केंद्र सरकार ने अपने कर्मचारियों के लिए पेंशन की नई योजना घोषित की है। एकीकृत पेंशन योजना यानी यूपीएस को लेकर पिछले एक हफ्ते से बहस मुबाहिसा चल रहा है। इसके एक एक पहलू की खुर्दबीन से पड़ताल की जा रही है। आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक, हर पहलू से इसकी व्याख्या हो रही है। आर्थिकी के जानकारों का कहना है कि यह पुरानी पेंशन योजना यानी ओपीएस नहीं है, बल्कि नई पेंशन योजना यानी एनपीएस का विस्तार है। उनके हिसाब से इस योजना से केंद्र सरकार के ऊपर कोई बड़ा बोझ नहीं पड़ेगा क्योंकि रिटायर कर्मचारियों को निश्चित पेंशन देने के लिए इस योजना में फंडिंग की व्यवस्था की गई है। नई पेंशन योजना की तरह इसमें भी कर्मचारी अपनी बेसिक सैलरी का 10 फीसदी हिस्सा पेंशन फंड में देंगे और केंद्र सरकार उसमें साढ़े 18 फीसदी हिस्सा जमा करेगी। इसे शेयर बाजार और दूसरे फाइनेंशियल इंस्ट्रूमेंट्स में निवेश किया जाएगा, जिससे कर्मचारियों को रिटायरमेंट के समय की बेसिक सैलरी के 50 फीसदी के बराबर निश्चित पेंशन जीवन भर मिलेगी।
इस योजना में सिर्फ यह कमी बताई जा रही है कि सरकार जहां पेंशन फंड का निवेश करेगी अगर उसमें घाटा लग गया, किसी समय शेयर बाजार बुरी तरह से गिर जाए, आर्थिक मंदी आ जाए तब सरकार निश्चित पेंशन कहां से देगी? तब सरकार के ऊपर बोझ पड़ेगा। लेकिन इसका दूसरा पक्ष यह है कि अगर शेयर बाजार में तेजी रही तो सरकार को निश्चित पेंशन के ऊपर अतिरिक्त कमाई भी हो सकती है। सो, इसे एक कैलकुलेटेड रिस्क माना जा रहा है। इसमें जो नुकसान या फायदा केंद्र सरकार को होगा वहीं राज्यों की सरकारों को भी होगा।
जहां तक इसके राजनीतिक पहलू का सवाल है तो इसमें कोई संदेह नहीं है कि लोकसभा चुनाव के नतीजों की वजह से सरकार ने इस दिशा में पहल की है। लोकसभा चुनाव में भाजपा के खराब प्रदर्शन की वजह से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने केंद्र सरकार के कर्मचारियों के समूह जेसीएम से 10 साल में पहली बार मुलाकात की और एकीकृत पेंशन योजना की घोषणा हुई। लेकिन 23 लाख सरकारी कर्मचारियों को यूपीएस का लाभ देने से भाजपा को कोई बड़ा लाभ नहीं हो जाएगा। आखिर कांग्रेस की राज्य सरकारों ने राजस्थान और छत्तीसगढ़ में पुरानी पेंशन योजना लागू कर दी थी तो उन्हें क्या लाभ मिला? दोनों जगह कांग्रेस हार गई? रही बात सामाजिक पहलू की तो एक खास वर्ग को, जिसे पहले से आर्थिक सुरक्षा मिली हुई है उसे अतिरिक्त सुरक्षा मिल जाएगी। सरकारी नौकरियों के प्रति आकर्षण फिर से बढ़ जाएगा और जिन राज्यों में दहेज की प्रथा अब भी मौजूद है वहां सरकारी नौकरी करने वाले दुल्हों की कीमतें भी बढ़ जाएंगी।
परंतु बड़ा सवाल यह है कि एक बेहद छोटे से वर्ग को आर्थिक सुरक्षा देने और सामाजिक स्तर पर उसके सम्मान में बढ़ोतरी करने से देश की बड़ी आबादी को क्या फायदा है? केंद्र और राज्य सरकारों के कुल कर्मचारियों की संख्या पांच करोड़ के करीब है। कह सकते हैं कि 20 से 25 करोड़ आबादी इसके दायरे में आ जाएगी। इसके अलावा एक छोटा समूह संगठित क्षेत्र में प्राइवेट नौकरी करने वाला या कारोबार करने वाला है, जिसे आर्थिक सुरक्षा की चिंता नहीं है। परंतु बचे हुए एक सौ करोड़ से ज्यादा लोगों का क्या है? क्या उनको पहले ही तरह पांच किलो अनाज पर ही जीवन व्यतीत करना है? सरकार जिस तरह से अपने कर्मचारियों के बारे में सोच रही है उस तरह से दूसरे लोगों के बारे में क्यों नहीं सोच रही है? क्या दूसरे लोग देश के विकास में योगदान नहीं दे रहे हैं? क्या उनके श्रम की कोई कीमत नहीं है या उनके प्रति राज्य की कोई जिम्मेदारी नहीं बनती है?
देश के किसानों की आर्थिक सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए सरकार के पास क्या योजना है? सरकार यह कह कर पीछा नहीं छुड़ा सकती है कि वह किसानों की आय दोगुनी करने के लिए काम कर रही है या उनकी आय दोगुनी कर दी है। अभी तक तो अपने वादे के मुताबिक सरकार किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी की कानूनी गारंटी नहीं दे सकी है। एमएस स्वामीनाथन फॉर्मूले के तहत लागत के ऊपर 50 फीसदी मुनाफा जोड़ कर एमएसपी मिलना किसानों का सपना है, जिसे सरकार नहीं पूरा कर रही है। सोचें, यह कैसी विडम्बना है कि देश में बिकने वाले हर उत्पाद के ऊपर अधिकतम खुदरा मूल्य यानी एमआरपी लिखी होती है और दुकानदार उसी कीमत पर अपना उत्पाद बेचता है। लेकिन किसानों को अधिकतम तो छोड़िए न्यूनतम समर्थन मूल्य देने में सरकार को दिक्कत हो रही है। जिस तरह से सरकार अपने कर्मचारियों के वेतन, भत्ते तय करने के लिए वेतन आयोग बनाती है, एक निश्चित उम्र तक नौकरी की गारंटी देती है और रिटायर होने के बाद उनकी आर्थिक सुरक्षा सुनिश्चित करती है क्या उसी तरह किसानों के साथ नहीं होना चाहिए? किसानों के साथ साथ खेत मजदूरों की स्थिति भी बेहद दयनीय है। लेकिन सरकार उन पर भी ध्यान नहीं दे रही है।
भारत में सबसे ज्यादा लोग असंगठित क्षेत्र में काम करते हैं। भारत सरकार के अपने आर्थिक सर्वेक्षण के आंकड़ों के मुताबिक भारत में कुल 53 करोड़ लोग काम कर रहे हैं, जिनमें से 44 करोड़ लोग असंगठित क्षेत्र में काम कर रहे हैं। सोचें, महज नौ करोड़ लोगों को किसी न किसी तरह की सामाजिक सुरक्षा मिली हुई है। इनमें सरकारी और संगठित क्षेत्र में काम करने वाले लोग शामिल है। बाकी 44 करोड़ लोगों को न तो नौकरी की सुरक्षा है, न उनके कामकाज के घंटे तय हैं, न कोई स्वास्थ्य सुविधा उपलब्ध है, न काम करने की स्थितियों को लेकर कोई गारंटी है और न बेरोजगार होने पर किसी तरह की सुरक्षा उपलब्ध है। सरकारों ने न्यूनतम वेतन तो तय किया है लेकिन शायद ही कहीं इसे सुनिश्चित कराने की कोई व्यवस्था की गई है। न तो इन्हें नौकरी देने वाला नियोक्ता इनके सुरक्षा की कोई व्यवस्था करता है और न सरकारी स्तर पर कोई व्यवस्था की गई है। सरकार इनसे टैक्स तो वसूलती है। अभी पिछले दिनों ही यह आंकड़ा सामने आया कि अप्रत्यक्ष कर यानी जीएसटी में बड़ा हिस्सा उस 90 फीसदी आबादी का है, जिसको किसी तरह की आर्थिक या सामाजिक सुरक्षा नहीं मिली हुई है। क्या सरकार को इस बारे में नहीं सोचना चाहिए?
सरकार अपने कर्मचारियों के हितों का ध्यान रख रही है यह अच्छी बात है। उनके लिए नौकरी की गारंटी हो और उनका भविष्य भी सुरक्षित किया जाए। लेकिन साथ साथ देश की बड़ी आबादी को न्यूनतम सामाजिक सुरक्षा देने के उपाय भी तो करने चाहिए। अगर सरकार ऐसा नहीं करती है तो इससे यही मैसेज जाता है कि उसका पूरा तंत्र देश की 140 करोड़ की आबादी से किसी न किसी रूप में टैक्स वसूलने और अपने कर्मचारियों को वेतन, भत्ते और पेंशन बांटने के लिए काम कर रही है। इस निष्कर्ष के जवाब में कई लोग यह तर्क देते हैं कि सरकार किसानों को सम्मान निधि दे रही है, गरीबों को पांच किलो अनाज दे रही है या दूसरी रेवड़ियां बांट रही है। फिर यह तो बड़ी आबादी को बरगलाने जैसा हो गया कि सरकार अपने कर्मचारियों को पहले से मिल रही अनियमित पेंशन की जगह निश्चित और बढ़ी हुई पेंशन देगी लेकिन बाकी लोगों को रेवड़ी से काम चलाना चाहिए!