नरेंद्र मोदी का प्रधानमंत्री के तौर पर तीसरा कार्यकाल शुरू हो गया है। प्रधानमंत्री स्वंय और भाजपा के अन्य नेता खूब आत्मविश्वास दिखा रहे हैं और दावा कर रहे हैं कि सरकार के संचालन में कोई समस्या नहीं होगी। परंतु हकीकत उनको भी पता है। इस बार मोदी के लिए कामकाज पहले दो कार्यकाल की तरह आसान नहीं होगा। यह कहने का कतई यह आशय नहीं है कि उनके प्रधानमंत्री बने रहने में कोई समस्या आएगी। अगले पांच साल में उनकी सत्ता को कोई समस्या नहीं होगी।
भाजपा की तरफ से या सहयोगी पार्टियों की ओर से सत्ता के लिए खतरा नहीं पैदा किया जाएगा। परंतु सरकार निरंतर दबाव में रहेगी, जिसकी आदत नरेंद्र मोदी को नहीं रही है। इस साल अक्टूबर में वे सत्ता के 23 साल पूरे करेंगे। वे अक्टूबर 2001 में गुजरात के मुख्यमंत्री बने थे। शुरुआती कुछ चुनौतियों को छोड़ दें तो 2002 से दूसरा कार्यकाल शुरू होने के बाद से लेकर अभी तक उनका राज एकछत्र रहा है। कभी गठबंधन की परवाह करने की उनको जरुरत नहीं रही और न उनके ऊपर कोई आलाकमान रहा। गुजरात में भी वे सत्ता राज्य के प्रधानमंत्री की तरह ही संभालते रहे।
यह पहली बार है, जब वे अपने ऊपर दबाव महसूस करेंगे। अभी तो सारी चीजें अच्छी दिख रही हैं और पार्टी का भी समर्थन दिख रहा है। आरएसएस की ओर से भी कुछ नहीं कहा जा रहा है और सहयोगी पार्टियां भी बिना शर्त समर्थन दे रही हैं। लेकिन एक बार हनीमून पीरियड खत्म हुआ और कामकाज रूटीन में लौटा तो रोजमर्रा के कामकाज को लेकर भी दबाव और चुनौतियां सामने आने लगेंगी। सबसे पहली चुनौती सहयोगी पार्टियों के मंत्रियों के निजी स्टाफ की नियुक्ति, उनके विभागीय सचिवों की नियुक्ति और उनके स्वायत्त होकर काम करने की मांग को लेकर होगी। अगर एक बार ऐसी स्वायत्तता सहयोगी पार्टियों के मंत्रियों को मिली तो खरबूजे को देख कर खरबूजा रंग बदलता के अंदाज में भाजपा के अपने मंत्री भी पूरी नहीं तो आंशिक स्वायत्तता की मांग कर सकते हैं और नहीं मिलने पर विरोध जता सकते हैं।
ध्यान रहे अभी तक मंत्रियों को निजी स्टाफ और उनके मंत्रालयों के विभागीय सचिवों की नियुक्ति केंद्रीकृत तरीके से होती रही है। प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाली नियुक्ति समिति सारी नियुक्तियां करती हैं। इस समिति में प्रधानमंत्री के अलावा राजनाथ सिंह और अमित शाह सदस्य थे। एकाध मंत्रियों को छोड़ दें तो शायद ही कोई मंत्री पसंदीदा सचिव या स्टाफ की मांग कर सकता था। लेकिन सहयोगी पार्टियों के मंत्रियों के साथ यह रूटीन काम नहीं करने वाला है।
सहयोगी पार्टियों के कई ऐसे नेता मंत्री बने हैं, जो मंत्रालयों के कामकाज से पहले से वाकिफ हैं और नौकरशाही की समझ भी रखते हैं। वे अपने राज्य के भरोसेमंद अधिकारियों को रखने की जिद कर सकते हैं। ऐसा होने पर सरकार के कामकाज पर कैबिनेट सचिवालय और प्रधानमंत्री सचिवालय की जो आइरन ग्रिप है वह कमजोर पड़ेगी। इससे सब कुछ एक जगह से संचालित होने और एक ही नेता को हर काम का श्रेय मिलने की अब तक चली आ रही परंपरा भी खत्म हो जाएगी।
दूसरी चुनौती यह है कि सहयोगी पार्टियों के नेता खास कर दो बड़ी सहयोगी पार्टियों, जनता दल यू और तेलुगू देशम पार्टी की ओर से क्षेत्रीय आकांक्षा को ज्यादा महत्व दिया जाएगा। उनका रूझान अपने राज्य की ओर ज्यादा होगा। वे अपने राज्य के लिए ज्यादा से ज्यादा फंड लेने और विकास के काम करने का प्रयास करेंगे। इससे भी संतुलन प्रभावित होगा। ध्यान रहे तेलुगू देशम पार्टी ने आंध्र प्रदेश के लिए और जनता दल यू ने बिहार के लिए विशेष राज्य के दर्जे की मांग भी की है। अगर विशेष राज्य का दर्जा नहीं मिलता है तो ये दोनों पार्टियां विशेष पैकेज की मांग करेंगी। यानी मंत्रालय के स्तर पर एक पूर्वाग्रह होगा और समर्थन हासिल करने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर विशेष पैकेज देने की जरुरत भी होगी। इससे क्षेत्रीय आकांक्षाओं और राष्ट्रीय प्राथमिकताओं या हितों के बीच टकराव पैदा होगा। प्रधानमंत्री के नाते मोदी की प्राथमिकताएं राष्ट्रीय होंगी और उनको भाजपा शासित राज्यों का भी ध्यान रखना होगा।
तीसरी चुनौती कुछ विवादित मुद्दों या नीतियों को लेकर है। सेना में भर्ती की अग्निवीर योजना भी इसमें शामिल है। इसमें बदलाव की बात शुरू हो चुकी है। जनता दल यू की ओर से कहा गया कि इस पर विचार की जरुरत है तो बिहार की पांच सांसदों वाली लोक जनशक्ति पार्टी की ओर से भी इसका समर्थन किया गया है। अगर जदयू, लोजपा और टीडीपी तीनों पार्टियां इस मुद्दे पर एक साथ आती हैं तो सरकार को इस पर विचार करना होगा। भले इसे पूरी तरह से समाप्त नहीं किया जाए लेकिन इसकी सेवा शर्तों को बेहतर बनाने की बात हो सकती है। ध्यान रहे विपक्षी पार्टियों को कई मुद्दों पर सरकार की फॉल्टलाइन का पता है।
विपक्ष को अंदाजा है किन मुद्दों पर भाजपा की सहयोगी पार्टियों को सरकार के खिलाफ खड़ा किया जा सकता है। तमिलनाडु में सत्तारूढ़ डीएमके ने नीट को इसमें शामिल किया है। एमके स्टालिन की पार्टी ने जेडीयू और टीडीपी दोनों से मांग की है कि वे मेडिकल में दाखिले के लिए होने वाली परीक्षा नीट को समाप्त करने के लिए सरकार पर दबाव बनाए। ध्यान रहे अभी नीट की परीक्षा में हुई बड़ी गड़बड़ी सामने आई है, जिसके बाद से इस पर सवाल उठ रहे हैं। टीडीपी को इस मसले पर डीएमके का साथ देने में समस्या नहीं होगी। ऐसे ही मुसलमानों के आरक्षण का मामला है। टीडीपी अपने राज्य में मुसलमानों को आरक्षण बनाए रखने के पक्ष में है और नीतीश भी इसके समर्थन में हैं।
चौथी चुनौती मजबूत विपक्ष की है। आजाद भारत के इतिहास में पहली बार इतना मजबूत विपक्ष लोकसभा में बैठेगा। पिछली बार भाजपा के 303 सांसद थे और एनडीए के सांसदों की कुल संख्या साढ़े तीन सौ के करीब थी लेकिन ऐसा नहीं था कि बाकी दो सौ सांसद विपक्ष में थे। उसमें बीजू जनता दल के 12 और जगन मोहन के 22 सांसद तटस्थ रुख रखते थे और मुद्दों के आधार पर सरकार को समर्थन देते थे। इनके अलावा भाजपा विरोधी ज्यादातर पार्टियां एक दूसरे के खिलाफ चुनाव लड़ कर आई थीं। तभी वास्तविक विपक्ष एक सौ से भी कम सांसदों का था।
लेकिन इस बार गठबंधन बना कर साढ़े चार सौ से ज्यादा सीटों पर विपक्ष ने चुनाव लड़ा और 204 सांसद ‘इंडिया’ ब्लॉक के चुन कर आए हैं। किसी विपक्षी पार्टी या चुनाव पूर्व विपक्षी गठबंधन की यह अब तक की सबसे बड़ी संख्या है। इसमें ममता बनर्जी के 29 सांसदों को जोड़ दें तो विपक्ष की संख्या 233 हो जाती है। यानी 293 का पक्ष और 233 का विपक्ष। इतने मजबूत विपक्ष के होते सरकार के लिए मनमाने फैसले करना मुश्किल होगा। विधायी कामकाज में भी सरकार को विपक्ष के साथ सहमति बना कर ही फैसला करना होगा। यह भी संभव है कि सत्तापक्ष की कुछ पार्टियां या सांसद मुद्दा विशेष के आधार पर विपक्ष के साथ हो जाएं तो सरकार के लिए और मुश्किल होगी।
इस साल जिन राज्यों में विधानसभा के चुनाव होने वाले हैं उनमें से महाराष्ट्र में गठबंधन को लेकर अनिवार्य रूप से खींचतान होगी। कैबिनेट मंत्री पद को लेकर अजित पवार की पार्टी के साथ विवाद शुरू भी हो गया है। अगले साल बिहार में भी चुनाव है और वहां भी गठबंधन के अंदर तनाव बढ़ सकता है। इस राजनीतिक चुनौती से निपटना भी एक बड़ा काम होगा। एक अन्य राजनीतिक चुनौती भाजपा और आरएसएस के संबंधों को साधने की होगी। अभी तक आरएसएस की ओर से सरकार और पार्टी के कामकाज में कोई दखल नहीं दिया जाता था। एक चुनौती आर्थिक सुधारों और विनिवेश की प्रक्रिया को लेकर रहेगी। ऐसा लग रहा है कि इस दिशा में कोई बड़ी पहल नहीं होगी।