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शोषण का विचार ही खतरनाक है

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ग्रीस यानी यूनान के ‘एक्सीडेंटल वित्त मंत्री’ रहे यानिस वरौफाकिस ने पुरानी पूंजीवादी अर्थव्यवस्था को खत्म करके तकनीक की सामंतवादी व्यवस्था, जिसे उन्होंने ‘टेक्नोफ्यूडलिज्म’ नाम दिया है, के स्थापित होने पर एक अद्भुत किताब लिखी है। ‘टेक्नोफ्यूडलिज्मःव्हाट किल्ड कैपिटलिज्म’ नाम से लिखी इस किताब में उन्होंने कहा है कि पूंजीवाद को संचालित करने वाली दो महत्वपूर्ण चीजें समाप्त हो गई हैं। पहली चीज पूंजीवाद का माध्यम यानी मार्केट है, जिसे डिजिटल ट्रेडिंग प्लेटफॉर्म ने रिप्लेस कर दिया है और दूसरी चीज पूंजीवाद का इंजन यानी प्रॉफिट है, जिसे पुरानी सामंतवादी व्यवस्था के रेंट यानी लगान ने रिप्लेस कर दिया है। उनका यह भी कहना है कि डिजिटल ट्रेडिंग प्लेटफॉर्म दिखता मार्केट की तरह है लेकिन वह बुनियादी रूप से मार्केट नहीं है। इस किताब को पढ़ते हुए लगातार यह अहसास होता है कि दुनिया पुरानी पूंजीवादी व्यवस्था से निकल कर एक बिल्कुल नई व्यवस्था की तरफ बढ़ गई है। क्या भारत भी उस दिशा में बढ़ रहा है? इसका जवाब पर सोचना शुरू करें उससे पहले किसी एनआर नारायणमूर्ति या किसी एसएन सुब्रमण्यम या किसी गौतम अडानी का बयान आ जाता है और लगता है कि, ‘अरे! हम तो अभी सभ्य पूंजीवादी व्यवस्था में युग में ही नहीं पहुंचे हैं तो उससे आगे बढ़ने के बारे में क्या सोचना है’!

इंफोसिस के संस्थापक एनआर नारायणमूर्ति ने कहा कि भारत के युवाओं को हफ्ते में 70 घंटे काम करना चाहिए। इस पर बहस चल ही रही थी कि भारत में बुनियादी ढांचे का काम करने वाली सबसे बड़ी कंपनियों में से एक एलएंडटी के प्रमुख एसएन सुब्रमण्यम ने अपने कर्मचारियों से कहा कि उनको अफसोस है कि वे उनसे रविवार को भी काम नहीं करा पा रहे हैं। एक कार्यक्रम में उनसे पूछा गया था कि वे अपने कर्मचारियों को शनिवार को क्यों काम पर बुलाते हैं। इसका जवाब देते हुए उन्होंने जो कहा वह इस बात की मिसाल है कि भारत कैसे अभी पूंजीवाद के सबसे पुराने और शोषक रूप से बाहर नहीं निकला है। उन्होंने कहा, ‘मुझे इस बात का खेद है कि मैं आपको रविवार के दिन ऑफिस नहीं बुला पा रहा हूं। सच कहूं तो अगर आप रविवार के दिन भी काम करेंगे तो आप ज्‍यादा खुश रहेंगे। आप घर पर बैठ कर क्‍या करेंगे? कब तक आप अपनी पत्‍नी का चेहरा देखेंगे, कब तक आपकी पत्‍नी आपका चेहरा देखेगी। कम ऑन, ऑफिस आओ और काम करो’।

नारायणमूर्ति और सुब्रमण्यम दोनों उसी दुष्ट धुरी के प्रतिनिधि हैं, जिसका जन्म पूंजीवाद की भारतीय अवधारणा से हुआ है। लेकिन सुब्रमण्यम उससे आगे भी कुछ हैं। वे शोषक पूंजीवाद का चेहरा होने के साथ साथ स्त्री विरोधी मानसिकता का प्रतिनिधित्व भी करते हैं। वे मानते हैं कि उनके यहां काम करने वाले तमाम पुरुष कर्मचारियों की पत्नियां घरों में खाली बैठी रहती होंगी। वे यह भी मानते हैं कि अगर उनका कर्मचारी जिस दिन ऑफिस नहीं आएगा या अवकाश पर होगा उस दिन वह अनिवार्य रूप से घर पर होगा और अपनी पत्नी को निहार रहा होगा। सोचें, यह कितनी घटिया, स्त्री विरोधी और प्रतिक्रियावादी मानसिकता है! इसी से मिलती जुलती बात सुब्रमण्यम से कुछ दिन पहले देश के सबसे बड़े कारोबारी गौतम अडानी ने भी कही थी। उन्होंने सीधे नहीं कहा था कि सातों दिन ऑफिस आओ और हफ्ते में 90 घंटे काम करो। लेकिन उनका बयान भी कम प्रतिक्रियावादी नहीं था। उन्होंने कहा, ‘आपका वर्क लाइफ बैलेंस मेरे ऊपर और मेरा आपके ऊपर थोपा नहीं जाना चाहिए। मान लीजिए, कोई व्यक्ति अपने परिवार के साथ चार घंटे बिताता है और उसमें आनंद पाता है, या कोई अन्य व्यक्ति आठ घंटे बिताता है और उसमें आनंद लेता है, तो यह उसका बैलेंस है। इसके बावजूद यदि आप आठ घंटे बिताते हैं, तो बीवी भाग जाएगी’।

अडानी के बयान का पहला भाग ठीक है। वर्क लाइफ बैलेंस पूरी तरह से वैयक्तिक मामला है। हर व्यक्ति चुन सकता है कि उसे अपने कामकाज और परिवार के बीच कैसे संतुलन बनाना है, बशर्ते ऐसा कोई संतुलन उसके ऊपर जबरदस्ती थोपने की कोशिश नहीं होती है। लेकिन अडानी के बयान का दूसरा पहलू बेहद प्रतिक्रियावादी है। वे भी सुब्रमण्यम की तरह मानते हैं कि सभी पुरुष कर्मचारियों की पत्नियां घर पर बैठी रहती हैं और अगर उसका पति आठ घंटे घर में रहेगा तो वह उसको छोड़ कर भाग सकती है यानी उससे ऊब सकती है। सुब्रमण्यम और अडानी दोनों का बयान स्त्रियों को दोयम दर्जे का नागरिक मानने, उनके काम को अनुत्पादक ठहराने और महज पुरुषों के मनोरंजन का माध्यम मानने की मध्यकालीन, मर्दवादी मानसिकता का प्रतीक है। दोनों अपने वर्कफोर्स से महिलाओं को अनुपस्थित मान चल रहे हैं। महिलाओं का यह एक्सक्लूजन भारत के पिछड़ेपन का एक बड़ा कारण है। दुर्भाग्य की बात है, जो छोटी छोटी बातों पर विपक्षी पार्टियों के नेताओं और सरकारों को नोटिस भेजने वाले राष्ट्रीय महिला आयोग के संज्ञान में इन दोनों की बातें नहीं आईं।

इसके बाद जब नारायणमूर्ति और सुब्रमण्यम जैसों के बयान की आलोचना होती है तो वे राष्ट्रवाद की आड़ लेते हैं। सोचें, ढाई सौ साल पहले 1775 में सैमुअल जॉनसन ने कहा था, ‘देशभक्ति एक दुष्ट की आखिरी शरणस्थली होती है’। सो, तत्काल दुष्टों की धुरी कहने लगती है कि यह भारत का दशक है, विकसित भारत बनाना है, देश को महान बनाना है आदि। परंतु असल में ये लोग राष्ट्र निर्माण के लिए ऐसा नहीं बोल रहे होते हैं। ये बहुत चतुर लोग हैं, जो राष्ट्रवाद और विकसित भारत के सपने की आड़ में अपना आर्थिक हित पूरा करते हैं। यह नागरिकों का भावनात्मक शोषण है। पत्नी को कितनी देर देखोगे का अगला मुकाम यह हो सकता है कि पत्नी की जरुरत ही क्या है, परिवार की भी जरुरत क्या है उसे छोड़ो, देश यानी उनकी कंपनी देखो, उनकी कंपनी ही देश बना रही है, उसमें योगदान करो। जिसने भी कार्ल मार्क्स को सरसरी तौर पर भी पढ़ा है वह ‘थ्योरी ऑफ सरप्लस वैल्यू’ यानी ‘बेशी मूल्य के सिद्धांत’ को समझता होगा। वह पूरा सिद्धांत ही मजदूरों से ज्यादा देर तक काम कराने पर आधारित है। जब पूंजीपति जगह, मशीनरी और कच्चे माल में निवेश कर देता है तो वह मजदूर से अतिरिक्त काम करा कर जो मूल्य उत्पादित करता है उसे बेशी मूल्य कहते हैं। मार्क्स के हिसाब से पूंजीपति अपना निवेश या अपना मुनाफा नहीं खाता है, बल्कि जो बेशी मूल्य उत्पादित करता है वह खाता है। वह पूंजीवाद का सबसे शोषक रूप था, जिसे पश्चिम ने 20वीं सदी के शुरुआती दिनों में ही छोड़ना शुरू कर दिया था। लेकिन भारत के उद्योगपति 21वीं सदी में भी उस शोषण के विचार को अपनाए हुए हैं।

ये उद्योगपति या कारोबारी जिस अंदाज में कर्मचारियों से 70 घंटे या 90 घंटे काम कराने की बात करते हैं वे कभी कर्मचारियों के बेहतर जीवन स्तर, उनकी खुशहाली, उनके परिवार की बेहतरी आदि के बारे में बात नहीं हैं? ये ऐसे कारोबारी हैं, जो एक तरफ सरकारों से कई किस्म के लाभ लेते हैं और दूसरी ओर कर्मचारियों का शोषण करते हैं। हर तीन महीने पर इनका मुनाफा बढ़ने की खबरें आती हैं लेकिन कभी उस मुनाफे में से कर्मचारियों को हिस्सा देने की बातें सुनने को नहीं मिलती। जबकि दूसरी ओर जिस अंदाज में मुनाफा बढ़ता है उसी अनुपात में इन कारोबारियों का अपना वेतन भत्ता भी बढ़ता है। खुद सुब्रमण्यम ने 2023-24 में एक साल पहले के मुकाबले 43 फीसदी ज्यादा वेतन भत्ता लिया। उनको 51.05 करोड़ रुपए मिले यह एलएंडटी के आम कर्मचारी के औसत वेतन से 534.57 गुना ज्यादा है। उनके आम कर्मचारी के वेतन में 1.32 फीसदी की औसत बढ़ोतरी हुई है। आनंद महिंद्रा, हर्ष गोयनका जैसे कुछ उद्योगपतियों ने एसएन सुब्रमण्यम की बातों का प्रतिवाद किया है। हालांकि सब इनकी बातों में मजाक में उड़ाने की कोशिश करते दिख रहे हैं। लेकिन यह ध्यान रखना चाहिए कि एक विचार के तौर पर अगर शोषण का यह स्वरूप पूंजीपतियों के दिमाग में स्थापित है तो वह बहुत खतरनाक समय का संकेत है। अपने निधन से पहले जॉर्ज ऑरवेल ने यह बात अधिनायकवाद के लिए कही थी। उन्होंने कहा था कि, ‘एक विचार के तौर पर अधिनायकवाद दुनिया के तमाम बौद्धिकों के दिमाग में जगह बना चुका है’। सो, व्यक्ति नहीं शोषण का विचार खतरनाक है, जो न सिर्फ मानवीय गरिमा को कम करता है, बल्कि कुछ भी नया और अद्भुत होने की संभावना को समाप्त कर देता है।

By अजीत द्विवेदी

संवाददाता/स्तंभकार/ वरिष्ठ संपादक जनसत्ता’ में प्रशिक्षु पत्रकार से पत्रकारिता शुरू करके अजीत द्विवेदी भास्कर, हिंदी चैनल ‘इंडिया न्यूज’ में सहायक संपादक और टीवी चैनल को लॉंच करने वाली टीम में अंहम दायित्व संभाले। संपादक हरिशंकर व्यास के संसर्ग में पत्रकारिता में उनके हर प्रयोग में शामिल और साक्षी। हिंदी की पहली कंप्यूटर पत्रिका ‘कंप्यूटर संचार सूचना’, टीवी के पहले आर्थिक कार्यक्रम ‘कारोबारनामा’, हिंदी के बहुभाषी पोर्टल ‘नेटजाल डॉटकॉम’, ईटीवी के ‘सेंट्रल हॉल’ और फिर लगातार ‘नया इंडिया’ नियमित राजनैतिक कॉलम और रिपोर्टिंग-लेखन व संपादन की बहुआयामी भूमिका।

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