चुनाव विश्लेषण और रणनीति बनाने के कारोबार के इतिहास में सबसे सफल व्यक्ति प्रशांत किशोर रहे हैं। आज स्थिति यह है किसी भी नौजवान का यह कहना कि उसने प्रशांत किशोर के साथ काम किया है उसे कहीं न कहीं चुनाव प्रबंधन का काम दिलवा देता है। ऐसी टकसाली सिक्के जैसी साख इससे पहले संभवतः किसी व्यक्ति या संस्था की नहीं रही है। वहीं प्रशांत किशोर अब सक्रिय राजनीति में उतरे हैं। उन्होंने बुधवार, दो अक्टूबर को राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की जयंती के अवसर पर पटना में एक बड़ी रैली करके राजनीतिक दल की स्थापना की। उनका जन सुराज अभियान जन सुराज पार्टी में बदल गया है।
इतिहास गवाह है कि पटना के अलग अलग मैदान और अलग अलग इमारतें आजाद भारत के ज्यादातर राजनीतिक प्रयोगों की गवाह रही हैं। ज्यादा समय नहीं बीता है, महज 15 महीने पहले पटना के एक, अणे मार्ग पर स्थित मुख्यमंत्री निवास में विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ की नींव पड़ी थी। हालांकि नींव डालने वाले नीतीश कुमार बाद में इससे अलग हो गए थे तब भी वहां जो गठबंधन बना था वह ठीक एक साल बाद आजाद भारत के इतिहास में सबसे मजबूत विपक्ष बन कर उभरा। सवाल है कि क्या प्रशांत किशोर वैसी ही सफलता हासिल कर पाएंगे जैसी सफलता बिहार में हुए पहले के राजनीतिक प्रयोगों को मिली है?
इस सवाल का निश्चित जवाब नहीं दिया जा सकता है। प्रशांत किशोर यानी पीके के प्रति सद्भाव रखने और उनके एजेंडे से सौ फीसदी सहमति रखने वाले समझदार लोग भी सशंकित हैं। उनका पहला सवाल होता है कि क्या अब ब्राह्मण बिहार की राजनीति करेंगे? यह सवाल अनायास नहीं है या पहली नजर में गलत भी नहीं दिखेगा। क्योंकि मंडल की राजनीति की धरती रही बिहार में बिना जातीय समीकरण साधे, सिर्फ अच्छे आइडिया या अच्छी मंशा या अच्छे, बड़े वादे के दम पर चुनाव जीतने को स्वाभाविक रूप से मुश्किल माना जाता है। लेकिन क्या यह असंभव है?
यह भी नहीं कहा जा सकता है। आखिर बिहार ने कई बार जातीय समीकरणों और बाध्यताओं से ऊपर उठ कर मतदान किया है। लोगों ने अपने और अपने बच्चों की भलाई के लिए जाति के बंधन तोड़ कर वोट डाले हैं। लोग भावनात्मक मुद्दों में भी बहे हैं और राष्ट्रीय लहर पर सवार होकर भी मतदान किया है। चाहे 1977 की बात हो या 1984 की और 1989 की बात हो या 2014 की, इन चुनावों में बिहार के लोगों ने उम्मीदवार या नेता की जाति देख कर वोट नहीं किया था।
इस बात को समझने की जरुरत है कि हर बार जब बिहार के लोग मतदान करते हैं तो वे सिर्फ जाति देख कर ही वोट नहीं डालते हैं। अगर सिर्फ जाति के आधार पर ही वोट होता तो महज तीन फीसदी आबादी वाली जाति से आने वाले नीतीश कुमार कैसे 20 साल तक बिहार की राजनीति की केंद्रीय शक्ति बने रह सकते थे? वे पहली ही बार में चुनाव नहीं जीत पाते। लोगों ने उनको 2005 में छप्पर फाड़ बहुमत दिया तो इस वजह से नहीं दिया कि उन्होंने लव कुश का समीकरण बनाया है या उनके साथ सवर्ण व वैश्य वोट वाली भाजपा जुड़ी है। बिहार में ‘जंगल राज’ का जो नैरेटिव उन्होंने बनाया था उसे लोगों ने भी महसूस किया और उसे बदलने के लिए नीतीश कुमार को वोट किया।
अगले चुनाव में यानी 2010 में उनके गठबंधन ने बिहार की 85 फीसदी सीटें जीत ली और वह जीत भी किसी जातीय समीकरण का नतीजा नहीं थी, बल्कि बिहार के लोगों ने नीतीश के सुशासन को पसंद किया और सकारात्मक बदलाव की आकांक्षा में उनको वोट दिया। इस चुनाव के बाद नीतीश कुमार ने 2015 और 2020 का चुनाव विशुद्ध जातीय समीकरण पर लड़ा और दोनों बार उनकी सीटें कम हो गईं। 2020 में तो वे सिर्फ 43 सीट की पार्टी बन कर रह गए। सोचें, जब वे सुशासन के नाम पर लड़े तो 116 सीट जीते और जब समीकरण के नाम पर लड़े तो एक बार 71 और दूसरी बार 43 सीट जीते।
बिहार के इसी चुनावी इतिहास में प्रशांत किशोर के लिए रोशनी की किरण दिखती है। वे जाति की बात नहीं करते हैं, बल्कि वे तमाम जातियों और धर्मों के लोगों को ललकारते हैं कि वे बंधुआ बन कर एक या दूसरी पार्टी को वोट देते रहे और उन पार्टियों ने उनके लिए कुछ नहीं किया। उन्होंने अपनी पार्टी की स्थापना की सूचना देने के लिए जो निमंत्रण मीडिया और दूसरे लोगों को भेजा उसमें उस सिद्धांत का संकेत है, जिस पर उनकी पार्टी आधारित होगी। उन्होंने कहा कि वे व्यवस्था परिवर्तन के लिए उद्यम कर रहे हैं। उन्होंने बहुत सोच समझ कर सत्ता परिवर्तन या किसी को हराने, जिताने की बात नहीं कही।
वे जानते हैं कि अगर बिहार के लोग एकजुट होंगे तो वह व्यवस्था बदलने के लिए होंगे क्योंकि पिछले 35 साल से लगभग एक जैसी या ज्यादा से ज्यादा दो तरह की व्यवस्था बिहार में रही है। पहली व्यवस्था लालू प्रसाद की रही और दूसरी नीतीश कुमार की। ये दोनों नेता अपनी अपनी ऐतिहासिक भूमिका निभा चुके हैं और अब उनके पास बिहार को देने के लिए कुछ नहीं है। सो, व्यवस्था के स्तर पर लोगों का मोहभंग है तो नेतृत्व के स्तर पर भी खालीपन है। तेजस्वी यादव इस खालीपन को इसलिए नहीं भर पा रहे हैं क्योंकि उनके पास नई दृष्टि नहीं है और वे राजद के मुस्लिम, यादव वोट आधार का मोह नहीं छोड़ पा रहे हैं।
प्रशांत किशोर ने दूसरी अहम बात यह है कि उन्होंने बिहार को ज्ञान की धरती बता कर अपना अभियान शुरू किया है। आज दुनिया में ज्ञान आधारित अर्थव्यवस्था है लेकिन बिहार दशकों या सदियों पहले ज्ञान की बात छोड़ चुका है। बिहार के लोग अतीत का गौरव बताने के लिए नालंदा, विक्रमशीला या उद्यंतपुरी की बातें करते हैं। हकीकत यह है कि अगर उन्होंने शिक्षा का रास्ता या ज्ञान का रास्ता नहीं छोड़ा होता तो आज बिहार की ऐसी दुर्दशा नहीं होती। बिहार ज्ञान और शिक्षा का सर्वोच्च केंद्र रहा है। नालंदा विश्वविद्यालय में पढ़ने के लिए सारी दुनिया से छात्र आते थे और द्वारपाल उनकी प्रतिभा की परीक्षा करता है।
इसी तरह जब शंकराचार्य शास्त्रार्थ के लिए कुमारिल भट्ट के पास प्रयागराज पहुंचे थे और कुमारिल भट्ट चिता पर बैठ गए थे उन्होंने कहा था कि वे उनके बहनोई मंडन मिश्र से शास्त्रार्थ करें। मंडन मिश्र के घर का पता बताते हुए कुमारिल भट्ट ने कहा था कि जिस दरवाजे पर तोते संस्कृत में शास्त्रार्थ कर रहे हों वही मंडन मिश्र और उदया भारती का घर है। सोचें, जहां दुनिया भर से आए छात्रों की प्रतिभा की परीक्षा द्वारपाल करता हो और जहां तोते संस्कृत में शास्त्रार्थ करते हों उस धरती से ज्ञान का लोप हो जाए तो वहां के लोगों का क्या हो सकता हैप्रशांत किशोर बिहार में ज्ञान की पूरी तरह से सूख चुकी धारा को पुनर्जीवित करने का प्रयास करने निकले हैं। वे बिहार की धरती पर फिर से ज्ञान की गंगा लाने वाले भगीरथ बन सकते हैं।
सैद्धांतिक संकल्पों के साथ साथ उन्होंने कई राजनीतिक वादे भी किए हैं। उनके वादों में सबसे अहम पलायन रोकने का वादा है। उनका कहना है कि बिहार में जिसके पास पैसा है उसका बच्चा पढ़ने के लिए बाहर चला गया और जिसके पास पैसा नहीं है उसका बच्चा कमाने के लिए बाहर चला गया। पलायन की वजह से बिहार बूढ़ों का प्रदेश बन गया है। युवा या कामकाजी उम्र वाले ज्यादातर लोग बिहार छोड़ चुके हैं। प्रशांत किशोर का वादा है कि वे बुजुर्गों को दो हजार रुपए महीना पेंशन देंगे और पलायन रोक देंगे। वे बिहार के लोगों से अपने बच्चों के लिए वोट देने की बात करते हैं।
उनकी बातें उम्मीद जगाने वाली हैं। तभी उनकी पार्टी की स्थापना के समारोह में शामिल होने के लिए देश और दुनिया के हर हिस्से से लोग पटना पहुंचे। ध्यान रहे महज 10 साल पहले दिल्ली में इसी तरह अरविंद केजरीवाल का प्रयोग सफल रहा था। लेकिन यह मिसाल देते ही लोग कहते हैं कि बिहार दिल्ली नहीं है। सही है कि बिहार दिल्ली नहीं है लेकिन दिल्ली तो मिनी बिहार हैजब बिहार के लोगों ने दिल्ली में चमत्कार कर दिया तो बिहार में क्यों नहीं कर सकते हैंवहां भी उम्मीदों की आंधी में जाति और धर्म की दीवार गिर सकती है।