भारत की राजनीति का सिर्फ ऊपरी आवरण नहीं बदल रहा है, बल्कि वह अंदर से बदल रही है। राजनीति को प्रभावित करने वाली कुछ बेहद बुनियादी चीजों में बदलाव हो रहा है। इसमें कई चीजों को शामिल किया जा सकता है। जैसे सांप्रदायिकता बहुत गहरे जड़ जमा चुकी है और मतदाताओं के राजनीतिक व्यवहार को सबसे ज्यादा प्रभावित कर रही है। जैसे ‘मुफ्त की रेवड़ी’ चुनाव जीतने का सबसे महान मंत्र बन चुका है। Caste politics
जैसे संचार के आधुनिक साधनों का इस्तेमाल करके ‘वैकल्पिक सत्य’ या ‘सरासर झूठ’ का प्रचार चुनाव जीतने के एक अहम टूल के तौर पर स्थापित हो गया है। जैसे अब यह सहज स्वीकार्य मूल्य है कि राजनीतिक ताकत का इस्तेमाल और ताकत बढ़ाने के लिए ही किया जाना चाहिए ताकि सत्ता स्थायी बने। इन्हीं के बीच एक बदलाव यह भी है कि अब पारंपरिक रूप से मजबूत मानी जाने वाली जातियों के वर्चस्व की राजनीति का समय समाप्त हो गया है। हाल के दिनों में उत्तर से दक्षिण भारत तक हुए कई चुनावों के आधार पर यह निष्कर्ष बनता है।
हालांकि ऐसा नहीं है कि पारंपरिक रूप से मजबूत जातियां राजनीतिक रूप से अप्रासंगिक हो गई हैं। उनकी प्रासंगिकता बनी हुई, सामाजिक स्तर पर उनकी सर्वोच्चता भी किसी न किसी रूप में कायम है लेकिन वे अब अपने दम पर चुनाव नहीं जीत सकती हैं। उन्हें चुनाव जीतने के लिए अपनी सर्वोच्चता को या तो विलीन करना होगा और दूसरे Caste politics के साथ तालमेल करना होगा। अगर पारंपरिक रूप से मजबूत जातियां ऐसा नहीं करती हैं तो पारंपरिक रूप से कमजोर जातियों का समूह उनकी जगह लेगा। आजादी के बाद दशकों तक न सामाजिक स्तर पर ऐसा था और न राजनीति में था।
जातीय गोलबंदी और राजनीति में बदलाव: एक सामाजिक परिवर्तन
स्वाभाविक रूप से बनी सामाजिक संरचना की वजह से कमजोर जातियां मजबूत जातियों के ईर्द गिर्द इकट्ठा हो जाती थीं। बहुत सी जातियां उनके साथ अपनी सामाजिक सुरक्षा की गारंटी मानती थीं। लेकिन जैसे जैसे लोकतंत्र जमीनी स्तर पर पहुंचा, जातियों की अस्मिता उभर कर सामने आने लगी और छोटी छोटी या सामाजिक व शैक्षणिक रूप से कमजोर व वंचित जातियों ने अपनी सामाजिक अस्मिता को राजनीतिक पूंजी में बदलना शुरू किया। इससे पारंपरिक राजनीति का ढांचा टूटने लगा। एक बड़े बदलाव की तरह मजबूत जातियों के खिलाफ गोलबंदी होनी शुरू हुई।
पहले यह सामाजिक गोलबंदी अगड़ी जातियों के खिलाफ हुई, जिसका नतीजा यह हुआ कि एक एक करके अगड़ी जातियां राजनीति में हाशिए पर जाती गईं। बहुत कम आबादी के बावजूद पारंपरिक सामाजिक व्यवस्था और उसके आधार पर हासिल राजनीतिक ताकत के दम पर अगड़ी जातियां सत्ता के शीर्ष पर बनी रहती थीं। लेकिन पहले पिछड़ी जातियों और फिर दलित समूहों में जैसे जैसे राजनीतिक चेतना का प्रसार हुआ, उन्होंने एक होकर मतदान करना शुरू किया। दक्षिण भारत में थोड़े पहले शुरू हुआ परंतु उत्तर भारत में नब्बे के दशक में हजारों जातियों का तीन समूहों, पिछड़ा, दलित और अगड़ा में ट्रांसफॉर्मेशन हुआ। Caste politics
पिछड़ी जातियों में गोलबंदी: यादवों से पार जातीय अस्मिता की ओर
ऐसा लगने लगा कि पिछड़ा एक होमोजेनस समूह है। लालू प्रसाद यादव और मुलायम सिंह यादव जैसे नेता पिछड़ों के मसीहा माने गए। सारी पिछड़ी Caste politics उनके पीछे एकजुट हुईं। लेकिन जैसा कि मार्क्स के द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के सिद्धांत के तहत होता है। जल्दी ही इस विचार के सामने भी एक प्रतिविचार खड़ा हुआ और उनमें टकराव शुरू हो गया। धीरे धीरे लालू प्रसाद और मुलायम सिंह पिछड़ों की बजाय यादवों के नेता बन गए और उसका अगला चरण यह हुआ कि सबसे मजबूत पिछड़ी जाति यानी यादवों के खिलाफ दूसरी पिछड़ी जातियों की गोलबंदी शुरू हो गई।
अब यादव या उसका मुस्लिम और यादव यानी एमआई समीकरण कहीं भी चुनाव जीतने की गारंटी नहीं है। नीतीश कुमार ने यादव विरोधी भावना को उभार कर गैर यादव पिछड़ी जातियों के साथ साथ दलित और सवर्ण का ऐसा समीकरण बनाया कि वे पिछले 20 साल से चुनाव जीत रहे हैं।
इस मंत्र को भाजपा ने लगभग पूरे देश में आजमाया है। उसको इस मामले में एक फायदा राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के जमीनी कार्यक्रमों का मिला। संघ ने बहुत बारीकी से लगभग सभी राज्यों में अनेक ऐसी जातियों की अस्मिता को जगाया, जो अपनी सामाजिक व शैक्षणिक पृष्ठभूमि के चलते एकदम हाशिए में थीं। जब उनमें जातीय अस्मिता जगी तो उनके ऐतिहासिक या मिथकीय पूर्वजों के नाम से मंदिर, शहर और स्टेशन आदि बनने लगे। इसके बाद उन्होंने इस सामाजिक अस्मिता को राजनीतिक पूंजी में कन्वर्ट किया। उत्तर प्रदेश इस प्रयोग की मुख्य भूमि रही लेकिन किसी न किसी रूप में इसे मध्य प्रदेश से लेकर हरियाणा और गुजरात से लेकर महाराष्ट्र तक आजमाया गया। Caste politics
जातीय ध्रुवीकरण: महाराष्ट्र में गैर मराठा राजनीति की बढ़ती ताकत
यह कोई बहुत जटिल राजनीतिक नैरेटिव नहीं है, जिसे प्रत्यक्ष नहीं देखा जा सकता है। इसे अलग अलग राज्यों के चुनावों में देखा जा सकता है कि कैसे उस राज्य की सबसे ताकतवर जातियां चुनाव जीतने में अक्षम होती जा रही हैं। उनकी राजनीतिक ताकत कैसे सिमटती जा रही है। इसमें सांप्रदायिक नैरेटिव का भी हाथ है लेकिन मूल रूप से यह जातियों के नए सिरे से ध्रुवीकरण की वजह से हो रहा है। Caste politics
अगर इसे हाल के चुनावों से शुरू करके पीछे की ओर जाएं तो लगभग हर राज्य में किसी न किसी रूप में यह परिघटना दिखेगी। महाराष्ट्र का हाल का विधानसभा चुनाव मिसाल है, जिसमें गैर मराठा राजनीति ने भाजपा और उसकी सहयोगी पार्टियों की जीत में सबसे बड़ी भूमिका निभाई। कांग्रेस और उसकी सहयोगी पार्टियों ने मराठा और मुस्लिम वोट के दम पर अपनी जीत का ख्वाब पाला था। उन्होंने इस बात का आकलन नहीं किया कि लोकसभा चुनाव में भी सीटों में उनको भले बड़ी सफलता मिली थी परंतु वोट प्रतिशत में कुछ खास अंतर नहीं था। दोनों गठबंधनों के बीच सिर्फ डेढ़ लाख वोट का फर्क था।
विधानसभा चुनाव में मराठाओं ने टैक्टिकल यानी चतुराई के साथ वोट किया। उन्होंने एकनाथ शिंदे की पार्टी को वोट किया तो उद्धव ठाकरे, शरद पवार और अजित पवार की पार्टी को भी वोट किया। लेकिन पिछड़ी जातियों ने एकजुट होकर भाजपा गठबंधन को वोट किया, जिसके पीछे बुनियादी सोच गैर मराठा राजनीति की थी और इस तरह लगातार तीसरी बार निर्णायक रूप से यह स्थापित कर दिया कि मराठा राजनीति जीत की गारंटी नहीं है।
पिछड़ी जातियों का सत्ता समीकरण: जाट और मराठा राजनीति का संकट
जिस तरह महाराष्ट्र में 38 फीसदी पिछड़ी जातियों ने एकजुट होकर मराठा राजनीति के नैरेटिव को विफल किया उसी तरह 36 फीसदी पिछड़ों ने हरियाणा में जाट राजनीति को फेल किया। पहले दो चुनावों में भी हरियाणा में कांग्रेस की जाट राजनीति कामयाब नहीं हुई। लेकिन इस बार सरकार के खिलाफ 10 साल की एंटी इन्कम्बैंसी की वजह से भी माना जा रहा था कि भाजपा सत्ता गंवा रही है। लेकिन भाजपा का ओबीसी मुख्यमंत्री का दांव कारगर साबित हुआ।
सो, जिस तरह से बिहार के भूमिहार, राजपूत और ब्राह्मण जातियों ने नब्बे के दशक में ही मान लिया कि अब वे सत्ता नहीं हासिल कर सकते हैं तो उन्होंने अपनी पसंद की पिछड़ी जातियों को चुन कर उनकी मदद शुरू कर दी है उसी तरह हो सकता है कि आने वाले दिनों में महाराष्ट्र में मराठाओं को और हरियाणा में जाटों को करना पड़े। वे खुद सत्ता हासिल करने की बजाय अन्य पिछड़ी जातियों में से अपना प्रॉक्सी चुन कर उसके पीछे ताकत लगाएं।
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सबसे कारगर तरीके से यह प्रयोग गुजरात में हुआ, जहां भले पटेल मुख्यमंत्री हैं लेकिन यह सत्य स्थापित हो चुका है कि पटेल राजनीति के दम पर सत्ता नहीं हासिल की जा सकती है। पटेल राजनीति के दम पर सत्ता हासिल करने की राजनीति करने वाले आखिरी योद्धा हार्दिक पटेल थे, जो थक हार कर भाजपा के साथ चले गए हैं। आम आदमी पार्टी ने इसुदान गढ़वी को आगे करके यह राजनीति साधने का प्रयास किया लेकिन कोई कामयाबी नहीं मिली।
आंध्र प्रदेश में रेड्डी राजनीति को परास्त करने के लिए कापू और कम्मा दोनों एक हो गए तो कर्नाटक में लिंगायत और वोक्कालिगा दोनों सत्ता से बाहर हैं। सो, गुजरात में पटेलों के लिए, महाराष्ट्र में मराठाओं के लिए, हरियाणा में जाटों के लिए, तमिलनाडु में थेवर के लिए तो कर्नाटक में लिंगायत या वोक्कालिगा के लिए, आंध्र प्रदेश व तेलंगाना में रेड्डी के लिए और उत्तर प्रदेश व बिहार में यादवों के लिए सत्ता की राह मुश्किल हो गई है।