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जीत गए तब भी सब जायज नहीं है!

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Politics जीत जारी कमियों को ढक देती है। जो जीत जाता है वह सिकंदर कहलाता है और कोई उस पर सवाल नहीं उठाता है। जीत गए तो गलतियां भी मास्टरस्ट्रोक कहलाती हैं। हार के कारणों पर तो अक्सर चर्चा होती है लेकिन जीत के तरीके पर कोई चर्चा नहीं करता है, बल्कि जितनी चीजें जीत का कारण बनी होती हैं उनकी अंधी नकल शुरू हो जाती है। खेल के मैदान में भी कहा जाता है कि विनिंग कॉम्बिनेशन नहीं बदला जाता है, भले जीतने वाली टीम के कई खिलाड़ी बहुत खराब खेल रहे हों लेकिन उनको गुडलक मस्कट के तौर पर टीम में रखा जाता है और तब तक रखा जाता है, जब तक टीम उनके बोझ तले दब कर बुरी तरह से हारने नहीं लगती है।

इन दिनों ‘मुफ्त की रेवड़ी’ को इसी तरह का मास्टरस्ट्रोक माना जा रहा है। आंकड़ों के जरिए बताया जा रहा है कि कितने राज्यों में ‘मुफ्त की रेवड़ी’ बांट कर चुनाव जीता गया। उसमें भी एक विशिष्ठ योजना का जिक्र खासतौर से किया जा रहा है, जिसके तहत महिलाओं को नकद पैसे दिए जा रहे हैं। यह निष्कर्ष निकाला जा रहा है कि महिलाएं पैसे से प्रभावित होकर सत्तारूढ़ दल को वोट दे रही हैं। हालांकि यह महिलाओं की स्वतंत्र चेतना, समझदारी और एक स्वतंत्र वोट बैंक के तौर पर विकसित होने की समूची प्रक्रिया पर सवाल उठाने वाली बात है।

महिलाओं की योजनाओं का चुनावी प्रभाव: भाजपा और कांग्रेस की जीतों पर सवाल

यह कहना महिलाओं का अपमान है कि उन्होंने शिवराज सिंह चौहान की ‘लाड़ली बहना योजना’ से प्रभावित होकर भाजपा को वोट दिया और बड़े बहुमत से चुनाव जिताया। सवाल है कि अगर 2023 में भाजपा ‘लाड़ली बहना योजना’ पर जीती तो 2003, 2008 और 2013 में किस योजना से जीती थी और 2018 में भी कैसे उसे कांग्रेस के लगभग बराबर वोट और सीटें मिली थीं? यह भी सवाल है कि मुफ्त की तमाम रेवड़ी के बावजूद कांग्रेस छत्तीसगढ़ और राजस्थान में अपनी सत्ता क्यों नहीं बचा पाई? महाराष्ट्र में भी भाजपा का गठबंधन लगातार तीसरी बार चुनाव जीता है। अगर तीसरी जीत ‘माझी लाड़की बहिन योजना’ की है तो पहली दो जीत किस बात की थी?

झारखंड में झारखंड मुक्ति मोर्चा का गठबंधन लगातार दूसरी बार जीता है। अगर दूसरी बार की जीत ‘मइया सम्मान योजना’ की है तो पहली जीत किस बात की थी? झारखंड की मुख्य विपक्षी पार्टी भाजपा की ‘गोगो दीदी योजना’ झारखंड में नहीं चल पाई लेकिन ‘महतारी वंदन योजना’ छत्तीसगढ़ में काम कर गई थी तो उसका क्या कारण था? कांग्रेस के लिए जो ‘गृह लक्ष्मी योजना’ कर्नाटक में सफल मानी गई वही योजना 2021 में असम में क्यों नहीं चल पाई थी?

राजनीति की जटिलता: चुनावी फॉर्मूला और मुफ्त योजनाओं के प्रभाव पर विचार

इन सवालों के जवाब आसान नहीं हैं। लेकिन इन सवालों के आधार पर इतना कहा जा सकता है कि Politics इतनी एकरेखीय या सरल नहीं होती है कि किसी एक फॉर्मूले से उसको व्याख्यायित किया जा सके। ऐसा करने वाले आमतौर पर गलत साबित होते हैं और नुकसान में रहते हैं। असल में Politics बहुत जटिल प्रक्रिया है। खासतौर से जब चुनावी Politics की बात होती है तो कोई नहीं कह सकता है कि कौन सा फॉर्मूला कामयाब होगा।

जिस तरह से सुपरहिट फिल्म का फॉर्मूला किसी के पास नहीं होता है वैसे ही चुनाव जीतने का फॉर्मूला भी किसी के पास नहीं होता है। कई बार एक स्टारकास्ट की मसाला फिल्म सुपरहिट होती है तो उसी स्टारकास्ट की दूसरी मसाला फिल्म पिट जाती है। इसलिए निर्देशक एक फिल्म में कई कई चीजें आजमाते हैं तो राजनेता भी चुनाव में बहुत सारी चीजें आजमाते हैं। चुनाव नतीजों में उन तमाम चीजों का अच्छा या बुरा प्रभाव होता है। इसलिए चुनाव नतीजों का सरलीकरण करना ठीक नहीं है। Politics

दूसरी अहम बात यह है कि चुनाव जीत रहे हैं तो उसके आधार पर ‘मुफ्त की रेवड़ी’ या नकद रुपए बांटने की योजना को न्यायसंगत ठहराना भी ठीक नहीं है। इसके भी अच्छे और बुरे दोनों पहलुओं पर विचार करना चाहिए। इसमें कोई संदेह नहीं है कि भारत जैसे देश में, जहां सामाजिक सुरक्षा का कोई प्रावधान नहीं है वहां वंचित लोगों को सांस्थायिक मदद मिलनी चाहिए।

मुफ्त योजनाओं पर सवाल: क्या यह सशक्तिकरण या वोटबैंक राजनीति है?

सोशल सेक्टर में काम करने वाले अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज ने बहुत बारीकी से समझाया है कि मध्यान्ह भोजन या आंगनवाड़ी योजना या पोषण की योजनाएं या राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून या राष्ट्रीय सामाजिक सहायता कार्यक्रम कितने जरूरी हैं।

इनको किसी भी रूप में ‘मुफ्त की रेवड़ी’ नहीं कहा जा सकता है क्योंकि स्वस्थ और सुपोषित बचपन देश के भविष्य को बेहतर बनाने के लिए जरूरी है। ऐसे ही बुजुर्गों और महिलाओं की सुरक्षा भी समाज व देश की बेहतरी के लिए जरूरी है। परंतु क्या यही बात युवाओं, महिलाओं और किसानों के खाते में नकद पैसे डालने के बारे में भी कही जा सकती है या बिजली, पानी मुफ्त देने या रसोई गैस सिलेंडर पर सब्सिडी देने या मुफ्त बस पास देने के बारे में कही जा सकती है? क्या इनको महिला या युवा सशक्तिकरण की योजना कहा जा सकता है?

मौजूदा माहौल में ‘मुफ्त की रेवड़ी’ की इन योजनाओं पर सवाल उठाना जोखिम का काम है। क्योंकि Politics दलों के इकोसिस्टम से जुड़े लोग तो इससे आहत होते ही हैं अच्छी समझ वाले विचारवान लोगों को भी लगता है कि इसमें क्या बुरा है। यह तर्क भी दिया जाता है कि कॉरपोरेट टैक्स माफ होता है या नौकरीपेशा लोगों की वेतन बढ़ोतरी होती है, महंगाई भत्ता आदि मिलता है तब तो कोई सवाल नहीं उठाता है फिर गरीबों को पैसे देने पर सवाल क्यों उठाए जाते हैं? असल में सवाल गरीबों की मदद करने पर नहीं है, बल्कि कुछ पैसे देकर या कुछ चीजें मुफ्त में देकर उनका वोट हासिल करने की अलोकतांत्रिक सोच और उनको सरकारी मदद के ऊपर निर्भर बनाए रखने की योजना पर है। Politics

मुफ्त योजनाओं का असर: नकद पैसे से महिलाओं की कार्यक्षमता पर प्रभाव और अर्थव्यवस्था पर सवाल

महाराष्ट्र में चुनाव से तीन महीने पहले ही ‘माझी लाड़की बहिन’ योजना शुरू हुई है और उसके असर का आकलन करने वाली एक रिपोर्ट आई है, जिसमें बताया गया है कि खाते में नकद पैसे आने के बाद महिलाओं की कार्यक्षमता में कमी आई है। पहले कहा जा रहा था कि महिलाओं को नकद पैसे दिए जाएंगे तो उनकी खरीद की क्षमता बढ़ेगी और यह पैसा वापस देश की अर्थव्यवस्था में आएगा। लेकिन उलटा हुआ है। इससे अर्थव्यवस्था में तेजी नहीं आई है, बल्कि महिलाओं ने काम के दिन कम कर दिए हैं, जिससे उत्पादकता प्रभावित हुई है। जाहिर है उत्पादकता प्रभावित होगी तो वस्तुओं और सेवाओं की कीमत बढ़ेगी और कीमत बढ़ेगी तो फिर हजार या दो हजार रुपए की क्या हैसियत रह जाएगी?

सो, यह गर्व की बात नहीं है कि ‘मुफ्त की रेवड़ी’ बांटी जा रही है। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ‘रेवड़ी पर चर्चा’ कर रहे हैं। वे घूम घूम कर लोगों से पूछ रहे हैं कि उनको मुफ्त की रेवड़ी चाहिए या नहीं। अब सवाल है कि कौन आदमी कहेगा कि मुफ्त की रेवड़ी नहीं चाहिए? लेकिन अगर साथ ही यह भी पूछा जाए कि आपको साफ पानी चाहिए या नहीं? क्या आपको साफ हवा चाहिए या नहीं? आपको रोजगार चाहिए या नहीं? क्या आपको ट्रैफिक जाम से मुक्ति चाहिए या नहीं? क्या महंगाई और बेहिसाब टैक्स से राहत चाहिए या नहीं? तो लोगों का क्या जवाब होगा? लेकिन बड़ी होशियारी से इन सवालों को छिपा दिया जाता है।

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लोगों को यह नहीं बताया जाता है कि अनेक किस्म के टैक्स के रूप में उनके शरीर से खून खींचा जा रहा है और बदले में जूस का टेट्रा पैक पकड़ाया जा रहा है। मुफ्त की रेवड़ी बांटने के चक्कर में सरकारों ने बुनियादी ढांचे के विकास और नौकरी, रोजगार आदि के सवाल को हाशिए में डाल दिया है। सरकारों को लोगों का जीवन सम्मानजनक नहीं बनाना है, बल्कि उसी के पैसे में से कुछ पैसे निकाल कर भीख की तरह देने हैं और खुद शहंशाह की तरह रहना है।

By अजीत द्विवेदी

संवाददाता/स्तंभकार/ वरिष्ठ संपादक जनसत्ता’ में प्रशिक्षु पत्रकार से पत्रकारिता शुरू करके अजीत द्विवेदी भास्कर, हिंदी चैनल ‘इंडिया न्यूज’ में सहायक संपादक और टीवी चैनल को लॉंच करने वाली टीम में अंहम दायित्व संभाले। संपादक हरिशंकर व्यास के संसर्ग में पत्रकारिता में उनके हर प्रयोग में शामिल और साक्षी। हिंदी की पहली कंप्यूटर पत्रिका ‘कंप्यूटर संचार सूचना’, टीवी के पहले आर्थिक कार्यक्रम ‘कारोबारनामा’, हिंदी के बहुभाषी पोर्टल ‘नेटजाल डॉटकॉम’, ईटीवी के ‘सेंट्रल हॉल’ और फिर लगातार ‘नया इंडिया’ नियमित राजनैतिक कॉलम और रिपोर्टिंग-लेखन व संपादन की बहुआयामी भूमिका।

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