलाह दे रहा है, कोई लालकृष्ण आडवाणी द्वारा ईवीएम पर उठाए गए सवालों का हवाला दे रहा है तो कोई ईवीएम बनाने वाली भारत सरकार की कंपनी बीईएल के इंजीनियरों के हवाले से बता रहा है कि कंपनी सिर्फ ईवीएम नहीं बनाती है, बल्कि पूरी चुनाव प्रक्रिया में शामिल होती है।
सो, अब सवाल है कि ईवीएम के जरिए जनमत लूटने की जो बात मध्य प्रदेश कांग्रेस की ओर से आधिकारिक रूप से कही जा रही है या मध्य प्रदेश के कांग्रेस नेता जो दावे कर रहे हैं क्या कांग्रेस आलाकमान उससे सहमत है? और सबसे बड़ा सवाल है कि कांग्रेस इस मामले को कहां तक ले जाएगी? इन सवालों के जवाब कांग्रेस को देने हैं लेकिन उससे पहले समझ लेना होगा कि कांग्रेस ईवीएम के मसले को हिट एंड रन के अंदाज में नहीं इस्तेमाल कर सकती है क्योंकि इससे उसको नुकसान हो रहा है।
हर चुनावी हार के बाद कांग्रेस के नेता जब ईवीएम में गड़बड़ी का दावा करते हैं या कह कहते हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के नेतृत्व में भाजपा ईवीएम की मदद से जनमत लूट ले रही है तो इसका बड़ा असर कांग्रेस के नेताओं और कार्यकर्ताओं के मनोबल पर होता है। उनके मन में धीरे धीरे यह धारणा बैठती जा रही है कि वे मोदी और शाह की कमान वाली भाजपा से नहीं लड़ सकते हैं या उनको नहीं हरा सकते हैं।
कांग्रेस के कई नेता यह कहते मिल रहे हैं कि भाजपा वहीं हार रही है जहां वह हारना चाहती है। यानी कर्नाटक, तेलंगाना या कुछ अन्य राज्यों में वह नहीं जीती तो इसलिए कि वह जीतना नहीं चाहती थी ताकि लोगों का चुनावी प्रक्रिया पर भरोसा बना रहे। इस तरह की धारणा मन में बैठने का नतीजा यह है कि बड़ी संख्या में नेता पार्टी छोड़ रहे हैं या छोड़ने की सोच रहे हैं। उनको लग रहा है कि जब लड़ कर भाजपा को नहीं हरा सकते हैं तो लड़ने की क्या जरुरत है। यह सोच कांग्रेस और समूचे विपक्ष को बड़ा नुकसान पहुंचा सकती है।
तभी इस तरह हर चुनाव के बाद ईवीएम पर सवाल उठा कर या कभी-कभार ईवीएम में गड़बड़ी हो सकने की संभावना पर प्रेस कांफ्रेंस करके चुनाव आयोग को ज्ञापन देने की औपचारिकता निभाने की बजाय कांग्रेस पूरी तरह से चुप रहे, ईवीएम के जनादेश को स्वीकार करे और दावा करके कि उसके प्रयासों की वजह से ईवीएम से भारत में चुनाव हो रहे हैं या फिर निर्णायक लड़ाई लड़े। वह ऐलान कर दे कि उसे ईवीएम पर भरोसा नहीं है, उसे हैक किया जा रहा है, जनमत चुराया जा रहा है, आदिवासी, दलित, पिछड़ों, महिलाओं को उपलब्ध एकमात्र संवैधानिक हथियार को उनसे छीना जा रहा है इसलिए जब तक बैलेट पेपर से चुनाव नहीं होंगे, तब तक कांग्रेस चुनाव नहीं लड़ेगी।
अगर दूसरी पार्टियां इस अभियान में शामिल होती हैं तो ठीक है अन्यथा कांग्रेस यह काम अकेले करे। अगर वह तुरंत ऐसा नहीं करती है तो बहुत देर हो जाएगी। फिर कोई उसकी बात पर यकीन नहीं करेगा। भाजपा की ओर से यह धारणा बनवाई जा रही है कि कांग्रेस अपने शीर्ष नेताओं यानी गांधी परिवार की साख बचाने के लिए ईवीएम पर ठीकरा फोड़ती है। यह बात अगर आम लोगों के दिल-दिमाग में बैठ गई तो फिर कांग्रेस बाद में चुनाव बहिष्कार करेगी तब भी लोगों पर असर नहीं होगा।
चुनाव बहिष्कार की राय से असहमत लोगों का कहना है कि लोकतंत्र में अगर चुनाव नहीं लड़ेंगे तो आम लोगों की आवाज कैसे उठाएंगे या आम लोगों की लड़ाई कैसे लड़ेंगे? लेकिन यह बहुत बचकानी बात है। क्योंकि आम जनता की लड़ाई लड़ने के लिए संसद या विधानसभाओं में बैठना जरूरी नहीं होता है। आम जनता और संविधान की रक्षा की लड़ाई सड़क पर लड़ी जा सकती है। राम मनोहर लोहिया ने कहा था कि सड़कें सूनी हो जाएंगी तो संसद आवारा हो जाएगी।
आज सड़कें सूनी हो गई हैं। कहीं कोई राजनीतिक आंदोलन होता नहीं दिख रहा है, जबकि सबने देखा कि कैसे सड़क पर बैठ कर किसानों ने सर्वशक्तिशाली सरकार को झुका दिया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तीन विवादित कृषि कानून संसद के अंदर के किसी दल के दबाव में वापस नहीं लिए, बल्कि सड़क पर बैठे किसानों के दबाव में वापस लिए। इसलिए अपने 44 या 52 सांसदों के दम पर कांग्रेस संसद के अंदर जो काम नहीं कर पा रही है क्या पता वह अपने 11 करोड़ मतदाताओं की ताकत के दम से सड़क पर उतर के कर दे!
डॉक्टर लोहिया ने कांग्रेस विरोध की सारी लड़ाई सड़क पर रह कर लड़ी थी। वे तो सिर्फ दो बार सांसद बने थे वह भी कुल मिला कर चार साल के लिए। पहले 1963 के एक उपचुनाव में चार साल के लिए वे जीते थे। फिर 1967 में जीते लेकिन जल्दी ही उनका निधन हो गया। लेकिन लोहिया ने सड़क पर आंदोलन करके गैर कांग्रेसवाद को स्थापित किया।
उनके प्रयासों से पहली बार 1967 में देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में गैर कांग्रेसी सरकार बनी थी। जयप्रकाश नारायण के आंदोलन से देश में पहली गैरकांग्रेस सरकार बनी थी लेकिन वे खुद कभी संसद में नहीं गए। सो, कांग्रेस अगर संकल्प करे तो चुनाव का बहिष्कार कर ईवीएम की निर्णायक लड़ाई लड़ सकती है और जहां तक जनता की लड़ाई की बात है तो सबको पता है कि वह सड़क पर ही लड़ी जाती है। संसद तो अब और भी जनता के सरोकारों से दूर होती जा रही है।
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