सुप्रीम कोर्ट ने ठीक कहा है कि उम्मीदवारों की भी निजता है और मतदाताओं के सामने उनकी सारी जानकारी देने की बाध्यता नहीं होनी चाहिए। अदालत ने एक अहम फैसले में कहा है कि जिस बात का मतदाताओं से सरोकार नहीं हो या मतदान पर जिससे असर नहीं पड़ता हो उसके बारे में उम्मीदवारों को अपने हलफनामे में बताने की जरुरत नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने साफ कर दिया है कि इस तरह की जानकारी अगर हलफनामे में नहीं दी गई है तो उस आधार पर किसी उम्मीदवार की जीत को चुनौती नहीं दी जा सकती है और न उसकी सदस्यता समाप्त की जा सकती है।
यह फैसला बहुत स्पष्ट है और अरुणाचल प्रदेश के एक विधायक के खिलाफ दायर याचिका पर आया है। असल में अरुणचाल प्रदेश के जीते हुए विधायक ने अपनी पत्नी की गाड़ियों के बारे में अपने हलफनामे में जानकारी नहीं दी थी। इस आधार पर हारने वाले उम्मीदवार ने याचिका दायर की थी। अदालत ने याचिका का निपटारा करते हुए कहा कि अगर कोई बहुत महंगी चीज की जानकारी छिपाई गई हो, जिससे उम्मीदवार के वैभवपूर्ण जीवन की जानकारी मिलती हो तब कार्रवाई हो सकती है लेकिन छोटी मोटी चीजों की जानकारी मायने नहीं रखती है।
सुप्रीम कोर्ट की बात तार्किक और समय के हिसाब से जरूरी है। अदालत के इस अहम फैसले के बाद एक बार फिर चुनावों के समय उम्मीदवारों की ओर से दिए जाने वाले हलफनामे के नियम पर फिर से विचार करने की जरुरत है। हलफनामे में संपत्ति, कर्ज, शिक्षा, आपराधिक मामले आदि की जानकारी देने का नियम कोई दो दशक पहले बना था।
उस समय केंद्र में भाजपा की सरकार थी, जिसने इस नियम का विरोध किया था। सरकार इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट तक गई थी और कहा था कि चुनाव आयोग अपने आप नियम नहीं बना सकता है। सरकार का कहना था कि इसके लिए जन प्रतिनिधित्व कानून में संशोधन करना होगा और संवह सद के जरिए ही होगा। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इस दलील को खारिज कर दिया था और कहा था कि चुनाव आयोग ने जो किया है वह स्वतंत्र और निष्पक्ष मतदान सुनिश्चित करने की उसकी जिम्मेदारी के निर्वहन से जुड़ा हुआ है। इसके लिए कानून में बदलाव की जरुरत नहीं है।
सो, यह नियम लागू हो गया। अब हर प्रत्याशी को चुनाव लड़ने के लिए नामांकन पत्र भरते समय अपने और परिवार के बारे में सारी जानकारी देनी होती है। उस बताना होता है कि उसने कहां तक पढ़ाई की है, उसकी वैवाहिक स्थिति क्या है, उसके बच्चे कितने है, चल और अचल संपत्ति कितनी है, कर्ज कितना है, कितने मुकदमे चल रहे हैं आदि आदि। इतना ही नहीं पार्टियों को भी उम्मीदवारों के बारे में ब्योरा अखबारों में छपवाना पड़ता है ताकि आम लोग अपने उम्मीदवार के बारे में जान सकें।
अब सवाल है कि उम्मीदवार के बारे में इतना सब कुछ जान लेने से क्या होता है? क्या इससे मतदाता का मतदान व्यवहार प्रभावित होता है? क्या वह मतदान की अपनी प्राथमिकता इस आधार पर तय करता है कि उम्मीदवार कितना पढ़ा लिखा है या उसके ऊपर आपराधिक मुकदमे हैं या नहीं या उसकी संपत्ति कितनी है? पिछले दो दशक के अनुभव के आधार पर कहा जा सकता है कि मतदान व्यवहार या मतदान की प्राथमिकता पर इसका बहुत कम असर होता है। कह सकते हैं कि इसका असर नगण्य होता है।
अगर भारत के मतदाता उम्मीदवार की गुणवत्ता को ध्यान में रख कर मतदान करते तो देश की संसद और राज्यों की विधानसभाओं की तस्वीर कुछ और होती। जब से हलफनामा देकर सारी सूचना देने का नियम बना है तब से संसद और विधानसभाओं में आपराधिक छवि के सदस्यों की संख्या में इजाफा होता गया है। उसी अनुपात में करोड़पति और अरबपति सदस्यों की संख्या में भी इजाफा हुआ है। कर्जदार सांसदों की संख्या में भी बढ़ोतरी ही हुई है। हलफनामा देकर चुनाव लड़ने का नियम बनने के बाद पांच लोकसभा चुनाव हुए हैं। हर बार आपराधिक छवि वाले और करोड़पति सांसदों की संख्या बढ़ती गई है। 17वीं लोकसभा, जिसका कार्यकाल जून में समाप्त होगा, उसमें एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स यानी एडीआर के मुताबिक 43 फीसदी सांसद दागी हैं और 88 फीसदी सांसद करोड़पति हैं।
इसके मुताबिक 2019 के लोकसभा चुनाव में 543 सीटों में से 233 सीटों पर यानी 43 फीसदी सीटों पर ऐसे सांसद जीते हैं, जिनके खिलाफ किसी न किसी तरह का आपराधिक मुकदमा दर्ज है। एडीआर के मुताबिक 2009 और 2014 के मुकाबले 2019 में आपराधिक छवि वाले सांसदों की संख्या में 44 फीसदी की बढ़ोतरी हो गई। 159 यानी 29 फीसदी तो ऐसे सांसद हैं, जिनके खिलाफ हत्या, बलात्कार या अपहरण जैसे गंभीर अपराध से जुड़े मुकदमे दर्ज हैं। सोचें, मुकदमे के बारे में जानकारी देने का नियम बनने के बाद से आपराधिक छवि वालों की संख्या बढ़ती गई है! इसी तरह 2009 में हुए लोकसभा चुनाव में 58 फीसदी करोड़पति सांसद जीते थे, 2019 में करोड़पति सांसदों की संख्या बढ़ कर 88 फीसदी हो गई। यानी 10 साल में 30 फीसदी का इजाफा हो गया।
जहां तक शिक्षा का मामला है तो उसके बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता है क्योंकि आए दिन किसी न किसी सांसद या विधायक की फर्जी डिग्री का मामला सामने आता रहता है। देश में डिग्री बांटने वाले इतने संस्थान हैं कि वह दिन बहुत दूर नहीं है जब देश के हर आदमी के पास उच्च शिक्षा की डिग्री होगी। वैसे 17वीं लोकसभा में 128 यानी 24 फीसदी सांसद ऐसे हैं, जिन्होंने हलफनामे में बताया है कि वे सिर्फ 12वीं तक पढ़े हैं। यानी इंटर पास हैं। एक सांसद ने तो अपने को महज साक्षर और एक अन्य ने निरक्षर बताया है। इससे यह भी जाहिर होता है कि जिस तरह से किसी उम्मीदवार के दागी होने या करोड़पति होने से मतदाता की प्राथमिकता प्रभावित नहीं होती है उसी तरह उसके शिक्षित या कम शिक्षित या अशिक्षित होने से भी मतदान व्यवहार पर असर नहीं पड़ता है।
हालांकि इस तरह के आंकड़े प्रस्तुत करने और उनकी निरर्थकता बताने का यह मतलब नहीं है कि ये फिजूल के नियम हैं और इनसे उम्मीदवार के साथ साथ चुनाव अधिकारी का भी समय बरबाद होता है। इस नियम को लागू करने के पीछे की मंशा सही थी। परंतु मुश्किल यह है कि इस तरह के किसी भी नियम से सामने आने वाली जानकारी देश के मतदाताओं के मतदान व्यवहार को प्रभावित नहीं करती है। इसका कारण यह है कि भारत में दलगत राजनीति का सिस्टम इतनी गहराई तक जड़ जमा चुका है कि मतदाता उम्मीदवार के व्यक्तिगत गुण या दोष की ओर ध्यान ही नहीं देते हैं। वे हमेशा पार्टी को देखते हैं या पार्टी के सर्वोच्च नेता को देख कर मतदान करते हैं।
अब तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उम्मीदवार की व्यक्तिगत उपस्थिति को और नगण्य बना दिया है यह कह कर कि हर जगह उम्मीदवार कमल का फूल है। पूरे देश में उनको प्रधानमंत्री बनाने के लिए वोट मांगा जा रहा है। इसलिए उम्मीदवार का कोई खास मतलब नहीं रह गया है। मतदाताओं के लिए पार्टी और सर्वोच्च नेता के बाद जो सबसे महत्वपूर्ण चीज होती है वह उम्मीदवार की जाति होती है। तभी सभी पार्टियां सामाजिक समीकरण बैठाने पर जोर देती हैं। कभी यह नहीं सुना गया कि किसी पार्टी ने टिकट देने का पैमाना यह बनाया हो कि उम्मीदवार पढ़ा-लिखा, साफ-सुथरी छवि का और सार्वजनिक जीवन में सक्रिय रहा हो। तभी हलफनामा देकर जानकारी देने की व्यवस्था के साथ साथ अगर पार्टियां भी उम्मीदवार के गुण दोष को महत्व देना शुरू करें तभी संसद और विधानसभाओं की तस्वीर में कुछ गुणात्मक बदलाव आ पाएगा।
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