कांग्रेस नेता राहुल गांधी संगठन के साथ क्या करना चाहते हैं यह समझना दिन प्रतिदिन मुश्किल होता जा रहा है। कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने दिसंबर के अंत में बेलगावी अधिवेशन में कहा था कि 2025 संगठन को ठीक करने का वर्ष होगा। उस हिसाब से संगठन में बदलाव शुरू हो गए हैं। लेकिन इस बदलाव में कोई दिशा तो नहीं दिख रही है। सिर्फ एक बात समझ में आ रही है कि राहुल गांधी ने पिछले कुछ समय से ओबीसी, दलित और आदिवासी को आबादी के अनुपात में प्रतिनिधित्व देने का जो राग छेड़ा है उसके हिसाब से कांग्रेस संगठन में भर्तियां हो रही हैं। लेकिन क्या इस आधार पर किया जाने वाला बदलाव कांग्रेस संगठन में जान फूंक सकता है? ध्यान रहे चुनावी नैरेटिव अपनी जगह है और संगठन का काम अपनी जगह है। संगठन में नियुक्तियों से अगर राहुल गांधी राजनीति और चुनाव का विमर्श निर्धारित करना चाहते हैं या बड़ी आबादी को कोई संदेश देना चाहते हैं तो उसमें नुकसान भी हो सकता है।
इसका कारण यह है कि ओबीसी, दलित, आदिवासी और मुस्लिम का प्रतिनिधित्व बढ़ाने के लिए राहुल गांधी और उनकी टीम जिस तरीके से नियुक्तियां कर रही है उसमें कोई तारतम्य या तार्किक संगति नहीं दिख रही है। उलटे ऐसा लग रहा है कि गुणात्मकता पर ध्यान देने की बजाय कुछ निश्चित समूहों के पदाधिकारियों की संख्या बढ़ाने के लिए संगठन में नियुक्तियां हो रही हैं। इससे पहले राहुल गांधी ने 2009 में जो प्रयोग किए थे अब उसके बिल्कुल उलट नए प्रयोग कर रहे हैं। उन्होंने न तो उस समय गुणवत्ता पर ध्यान दिया था और न अब दे रहे हैं। उस समय भी उन्होंने अपने करीबी युवा नेताओं को केंद्र में मंत्री बना दिया था और अब अपने करीबी नेताओं को संगठन का जिम्मा दे रहे हैं, यह सोचे बगैर कि वह करीबी नेता संगठन में जिम्मेदारी निभाने के योग्य है या नहीं।
याद करें कैसे 2009 में जब राहुल गांधी दूसरी बार सांसद हुए और केंद्र में मनमोहन सिंह की ज्यादा सीटों वाली सरकार बनी तब राहुल ने सचिन पायलट, ज्योतिरादित्य सिंधिया, मिलिंद देवड़ा, जितिन प्रसाद, जितेंद्र सिंह, आरपीएन सिंह आदि को मंत्री बनाया। उस समय इसे मास्टरस्ट्रोक बताते हुए इसकी तारीफ हुई और कहा गया कि राहुल अपनी टीम तैयार कर रहे हैं। तब राहुल ने मंत्री बनाने का एक ही पैमाना तय किया था और वह था कि उनके हमउम्र ऐसे नेता, जिनके पिता कांग्रेस के बड़े नेता रहे हों उनको मंत्री बनाना है। वे किसी भी जाति के हो सकते थे।
आज स्थिति यह है कि उनमें से ज्यादातर लोग भाजपा या उसकी सहयोगी पार्टियों में चले गए हैं। राहुल का वह प्रयोग बुरी तरह से फेल हुआ क्योंकि वह प्रयोग उन्होंने बिना सोचे समझे और अपने निजी ख्यालों में किया था। उसी तरह 15 साल बाद फिर वे वैसे ही बिना सोचे विचारे और अपने निजी ख्यालों या इलहाम में दूसरा प्रयोग कर रहे हैं। इस बार नियुक्ति करने का उनका पैमाना है कि नेता उनका करीबी होना चाहिए यानी, जिसको वे पिछले कई बरसों से जानते हों और दूसरा वह पिछड़े, दलित, आदिवासी या अल्पसंख्यक समुदाय से आता हो। इसमें थोड़े से अगड़ी जाति के भी नेता हो सकते हैं। इसके लिए वे तमाम पुराने नेताओं को बिना सोचे समझे हटाने को भी तैयार हैं।
ऐसा लग रहा है कि राहुल गांधी कहीं की ईंट, कहीं का रोड़ा जोड़ कर भानुमति का कुनबा तैयार कर रहे हैं। जो भी नियुक्तियां हो रही हैं वह किसी न किसी निजी निष्ठा के आधार पर हो रही हैं। मिसाल के तौर पर पूर्व आईएएस अधिकारी के राजू स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लेने के बाद से राहुल गांधी की टीम के साथ काम कर रहे हैं। वे आंध्र प्रदेश के रहने वाले हैं और परदे के पीछे रह कर रणनीति से जुड़े काम करते थे। लेकिन अचानक उनको झारखंड का प्रभारी बना दिया गया। उन्हीं की तरह कर्नाटक के कृष्णा अलवारू को बिहार का प्रभारी बना दिया गया, जहां सात महीने के बाद चुनाव होने वाले हैं। राहुल गांधी के प्रति इनकी निष्ठा या प्रतिबद्धता पर कोई सवाल उठाए यह तो पूछा ही जा सकता है कि तेलुगू और कन्नड़ भाषी दो लोग ठेठ बिहारी और झारखंडी बोलने वालों के बीच क्या राजनीति करेंगे?
इनको न तो बिहार और झारखंड की भाषा, बोली की समझ है, न वहां की सामाजिक संरचना की जानकारी है, न वहां के राजनीतिक मुहावरों की समझ है और नेताओं से कोई परिचय है। ऊपर से संकट यह है कि अगर इसी बीच कर्नाटक में हिंदी व कन्नड़ का कोई विवाद हो गया या बिहार के प्रवासियों के साथ दक्षिण में कोई बदसलूकी हो गई तो बिहार और झारखंड में जवाब देते नहीं बनेगा। यह तय मानना चाहिए कि ये दोनों नेता अंग्रेजी बोलने या समझने वाले चुनिंदा नेताओं के साथ मिल कर राजनीति करेंगे। बिहार में तो दो साल में दो प्रभारी बदल गए। पहले भक्त चरण दास की जगह मोहन प्रकाश आए और अब उनकी जगह कृष्णा अलावारू आ गए लेकिन प्रदेश अध्यक्ष अखिलेश प्रसाद सिंह अपनी कमेटी नहीं बना पाए। दो साल से वे कमेटी की सूची लेकर घूम रहे हैं लेकिन कांग्रेस आलाकमान ने उसे मंजूरी नहीं दी। राहुल की करीबी मीनाक्षी नटराजन को बरसों बाद फिर सक्रिय किया गया है और उनको तेलंगाना का प्रभारी बनाया गया है। हरीश चौधरी पंजाब में विफल रहे थे लेकिन मध्य प्रदेश के प्रभारी बन गए हैं क्योंकि वे राहुल को पसंद हैं।
कांग्रेस में नियुक्तियों का पैटर्न कितना रैंडम या एडहॉक है इसे इस बात से समझा जा सकता है कि पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी का नाम महासचिवों में शामिल किया गया था लेकिन ऐन मौके पर उन्होंने मना कर दिया और कहा कि वे प्रदेश में काम करना चाहते हैं। उसके बाद यह पता लगाया जा रहा है कि उनका नाम किसने शामिल कराया था। ऐसे ही 70 साल के बीके हरिप्रसाद को विशुद्ध रूप से कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे की सिफारिश पर फिर से मुख्यधारा में लाकर हरियाणा का प्रभारी बनाया गया है। खड़गे की टीम में काम करने वाले सैयद नासिर हुसैन को महासचिव बना कर जम्मू कश्मीर व लद्दाख का प्रभारी बनाया गया है। लद्दाख केंद्र शासित प्रदेश है, जहां विधानसभा नहीं है और जम्मू कश्मीर में हाल ही में चुनाव हुए हैं।
सो, जाहिर है कि खानापूर्ति के लिए उनको वहां का प्रभारी बनाया गया है। वे पहले की तरह कांग्रेस अध्यक्ष के साथ काम करते रहेंगे। सो, चार लोग राहुल गांधी के करीबी नियुक्त हुए तो दो लोग मल्लिकार्जुन खड़गे के करीबी नियुक्त हो गए। ऐसे में प्रियंका गांधी वाड्रा को कैसे छोड़ा जाता तो उनके करीबी भूपेश बघेल भी पार्टी महासचिव बने। उनका चुनावी रिकॉर्ड यह है कि सरकार में रहते हुए छत्तीसगढ़ में 2019 के लोकसभा चुनाव में वे कांग्रेस को 11 में से सिर्फ दो सीट जीता सके। फिर 2023 में कांग्रेस को सत्ता में वापसी नहीं करा सके और 2024 लोकसभा चुनाव में कांग्रेस का सफाया हो गया। वे मुख्यमंत्री रहते या बाद में भी जहां भी चुनाव प्रभारी बन कर गए वहां कांग्रेस चुनाव हारी। लेकिन चूंकि वे ओबीसी नेता हैं और प्रियंका के करीबी हैं तो उनको महासचिव बना कर पंजाब का प्रभारी बनाया गया है। सोनिया गांधी की करीबी रजनी पाटिल को हिमाचल प्रदेश का प्रभारी बनाया गया है।
अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी में 11 नियुक्तियां हुई हैं, जिनमें से आठ ओबीसी, दलित, आदिवासी और मुस्लिम हैं, जबकि तीन अगड़ी जाति के नेता है। इनमें से एक रजनी पाटिल हैं, एक कृष्णा अलवारू हैं और तीसरी मीनाक्षी नटराजन हैं। यानी जहां जातियां सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं वहां यानी उत्तर भारत के राज्यों के किसी अगड़ी जाति के नेता को मौका नहीं मिला है। बिहार, उत्तर प्रदेश, झारखंड आदि राज्यों में तो कांग्रेस ने मान लिया है कि वहां का कोई नेता अखिल भारतीय स्तर पर कोई भूमिका निभाने के योग्य नहीं है। समूचे उत्तर भारत के भी जो नेता हैं उनकी भी विदाई का सिलसिला शुरू हो गया है।
दो प्रदेश अध्यक्ष भी जो बनाए गए हैं उनमें महाराष्ट्र में एक बार के विधायक हर्षवर्धन सपकाल को अध्यक्ष बना दिया गया। वहां कांग्रेस के पास दिग्गज नेताओं की भरमार है। जैसे तैसे उन्होंने नाना पटोले के साथ काम करना शुरू किया था कि अब सपकाल आ गए। ओडिशा में दलित समुदाय के भक्त चरण दास को कमान मिली है। बाकी राज्यों के लिए भी पिछड़े, दलित आदि समुदाय के नेताओं की तलाश चल रही है।