केंद्र में जब से नरेंद्र मोदी की सरकार बनी है, तब से ‘one nation one election’ के आइडिया पर चर्चा चल रही है और जब भी ऐसी चर्चा तेज होती है तो चुनाव आयोग यह जरूर कहता है कि वह पूरे देश का चुनाव एक साथ कराने में सक्षम है और तैयार है। यह अलग बात है कि चार राज्यों के विधानसभा चुनाव उससे एक साथ नहीं होते हैं और यहां तक कि उपचुनाव भी वह एक साथ नहीं करा पाता है। लोकसभा का चुनाव कराने में उसे ढाई से तीन महीने तक का समय लग जाता है। तभी चाहे केंद्र सरकार को या चुनाव आयोग या विपक्षी पार्टियां हों, सब उलटी गंगा बहा रहे हैं। घोड़े के आगे बग्घी जोत रहे हैं। असल में एक साथ चुनाव कराने से पहले चुनाव सुधारों की जरुरत है। one nation one election
देश की चुनाव प्रणाली और प्रक्रिया में ऐसी ऐसी कमियां हैं, जिनसे कई बार पूरा चुनाव मजाक बन गया दिखता है। चुनाव आयोग को उन कमियों को दूर करना चाहिए। दागी उम्मीदवारों का चुनाव लड़ना हो या आयोग की ओर से तय की गई सीमा से कई गुना ज्यादा खर्च करने का मामला हो या कई कई मतदाता सूची होने और मनमाने तरीके से उसे तैयार करने का मामला हो या ईवीएम पर संदेह का मामला हो, इनको ठीक किए बगैर चुनाव प्रक्रिया की शुचिता सुनिश्चित नहीं हो सकती है। चुनाव आयोग को जो सुधार करने की तत्काल जरुरत है उनको इस तरह क्रमवार रख सकते हैं।
दो सीटों से चुनाव: संसाधन की बरबादी और राजनीतिक सवाल
‘one nation one election’ आजादी के बाद भारत में इसे लेकर कोई पाबंदी नहीं थी। एक व्यक्ति कई सीटों से चुनाव लड़ सकता था। अटल बिहारी वाजपेयी ने 1957 में तीन सीटों से चुनाव लड़ा था। परंतु 1996 में इसमें बदलाव किया गया और एक व्यक्ति के अधिकतम दो सीट से चुनाव लड़ने का नियम बना। इसी नियम के तहत 2014 में नरेंद्र मोदी दो सीटों से लड़े थे और राहुल गांधी पिछले दो चुनाव से दो सीटों पर लड़ रहे हैं।
सवाल है कि एक व्यक्ति को दो सीटों पर लड़ने की इजाजत क्यों होनी चाहिए? यह नैतिक या राजनीतिक रूप से भी सही नहीं है, लेकिन उससे बड़ी बात यह है कि यह संसाधन की बरबादी वाला नियम है। मिसाल के तौर पर इस बार लोकसभा चुनाव में राहुल गांधी उत्तर प्रदेश की अमेठी और केरल की वायनाड सीट से लड़े थे और दोनों जगह से जीत गए। बाद में उन्होंने वायनाड सीट से इस्तीफा दे दिया, जहां से उपचुनाव में प्रियंका गांधी वाड्रा लड़ीं और जीत कर संसद में पहुंची हैं। one nation one election
एक अनुमान के मुताबिक 2024 में लोकसभा का चुनाव कराने पर कुल सरकारी खर्च सात हजार करोड़ रुपए के करीब आया है। इसका मतलब है कि प्रति सीट सरकार का करीब 13 करोड़ रुपया खर्च हुआ है। इसका मतलब है कि राहुल के इस्तीफे से खाली हुई वायनाड सीट पर उपचुनाव कराने में सरकार का 13 करोड़ रुपया खर्च हुआ। इस बार तो एक ही नेता दो लोकसभा सीटों से जीते थे और इस वजह से एक ही सीट पर उपचुनाव की नौबत आई। लेकिन सोचें, अगर 10 सीटों पर ऐसा हो जाए तो उपचुनाव में 130 करोड़ रुपए का खर्च आएगा। हालांकि सरकार के लिहाज से यह बहुत बड़ी रकम नहीं है फिर भी यह संसाधन की बरबादी है।
उपचुनाव का बोझ: संसाधन की बर्बादी और राजनीतिक असमानताएं
इसके अलावा पार्टियों और उम्मीदवारों का खर्च अलग है। वह भी करोड़ों में होता है। यह राजनीतिक रूप से गलत इसलिए है कि आमतौर पर उपचुनाव में उस पार्टी को फायदा होता है, जिसका उम्मीदवार आम चुनाव में जीता होता है। इसका तीसरा पहलू यह है कि जीतने वाले या सत्तारूढ़ दल को ज्यादा फर्क नहीं पड़ता है लेकिन इस तरह से उपचुनाव होने पर हारने वाले या विपक्षी पार्टियों पर अतिरिक्त आर्थिक दबाव पड़ता है। ऐसे में यह नियम बनना चाहिए कि जिसकी वजह से उपचुनाव की नौबत आए, सारे खर्च का बोझ उसके ऊपर डाला जाए। वैसे भी यह क्या विडम्बना है कि एक मतदाता दो जगह वोट नहीं कर सकता है लेकिन एक नेता दो जगह से चुनाव लड़ सकता है! one nation one election
इसी से जुड़ा एक दूसरा पहलू है विधायकों के लोकसभा का चुनाव लड़ने का या सांसदों के विधानसभा का चुनाव लड़ने का। इससे भी बेवजह उपचुनाव की नौबत आती है। इस बार लोकसभा चुनाव के बाद दर्जनों विधानसभा सीटों पर इसलिए उपचुनाव कराना पड़ा क्योंकि वहां के विधायक सांसद बन गए थे। बिहार की चार विधानसभा सीटों पर उपचुनाव हुए क्योंकि चार विधायक इस बार लोकसभा का चुनाव जीत गए थे। उत्तर प्रदेश में नौ सीटों पर उपचुनाव हुआ, जिसमें से आठ सीटों पर इसलिए उपचुनाव की नौबत आई क्योंकि वहां से जीते विधायक लोकसभा चुनाव जीत गए थे।
चुनावों में बेहिसाब खर्च: लोकतंत्र पर धनपतियों का कब्जा
चुनाव में बेहिसाब खर्च, भारत में चुनावों में बेहिसाब खर्च होता है। चुनाव आयोग की ओर से वैसे खर्च की सीमा तय है लेकिन उस सीमा के अंदर वही खर्च करता है, जिसके पास उससे ज्यादा खर्च करने की क्षमता नहीं होती है। जिसकी क्षमता है वह वह सीमा से कई गुना ज्यादा खर्च करता है। एक अनुमान के मुताबिक इस बार लोकसभा चुनाव में सरकारी खर्च सात हजार करोड़ रुपए था और सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज की एक रिपोर्ट के मुताबिक उम्मीदवारों का खर्च एक लाख 35 हजार करोड़ रुपए का था।
यानी एक लोकसभा क्षेत्र में औसतन ढाई सौ करोड़ रुपए खर्च हुए। इसमें भी ज्यादातर खर्च शीर्ष दो या तीन उम्मीदवारों द्वारा किया जाता है। जाहिर है पूरा चुनाव पैसे का खेल है। लोग पैसे से जीत रहे हैं और जीत कर पैसा बना रहे हैं ताकि पहले से ज्यादा खर्च करके फिर जीत सकें। यह एक दुष्चक्र है, जिससे पूरी चुनाव प्रक्रिया दूषित हो गई है। चाहे जैसे भी हो, अगर बेहिसाब खर्च नहीं रोका गया तो जनता का लोकतंत्र धनपतियों का चारागाह बन कर रह जाएगा।
दागी उम्मीदवार और दलबदल: चुनाव प्रक्रिया में सुधार की आवश्यकता
दागी या आरोपी व्यक्तियों का चुनाव लड़ना, यह एक ऐसी समस्या है, जिसका समाधान निकालना आसान नहीं है। अक्सर पार्टियां उम्मीदवार तय करते समय चुनाव जीतने की क्षमता पर ही ध्यान देती हैं। व्यक्ति की साफ सुथरी छवि किसी भी पार्टी के उम्मीदवार चुनने का मुख्य पैमाना नहीं है। जो चुनाव जीत सकता है उसको पार्टियां टिकट देती हैं। चाहे वह आपराधिक छवि का व्यक्ति ही क्यों न हो। आर्थिक अपराध के साथ साथ हत्या, बलात्कार, अपहरण, डकैती जैसे गंभीर अपराध में आरोपी व्यक्तियों को पार्टियां टिकट देती हैं। एक पार्टी ऐसे नेता को टिकट देती है तो दूसरा मजबूरी में उसी की मैचिंग का उम्मीदवार चुनता है।
एक बार बिहार में नीतीश कुमार ने कहा था कि, ‘बाघ के सामने बकरी थोड़े लड़ा देंगे’। सब बाघ लड़ाने के चक्कर में संसद और विधानसभाओं को जंगल बनाते जा रहे हैं। अभी नियम है कि दो साल या उससे ज्यादा सजा होने के बाद कोई चुनाव नहीं लड़ पाएगा। लेकिन सबको पता है कि भारत में अपराध न्याय प्रणाली कितनी धीमी रफ्तार से काम करती है। तभी सभी पार्टियों की सहमति से चुनाव आयोग को इसका कोई रास्ता निकालना होगा ताकि दागी लोग चुनाव न लड़ें और लोगों का लोकतंत्र में विश्वास मजबूत हो। इसी से जुड़ा एक दूसरा पहलू यह है कि जेल में बंद किसी व्यक्ति को जब वोट देने का अधिकार नहीं होता है तो जेल में बंद व्यक्ति को चुनाव लड़ने का अधिकार कैसे मिला हुआ है!
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दलबदलुओं को लड़ने से रोकने का नियम, भारत में जिस तरह चुनाव लड़ने के कई नियम मजाक की तरह लगते हैं उसी तरह दलबदल का कानून भी मजाक बन गया है। लोग एक पार्टी से चुनाव जीतते हैं और पद या पैसे की लालच में दूसरी पार्टी में चले जाते हैं और इस्तीफा देकर दूसरी पार्टी से उपचुनाव लड़ जाते हैं। चुनाव आयोग को इस बारे में विचार करना चाहिए। चुनाव जीतने के बाद इस्तीफा देकर दूसरी पार्टी से लड़ने को रोकने के उपाय करने चाहिए। संस्थागत दलबदल यानी पार्टी के टूटने या दूसरी पार्टी में विलय होने का मामला अलग है। अगर कोई विधायक या सांसद इस्तीफा देता है तो कम से कम उस विधानसभा या लोकसभा के कार्यकाल तक उसके फिर से चुनाव लड़ने पर रोक होनी चाहिए। साथ ही चुनाव का खर्च भी उससे वसूला जाना चाहिए। one nation one election
ईवीएम और चुनाव प्रक्रिया पर संदेह: चुनाव आयोग को पारदर्शिता लानी होगी
ईवीएम और चुनाव प्रक्रिया पर संदेह, भारत में इलेक्ट्रोनिक वोटिंग मशीन लगातार संदेह के घेरे में है। पहले भाजपा इस पर संदेह करती थी और अब कांग्रेस व उसकी सहयोगी पार्टियां संदेह करती हैं। विपक्षी पार्टियां तो अब पूरी चुनाव प्रक्रिया पर संदेह कर रही हैं। उनका कहना है कि जान बूझकर उनके समर्थकों के नाम मतदाता सूची से काटे जा रहे हैं। यह भी कहा जा रहा है कि फर्जी नाम जोड़े जा रहे हैं ताकि सत्तापक्ष को फायदा पहुंचाया जा सके।
चुनाव आयोग को ये संदेह दूर करने होंगे। ईवीएम की वकालत करने की बजाय विपक्ष की ओर से उठाए जा रहे सवालों के जवाब तलाशने होंगे। 10 घंटे की वोटिंग के बाद बैटरी कैसे 99 फीसदी चार्ज है या गांवों में लोग जिसका विरोध कर रहे हैं उसके वोट ईवीएम से कैसे निकल रहे हैं, इसका जवाब तो देना होगा। इसी तरह भारत में हर चुनाव के लिए अलग मतदाता सूची है, जिसको अपडेट करने में हर बार गड़बड़ी की खबरें आती हैं। चुनाव आयोग को इसे भी ठीक करना होगा।