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तीन मुठभेड़ और पुलिस की मासूम कहानियां

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भारत में या किसी भी सभ्य समाज में मुठभेड़ में या पुलिस और न्यायिक हिरासत में आरोपियों या अपराधियों का भी मारा जाना समूची व्यवस्था के ऊपर धब्बा होता है। यह अपराध न्याय प्रणाली और समाज व्यवस्था पर कलंक है। किसी भी व्यक्ति के ऊपर आरोप चाहे जितने भी गंभीर हों लेकिन उसे सजा देने का काम पुलिस का नहीं है। उसे कानून के हिसाब से अदालत से सजा मिलेगी। पुलिस को न्याय करने का अधिकार नहीं है। और पुलिस की इन मासूम कहानियों का भी कोई अर्थ नहीं होता है कि हथकड़ी में बंद आरोपी ने पुलिस वालों से हथियार छीन लिए या भागने की कोशिश की और इस क्रम में पुलिस के हाथों मारा गया।

इस तरह की मनोहर कहानियां समूची न्याय व्यवस्था का मजाक उड़ाने वाली होती हैं। लेकिन हैरानी की बात है कि अदालतें आमतौर पर इन कहानियों पर यकीन कर लेती हैं। यह अच्छा है कि महाराष्ट्र के बदलापुर में अक्षय शिंदे की इनकाउंटर में हुई हत्या की कहानी पर हाई कोर्ट को यकीन नहीं हुआ है। अदालत ने कहा है कि पुलिस की कहानी में इतने झोल हैं कि उस पर यकीन करना मुश्किल है। परंतु जब अदालतें पुलिस की कहानियों पर यकीन नहीं करती हैं तब भी थोड़ी बहुत फटकार या सख्ती के बाद बात आई गई हो जाती है।

इस तरह की घटनाओं को रोकने के लिए कोई ठोस पहल नहीं होती है। ध्यान रहे भारत में फर्जी मुठभेड़ को अपराध और मौलिक अधिकार का उल्लंघन माना जाता है लेकिन राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के एक पुराने आंकड़े के मुताबिक 2002 से 2017 के बीच भारत में 1,728 फर्जी इनकाउंटर हुए थे।

बहरहाल, असली मुठभेड़ आतंकवादियों के साथ होती है या नक्सलियों के साथ होती है। असली मुठभेड़ दंतेवाड़ा में होती है, जहां बहादुर जवान जान गंवाते हैं। असली मुठभेड़ जम्मू कश्मीर में होती है, जहां इस साल जुलाई में 10 जवान शहीद हुए हैं। असली मुठभेड़ मुंबई पर हुए आतंकी हमले के समय हुई थी, जिसमें मुंबई पुलिस के अनेक डेकोरेटेड और जांबाज अधिकारी शहीद हुए थे। इस राज्य या उस राज्य की पुलिस जो मुठभेड़ करती है, जिसमें किसी पुलिस वाले की बांह में या किसी की जांघ में गोली लगती है वह आमतौर पर फर्जी होती है। अगर राज्यों की पुलिस की एसटीएफ या एटीएस के ये जवान इतने ही जांबाज हैं तो इनको तत्काल बस्तर और दंतेवाड़ा में या कश्मीर और मणिपुर भेजा जाना चाहिए।

हकीकत यह है कि राज्यों में बनी ज्यादातर एसटीएफ या एटीएस का काम कानून व्यवस्था पर राज्य की सरकारों के लिए धारणा बनाने या धारणा को नियंत्रित करने का हो गया है। जब कानून व्यवस्था का सवाल उठता है और लोग नाराज होते हैं तो ये लोग कुछ आरोपियों को मुठभेड़ में मार गिराते हैं। इसके लिए उन्हें इनाम इकराम मिलते हैं। समाज में कुछ लोग इनके लिए तालियां बजाते हैं लेकिन उनको नहीं पता होता है कि वे एक भस्मासुर पैदा कर रहे हैं, जिसका शिकार वे खुद भी हो सकते हैं।

बहरहाल, अभी देश मुठभेड़ की तीन घटनाओं को लेकर आंदोलित हैं। कहीं कहीं लोग रोमांचित भी हैं। लेकिन लोगों का क्या है! ये तीन प्रतिनिधि घटनाएं हैं। इनमें से एक उत्तर प्रदेश की घटना है, दूसरी महाराष्ट्र की है और तीसरी तमिलनाडु की है। यानी उत्तर, पश्चिम और दक्षिण भारत की एक जैसी कहानी है। उत्तर प्रदेश में कुछ दिन पहले एक डकैती हुई, जिसमें शामिल एक कथित आरोपी मंगेश यादव को यूपी पुलिस की एसटीएफ ने मुठभेड़ में मार गिराया। मुठभेड़ के बाद की जो तस्वीरें मीडिया में आईं उसमें टीम का नेतृत्व करने वाले अधिकारी हवाई चप्पल में ही थे और किसी ने भी मुठभेड़ में पहनी जाने वाली कॉम्बैट ड्रेस नहीं पहनी थी। इसे लेकर खूब मजाक बना। लेकिन इस मुठभेड़ को लेकर राजनीतिक विवाद भी शुरू हो गया।

समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव ने मंगेश यादव की मौत का मामला उठाया और दूसरे आरोपी अनुज प्रताप सिंह के बच जाने का जिक्र किया। इसके बाद मीडिया में ठाकुरवाद बनाम यादववाद की बहस शुरू हुई। जब बहस बढ़ी तो पुलिस ने अनुज प्रताप सिंह को भी मार गिराया। इसके बाद बड़े बेशर्म तरीके से धारणा प्रबंधन का काम शुरू हो गया, जिसमें कहा जाने लगा कि इस राज में किसी जाति को नहीं बख्शा जाता है।

इस प्रचार में दो बुनियादी गड़बड़ियां हैं। पहली तो यह कि किसी आरोपी को मार डालने का काम पुलिस का नहीं है और वह श्रेय नहीं ले सकती है कि उसने न्याय कर दिया, किसी को नहीं बख्शा? दूसरे, सरकार के बारे में धारणा प्रबंधन के लिए किसी की जान ले लेना, सभ्य समाज और लोकतांत्रिक व्यवस्था में स्वीकार्य नहीं है, बल्कि शर्म की बात है।

दूसरी घटना महाराष्ट्र की है, जहां बदलापुर में नाबालिग बच्चियों से यौन दुर्व्यवहार करने वाले अक्षय शिंदे को राज्य पुलिस ने मुठभेड़ में मार गिराया। अक्षय शिंदे ठाणे पुलिस की क्राइम ब्रांच की हिरासत में था। उसके ऊपर अपनी पत्नी से बलात्कार का आरोप भी लगा था और उसकी जांच के सिलसिले में ठाणे पुलिस उसे लेकर बदलापुर गई। बाद में पुलिस ने कहा कि उसने पुलिस हिरासत से निकल कर भागने की कोशिश की और पुलिस पर फायरिंग की, जिसमें एक जवान घायल हुआ। जवाबी कार्रवाई में पुलिस ने अक्षय शिंदे को मार गिराया। सोचें, इस कहानी में कितने झोल हैं?

सबसे पहले तो यह बात आती है कि चारों तरफ से पुलिस से घिरा कोई आरोपी क्यों भागने की जोखिम लेगा? दूसरे, हथकड़ी में बंधा आरोपी कैसे पुलिस से हथियार छीन लेगा और फायरिंग भी कर देगा? और सबसे अहम सवाल जो हाई कोर्ट ने पूछा कि असिस्टेंट पुलिस इंस्पेक्टर स्तर के अधिकारी को क्या नहीं पता है कि ऐसी स्थिति में पैर में गोली मारते हैं? आरोपी अक्षय शिंदे को एक ही गोली लगी है और वह भी सिर में!

कुछ दिन पहले ही उत्तराखंड पुलिस ने ऐसी ही मासूम कहानी सुनाई थी कि पुलिस से छूट कर आरोपी भागा और तालाब में डूब कर मर गया। उत्तर प्रदेश में भी एक आरोपी पुलिस की गिरफ्तार से छूट कर भागा था और तालाब में डूब कर मर गया था। सोचें, कहीं ऐसा होता है? लेकिन भारत में न सिर्फ होता है, बल्कि पुलिस की इन कहानियों को भरोसा भी कर लिया जाता है। अक्षय शिंदे के मामले में कहानी कुछ ज्यादा अविश्वसनीय हो गई तो सीआईडी की जांच बैठा दी गई, जो निश्चित रूप से मुठभेड़ को सही ठहराएगी। आम लोगों ने इस मौत पर खुशी मनाई और लड्डू बांटे तो अब उसके बाद क्या न्यायिक कार्रवाई होगी? लोगों ने फैसला सुना दिया? लोग भी हिंसक और कुछ हद तक जॉम्बी होते जा रहे हैं।

बहरहाल, तीसरी घटना तमिलनाडु के चेन्नई की है। चेन्नई में सीजिंग राजा नाम के एक आरोपी को पुलिस ने मुठभेड़ में मार गिराया। उसके ऊपर हत्या और हत्या के प्रयास सहित 30 मुकदमे थे और वह कई मामलों में वांछित था। उसके ऊपर बसपा के नेता आर्मस्ट्रॉन्ग की हत्या का भी आरोप लगा था। लेकिन बाद में पता चला था कि उसका उस घटना में हाथ नहीं है। सीजिंग राजा को आंध्र प्रदेश पुलिस ने गिरफ्तार किया था और चेन्नई पुलिस को सौंप दिया था। वह भी पुलिस की हिरासत में था। पुलिस ने वहां भी वही मासूम कहानी सुनाई कि उसने पुलिस हिरासत से भागने की कोशिश की और पुलिस पर हमला किया और जवाबी कार्रवाई में मारा

गया।

सोचें, कितना सुविधाजनक तर्क है! इस तर्क से तो पुलिस किसी की हत्या कर सकती है फिर कानून के राज का क्या होगा? क्या सरकारों और अदालतों को यह बात समझ में नहीं आ रही है कि पुलिस जैसी संगठित फोर्स को अगर इस तरह की छूट मिलती रही और न्याय से बरसों, दशकों तक वंचित रहे नागरिक इसका समर्थन करते रहे तो आने वाले दिनों में कैसी भयावह स्थिति होगी? हम उस स्थिति तक पहुंचे उससे पहले इस तरह की घटनाओं को रोकना होगा।

By अजीत द्विवेदी

संवाददाता/स्तंभकार/ वरिष्ठ संपादक जनसत्ता’ में प्रशिक्षु पत्रकार से पत्रकारिता शुरू करके अजीत द्विवेदी भास्कर, हिंदी चैनल ‘इंडिया न्यूज’ में सहायक संपादक और टीवी चैनल को लॉंच करने वाली टीम में अंहम दायित्व संभाले। संपादक हरिशंकर व्यास के संसर्ग में पत्रकारिता में उनके हर प्रयोग में शामिल और साक्षी। हिंदी की पहली कंप्यूटर पत्रिका ‘कंप्यूटर संचार सूचना’, टीवी के पहले आर्थिक कार्यक्रम ‘कारोबारनामा’, हिंदी के बहुभाषी पोर्टल ‘नेटजाल डॉटकॉम’, ईटीवी के ‘सेंट्रल हॉल’ और फिर लगातार ‘नया इंडिया’ नियमित राजनैतिक कॉलम और रिपोर्टिंग-लेखन व संपादन की बहुआयामी भूमिका।

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