भारत की राजनीति इतनी विभाजित कभी नहीं रही, जितनी अभी है। पार्टियां और नेता एक दूसरे को अब राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी नहीं मान रहे हैं, बल्कि शत्रु मान रहे हैं। एक समय था जब कहा जाता था कि सब नेता मिले होते हैं। लोग देखते भी थे कि संसद में या विधानसभाओं में या राजनीतिक कार्यक्रमों में एक दूसरे के खिलाफ आग उगलने वाले नेता निजी कार्यक्रमों में एक दूसरे के गले मिलते थे। राजनीति से इतर उनके आपस में अच्छे संबंध होते थे। पक्ष और विपक्ष के नेता आपस में मिलते जुलते थे, बातें करते थे। लेकिन अब यह परंपरा लगभग समाप्त हो गई है। अगर कहीं पक्ष और विपक्ष के नेताओं के एक दूसरे के प्रति सद्भाव दिखाने की तस्वीरें या खबरें आती हैं तो आश्चर्य ही होता है। ऐसी तस्वीरें आने पर नेता घबरा भी जाते हैं कि कहीं उनके आलाकमान को यह बात बुरी न लग जाए। असल में चुनावी फायदे के लिए वैचारिक और राजनीतिक विभाजन को निजी शत्रुता में बदलने की वजह से ऐसा हुआ।
पिछले कुछ समय से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने विपक्ष के नेताओं को दुश्मन मान कर उनके खिलाफ एक सतत चलने वाले अभियान की शुरुआत की। उन्होंने नेताओं को भ्रष्ट, परिवारवादी और निकम्मा ठहराना शुरू किया। इससे उनकी पार्टी के नेताओं की मजबूरी हो गई कि वे कांग्रेस और दूसरी भाजपा विरोधी पार्टियों के नेताओं से दूरी बनाएं। धीरे धीरे ऐसी स्थिति आ गई, जब भाजपा के नेता बढ़ चढ़ कर विपक्षी नेताओं को गालियां देने लगे ताकि अपनी स्वामीभक्ति साबित की जा सके। तो दूसरी ओर राहुल गांधी और विपक्ष के अन्य नेताओं ने नीतियों और सरकार के कामकाज की बजाय नरेंद्र मोदी को शत्रु मान कर सिर्फ उन्हीं को निशाना बनाने की रणनीति अपना ली।
पार्टियों और नेताओं के बीच शुरू हुआ यह विभाजन अब जमीनी स्तर पर मतदाताओं तक पहुंच गया है। अब नेता अपने खिलाफ मतदान करने वालों को अपना दुश्मन बताने लगे हैं और खुल कर कहने लगे हैं कि वे उन लोगों का काम नहीं करेंगे, जिन्होंने उनको वोट नहीं दिया। इसकी तीन मिसालें हैं, जो हाल की हैं। बिहार की सीतामढ़ी लोकसभा सीट से चुनाव जीते जनता दल यू के देवेश चंद्र ठाकुर ने नतीजों के बाद कहा कि वे मुस्लिम और यादव लोगों के काम नहीं करेंगे क्योंकि उन्होंने उनको वोट नहीं दिया है।
उन्होंने कहा कि मुस्लिम और यादव उनके पास आएंगे तो वे उनको चाय पानी करा देंगे लेकिन काम नहीं करेंगे। इसके बाद झारखंड की गोड्डा सीट से जीते भाजपा के निशिकांत दुबे ने कहा कि जिन मतदान केंद्रों पर भाजपा को 60 फीसदी या उससे ज्यादा वोट मिले हैं वहां सामुदायिक केंद्र बनाए जाएंगे, जिनकी लागत 50 से 60 लाख रुपए होगी। तीसरी मिसाल उत्तर प्रदेश की नतौर विधानसभा सीट से जीते भाजपा के ओम कुमार का है, जिन्होंने कहा है कि वे उन लोगों का काम नहीं करेंगे, जिन्होंने उनको वोट नहीं दिया है। वे नगीना सीट से लोकसभा का चुनाव लड़े थे और हार गए थे।
ये तीन प्रतिनिधि घटनाएं हैं, जिनसे पता चलता है कि राजनीतिक विभाजन किस स्तर तक पहुंच गया है। संसद और विधानसभाओं की राजनीति तो एरिना में ग्लैडियटर्स की लड़ाई में पहले ही बदल गई थी अब जमीनी राजनीति और मतदाता भी पार्टी लाइन पर बांटे जाएंगे। वैसे ही जैसे दुनिया भर में फुटबॉल के प्रशंसक बने हैं। सबकी अपनी पसंदीदा टीम होती है, जिसके जीतने पर वे जश्न मनाते हैं और हारने पर मारपीट करते हैं। क्या इसी तरह से अब देश में लोकसभा और विधानसभा क्षेत्रों में होगा?
जीता हुआ नेता उन लोगों के काम नहीं करेगा, जो उसकी पार्टी के या उसके विरोधी होंगे! इलेक्ट्रोनिक वोटिंग मशीन यानी ईवीएम ने अब उम्मीदवारों को यह सुविधा उपलब्ध करा दी है कि उन्हें पता होगा कि किस बूथ पर उन्हें कितने वोट मिले हैं। पहले जब बैलेट से चुनाव होता था तो कई बूथों के बैलेट एक साथ मिला दिए जाते थे और तब उनकी गिनती होती थी, जिससे बूथवार डाटा नहीं मिल पाता था। बहरहाल, ईवीएम की इस सुविधा का लाभ उठा कर सांसद और विधायक उन मतदान केंद्रों की पहचान कर सकते हैं, जहां उनको कम वोट मिले हैं या नहीं मिले हैं और फिर उनके साथ विकास के कार्यों में भेदभाव कर सकते हैं।
लेकिन क्या ऐसा करना शपथ का उल्लंघन नहीं होगा? लोकसभा के लिए चुने गए सदस्यों की शपथ का प्रारूप इस प्रकार होता है, ‘मैं, अमुक, जो लोक सभा का सदस्य निर्वाचित या नाम निर्देशित हुआ हूं सत्यनिष्ठा से प्रतिज्ञान करता हूं या ईश्वर की शपथ लेता हूं कि मैं विधि द्वारा स्थापित भारत के संविधान के प्रति सच्ची श्रद्धा और निष्ठा रखूंगा, मैं भारत की प्रभुता और अखंडता अक्षुण्ण रखूंगा तथा जिस पद को मैं ग्रहण करने वाला हूं उसके कर्त्तव्यों का श्रद्धापूर्वक निर्वहन करूंगा’।
राज्यसभा, विधानसभा और विधान परिषद के लिए चुने गए या मनोनीत किए गए सदस्यों के लिए भी यही प्रारूप होता है। इसमें साफ साफ लिखा गया है कि चुना गया सदस्य देश के संविधान के प्रति सच्ची श्रद्धा और निष्ठा रखेगा। ध्यान रहे भारत का संविधान सभी नागरिकों की समानता की बात करता है और किसी भी आधार पर भेदभाव को निषिद्ध करता है। ऐसे में संविधान को मानने वाला कोई भी व्यक्ति यह कैसे कह सकता है कि वह एक वर्ग के लिए काम करेगा और दूसरे के लिए नहीं करेगा?
यहां एक तकनीकी पहलू है, जिसका इस्तेमाल खुलेआम भेदभाव की बात करने वाले सांसदों और विधायकों के बचाव में किया जा सकता है। वह पहलू यह है कि मंत्रियों के शपथ में एक अतिरिक्त लाइन यह जोड़ी जाती है कि, ‘मैं संविधान और विधि के अनुसार सभी प्रकार के लोगों के साथ भय या पक्षपात, अनुराग या द्वेष के बिना अच्छा व्यवहार करूंगा’। यह लाइन सांसदों और विधायकों की शपथ में नहीं होती है। क्या इससे सांसदों और विधायकों को यह छूट मिल जाती है कि वे भेदभाव कर सकें? वे अपने समर्थक मतदाताओं की पहचान करें और उनको ज्यादा महत्व दें?
और वोट नहीं देने वाले मतदाताओं के लिए काम नहीं करें? इससे तो हर चुनाव क्षेत्र में पार्टियों के घेटो बन जाएंगे। सामाजिक स्तर पर इससे कितना बड़ा विद्वेष बढ़ेगा, इसका अंदाजा नहीं लगाया जा सकता है। जाति और धर्म के आधार पर गांव गांव में गोलबंदी होगी, आए दिन आपस में झगड़े होंगे और राजनीतिक विभाजन सामाजिक संरचना को बुरी तरह से छिन्न भिन्न कर देगा। इससे पहले कि इक्का दुक्का नेताओं की ओर से दिए जाने वाले बयान सांस्थायिक रूप लें और राजनीतिक विभाजन गांवों, कस्बों तक पहुंच कर सामाजिक ताना बाना तोड़ने लगे उससे पहले इस महामारी को रोकना होगा।